नन्दनन्दन दौड़े जाते हैं, जिसके द्वार स्वयं

March 1992

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वत्स तुम यह श्रम प्रतिदिन क्यों करते हो? महर्षि शाकल्य जब से वन में आये और उन्होंने इस जल स्त्रोत के समीप गुहा को अपना साधना स्थल बनाया, यह वृद्ध वनवासी कोल उनके यहाँ सूखी समिधाएं, कन्द और फल प्रतिदिन रख जाता है। वह आता है, भूमि में मस्तक रखकर ऋषि को प्रणाम करता है, अपना गट्ठर एक ओर रखता है समिधाएँ एक ओर और फल तथा कुछ बड़े-बड़े पते एक ओर रखकर गुहा के आस-पास की भूमि बुहारने लगता है और यह काम पूरा करके फिर भूमि पर मस्तक रखकर चला जाता है।

वृद्ध कोल को इससे कुछ मतलब नहीं कि ऋषि ने उसे देखा या नहीं। वह न एक शब्द बोलता है और न इसकी अपेक्षा करता है कि ऋषि उसे आशीर्वाद दें। अनेक बार ऋषि उसे गुफा में नहीं दीखते। वह सदा एक ही समय नहीं आ पता। ऋषि स्नान करते होते हैं या वन में गए होते हैं। वह वैसे ही गुफा की ओर मुख करके ऋषि के आसन को प्रणाम करता है आने पर और जाते समय भी। उसने अपने आप एक सीमा मान ली है।

वर्षा-आँधी और शीत-वनवासी जातियों के लिए ये कोई बाधाएँ नहीं है। प्रकृति की उन्मुक्त गोद में खेलना उन्होंने जन्म से सीखा हैं प्रबल वर्षा में भी किसी दिन वह रुका नहीं। वह तो तब भी नहीं रुका था जब उसका देह ज्वर से तप रहा था। महीनों हो गए इस वृद्ध को लकड़ियाँ और कन्द लाते। महर्षि शाकल्य को यही पता नहीं लगा कि कोई उनकी सेवा कर रहा है। आज इधर ध्यान गया उनका, तो वृद्ध को देखते ही आसन से उठे और सीधे उसके सामने आ खड़े हुए।

“क्या चाहिए तुम्हें?” सब कुछ देने में समर्थ तपोनिष्ठ

ऋषि का क्या ठिकाना। वे इस काले-कलूटे लंगोटीधारी बूढ़े कोल को जो वरदान दे डाले तो सृष्टि में उनका प्रतिवाद करने वाली शक्ति कहाँ से आएगी?

“डरो मत हिचको मत तुम्हें जो कुछ माँगना हो माँगो। सुप्रसन्न तपस्वी के अभय स्वर निकल।

इस वन में कन्द और फल बहुत है। बूढ़े ने बड़ी नम्रता से कहा-आपकी कृपा से मेरे दोनों पुत्र स्वस्थ और बलवान है। वे मेरा आदर करते हैं। मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए।

‘तुम यह मेरी सेवा प्रतिदिन क्यों करते हो?’ महर्षि भी इस अशिक्षित असंस्कृत वन्य मानव की निष्कामता से चकित रह गए थे।

‘मेरा बाप मरने लगा था तो उसने मुझसे कहा था’ वृद्ध ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-’सेवा कर पाना बड़े सौभाग्य की बात है। कभी कोई ऋषि मुनि इस वन में आ जाय तो अपने बनते उनकी सेवा करना इससे भगवान प्रसन्न होता है।’

मैं और सेवा कर भी क्या सकता हूँ?’ वृद्ध कह रहा था लकड़ियाँ और ये कन्द तो वन के हैं। इनमें मेरा क्या है। लड़कों को मैंने कह दिया है कि एकल सुअर लागू पड़ने वाले बाघ आदि को वे यहाँ से दूर खदेड़ने में भूल न करें।

“भगवान प्रसन्न हो जायँ तो तुम उनसे क्या चाहोगे ?” महर्षि को लगा , यह वृद्ध समझता नहीं कि ईश्वरीय सृष्टि में जो कुछ भी मनुष्य प्राप्त कर सकता है , वह सब देने की क्षमता उनमें है ।

‘मुझे जो कुछ चाहिए वह श्रम ने पहले से दे रखा है । काम करते रहने से शरीर चुस्त-दुरुस्त निरोग रहता है । थके हारे पीड़ितों की मदद करने से उनका आशीर्वाद मिलता है । वृद्ध सरल भाव से कहे जा रहा था-आप जैसे ज्ञानी महात्माओं की सेवा करते हैं-तो आशीर्वाद मिला ही धरा है । बस एक ही चाहते हैं ?

क्या ? इस एक शब्द में महर्षि के सारे अस्तित्व की प्रसन्नता टपक पड़ी ।

‘भगवान सब संसार को बनाता है । सबका पालन करता है । वह सब करते-करते थक जाता होगा । ‘ वृद्ध कोल ने बड़ी सरलता से कहा वह प्रसन्न रहे तो उसे थकावट नहीं लगेगी मैं चाहता हूँ वह सदा प्रसन्न रहे । मैं जब आनन्द में रहता हूँ कितना भी ढेर सा काम करूं थकता नहीं हूँ ।

ऋषि चकित हो उसकी निष्काम श्रम निष्ठ पर सोचने लगे । उन्हें इस तरह सोचते देख उसने भूमि पर सिर रखा और लौट पड़ा अपने झोंपड़े की ओर ।

“तुम्हारी झोंपड़ी कहाँ है ?” दूसरे दिन जब वृद्ध लकड़ियाँ लेकर आया, उसे लगा कि महर्षि उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे । उसने जैसे ही भूमि पर माथा रखा महर्षि आसने से उठ आए । उन्होंने क्या आशीर्वाद दिया वृद्ध समझ नहीं सका किन्तु ऋषि तो उसका निवास पूछ रहे थे ।

‘यहाँ से एक कोस दूर नाले के किनारे हम कोलों के झोंपड़े हैं।’ वृद्ध ने प्रार्थना की पर वहाँ आस-पास की भूमि बहुत अपवित्र है । आप वहाँ पधारें ऐसा स्थान वह नहीं है । उत्तर मिला वत्स ! भगवान श्री द्वारिकानाथ इन्द्रप्रस्थ आये थे धर्मराज युधिष्ठिर के समीप वे अर्जुन को साथ लेकर इधर वन भ्रमण हेतु निकले हैं । वे अभी भी इधर आ सकते हैं यद्यपि उनका शिविर यहाँ से पर्याप्त दूर है, किन्तु अर्जुन के रथ के लिए यह दूरी गणना करने योग्य नहीं है ।

‘मैंने अपने बाप से सुना है महाराज पाण्डु हमारे स्वामी थे । ‘ वृद्ध हर्षित हो गया था ‘उनके पुत्र इधर आवें तो उनकी पद वन्दना का भाग्य मिलेगा और भगवान तो

आप जैसे महात्मा के यहाँ आवेंगे ही ।

‘श्रीकृष्ण इस आश्रम पर आवें-इसकी मुझे सम्भावना नहीं है ।’ बूढ़ कोल ऋषि की बात सुनकर उनका मुख देखता रह गया । ऋषि सर्वज्ञ हैं अतः ठीक ही कहते होंगे । लेकिन जब ऋषि का दर्शन करने अर्जुन श्रीकृष्ण के आने की आशा नहीं है, उनके दर्शन होने की उसे भी क्या आशा ?

‘कल तुमने मुझसे कुछ माँगा नहीं ।’ महर्षि अद्भुत भरे-भरे स्वर में बोल रहे थे आज मैं तुमसे माँग रहा हूँ अस्वीकार मत करना ।

आज्ञा भगवान् । वह तो लगभग भय से काँपने लगा । ऋषि इस प्रकार क्यों बोल रहे हैं । ऐसी क्या बात है , जिसके लिए वे उसे सीधे आज्ञा नहीं दे सकते । ‘श्रीकृष्ण तुम्हारे झोंपड़े में आयें तो उनसे अनुरोध करना कि वे इस ओर से निकलें । महर्षि ने अत्यन्त विनम्र स्वर में यह बात कही ।

‘भगवान मेरे झोंपड़े में आवेंगे ?’ वृद्ध जैसे आकाश से नीचे गिरा हो, इस प्रकार चौंका । वह कुछ क्षण तक निष्कम्प खड़ा रहा । पर ऋषि की वाणी असत्य नहीं हो सकती । वह प्रणाम करके चल पड़ा । उसके कदमों की आहट दूर होती गयी पर किसी अन्य की वाणी पास आती जा रही थी ।

“अर्जुन । आज एक साधक के दर्शन करने चलना है ।” श्री कृष्ण ने रथ चलाते ही सहचारियों को निषेध कर दिया था कि वे अनुगमन न करें । शिविर में भी वे चलते-चलते कह आये हैं कि आज मध्याह्न में उनकी प्रतीक्षा न की जाय ।

‘ऐसा साधक इधर कौन है जिनके दर्शन करने को स्वयं जनार्दन उत्सुक हैं ?’ अर्जुन को आश्चर्य होना स्वभाविक है । पाण्डव इतने प्रमादी नहीं है कि आस पास के जंगलों में रहने वाले तपस्वियों की वे खोज-खबर न रखें । ‘महर्षि शाकल्य की गुहा पर चल रहें हैं

आज आप ?’

अर्जुन का आश्चर्य अकारण नहीं है । महर्षि शाकल्य तपस्वी हैं योगी हैं, किन्तु हैं महर्षि व्यास के प्रशिष्य और जब व्यास जी ही श्रीकृष्ण का दर्शन करने आते हैं, महर्षि शाकल्य को सन्देश भिजवा देते तो वे अपना अहोभाग्य मानते ।

‘मानव के समीप आध्यात्मिक साधन के तीन उपकरण हैं मस्तिष्क हृदय और देह।’ चलते रथ में माधव अपने सखा को समझा रहे थे- ‘मस्तिष्क के जो साधक हैं प्रतिभा का प्रसाद जिन्हें मिला है उन महर्षियों के दर्शन हम इन्द्रप्रस्थ में ही कर लेते हैं ।’

‘हृदय का धन जिनके पास है भक्ति देवी के जो अनुग्रह भाजन हैं नन्द नन्दन को उनके द्वार तक दौड़ना पड़ता है ।’ अर्जुन ने हँसकर अपने सखा की ओर देखा । से तो है ही । श्रीकृष्ण भी हँसे “लेकिन आज एक देह के साधक के द्वार पर हम चल रहे हैं । उसके पास न बुद्धि है और न भावुकता की शास्त्रीय बातें । किन्तु देह को उसने लगा दिया है श्रम-श्रम अनवरत श्रम यह एक मात्र साधना है उसकी । पीड़ितों की सेवा, असहायों की सहायता एकमेव ध्येय है उसका और तुत जानते हो कि देह सत्ता है । सत्ता का ठीक संयम होगा तो चित् और आनन्द उनसे भिन्न नहीं रहेंगे ।

‘सच्चिदानंद स्वयं दौड़ा जा रहा है ‘ यह तो देख रहा हूँ किन्तु वे महाभाग ?’ अर्जुन ने पूछा । रथ के वेग ने अब तक गन्तव्य तक पहुँचा दिया था । उन्हें और पार्थ को अद्भुत दृश्य देखने को मिला । बूढ़ा कोल एक घायल की सेवा करने में जुटा था । श्रीकृष्ण सहायक बन गए उसके झोंपड़े में आकर ।

बाबा महर्षि शाकल्य को कहना , हम उनके आश्रम के सम्मुख से जायेंगे । कार्य निवृत्त होने पर गीता के महान उपदेष्टा ने कहा । स्वरों में जैसे उसमें नवीन चेतना का संचार हुआ । वह सन्देश देने दौड़ा वह दैहिक साधक अपनी इस महान साधना के अतिरिक्त उसे और चाहिए भी था क्या ?


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