सर्वत्र अद्वैत ही बिखरा पड़ा !

March 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पेंगल तब महर्षि नहीं बने थे । उसके लिए आत्म-सिद्धि आवश्यक थी, पर पेंगल साधना करते-करते पदार्थों की विविधता में ही उलझ कर रह गये । पशु-पक्षी, अन्य जन्तु, मछलियाँ, साँप, कीड़े, मकोड़ों में शरीरों और प्रवृत्तियों की भिन्नता होने पर भी शुद्ध अहंकार और चेतना की एकता तो समझ में आ गयी, पर विस्तृत पहाड़, टीले, जंगल, नदी, नाले, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, प्रकाश, और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विविध खनिज , धातुएँ, गैसें, ठोस आदि क्या हैं ? क्यों हैं ? और इनमें यह विविधता कहाँ से आयी है ? यह उनकी समझ में नहीं आया। इससे उनकी आत्मदर्शन की आकाँक्षा और बेचैन हो उठी ।

वे याज्ञवल्क्य के पास गये और उनकी बारह वर्ष तक सेवा-सुश्रूषा कर पदार्थ विद्या का ज्ञान प्राप्त किया । इस अध्ययन से पेंगल का मस्तिष्क साफ हो गया कि जड़ पदार्थ भी एक ही मूल सत्ता के अंश हैं । सब कुछ एक ही चेतन तत्व से उपजा है । ‘एकोअहं बहुस्यामः’ तथा ‘एक नूर से सब जग उपजिआ’ वाली बात उन्हें पदार्थ विज्ञान में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई । उन्होंने यह जान लिया कि वायु की लहरों के समान विभिन्न तत्व प्रतिभासित होते हुए भी सृष्टि के समस्त तत्व एक ही मूल तत्व से आविर्भूत हुए हैं । उसे महाशक्ति कहा जाय, आत्मा या परमात्मा सब एक ही सत्ता के अनेक नाम हैं ।

विज्ञान की आधुनिक जानकारियाँ भी उपरोक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती हैं । जड़ और चेतन के बीच की खाई अब पटने लगी है । द्वैत को अद्वैत में परिणत करने के प्रयास आरंभ हो गये हैं । विज्ञान क्रमशः इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ से सुसम्बद्ध करके दोनों को एक ही स्थान पर संयुक्त बनाकर खड़ा कर सके । जीवन रासायनिक पदार्थों से-पंचतत्वों से बना है, इस सिद्धान्त को सिद्ध करते-करते हम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ यह सिद्ध हो सकता है कि जीवन से पदार्थों की उत्पत्ति हुई ।

उपनिषद् का कहना है कि ईश्वर ने एक से बहुत बनने की इच्छा की, फलतः यह बहुसंख्यक प्राणी और पदार्थ बन गये । यह चेतन से जड़ पदार्थों की उत्पत्ति हुई । नर-नारी कामेच्छा से प्रेरित होकर रति कर्म में निरत होते हैं, फलतः रज शुक्र के संयोग से भ्रूण कलल का आरंभ होता है । यह भी मानवी चेतना से जड़ शरीर की उत्पत्ति है । जड़ से चेतन उत्पन्न होता है , इसे पानी में काई व सूक्ष्म जीवधारी तथा मिट्टी में घास उत्पन्न होते समय स्पष्ट देखा जा सकता है । गंदगी में मक्खी, मच्छरों का पैदा होना, सड़े हुए फलों में कीड़े उत्पन्न होना यह जड़ से चेतन की उत्पत्ति है ।

प्रकृति अपने आप में पूर्ण नहीं है, उसे चेतन सत्ता द्वारा प्रेरित प्रोत्साहित और फलवती किया जा रहा है । यद्यपि कुछ पदार्थ विज्ञानी अभी भी इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि ‘जड़’ प्रमुख है । चेतन उसकी एक स्थिति है । ग्रामोफोन का रिकार्ड और उसकी सुई का घर्षण प्रारंभ होने पर आवाज आरंभ हो जाती है, उसी प्रकार अमुक स्थिति में, अमुक अनुपात में इकट्ठे होने से चेतन जीव की स्थिति में जड़ पदार्थ-विकसित हो जाते हैं, जीवविज्ञानी अपने प्रतिपादनों में इसी तथ्य को प्रमुखता देते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि जीवन कुछ नहीं, जड़ पदार्थों का ही विकसित रूप है । प्रख्यात विज्ञानवेत्ता आइन्स्टीन एक ऐसे फार्मूले की खोज में थे, जिससे जड़ और चेतन की इस भिन्नता को एकता में निरस्त किया जा सके । उनका कहना था कि यह युग्म जब तक सिद्ध नहीं हो जाता तब तक विज्ञान के कदम लँगड़ाते हुए ही चलेंगे ।

रासायनिक दृष्टि से जीवकोश और अणु को एक ही तराजू में तोला जा सकता है । दोनों में प्रायः समान स्तर के प्राकृतिक नियम काम करते हैं एकाकी परमाणु की सूक्ष्म संरचना के बारे में अभी भी वैसी ही खोज जारी है जैसी कि पिछली तीन शताब्दियों से चलती रही है । विकिरण और गुरुत्वाकर्षण के अभी बहुत से स्पष्टीकरण होने बाकी हैं । जो समझा जा सका है वह अपर्याप्त ही नहीं, असंतोषजनक भी है । प्रायः यही स्थिति जीवन तत्व की खोज में किये गये वैज्ञानिक प्रयासों की है ।

यों कोशिकायें निरन्तर जन्मती मरती रहती हैं, पर उनमें एक के बाद दूसरी में जीवन तत्व का संचार अनवरत रूप से होता रहता है । मृत होने से पूर्व कोशिकायें अपना जीवन तत्व नवजात कोशिका को दे जाती हैं । इस प्रकार मरण के साथ ही जीवन की अविच्छिन्न परम्परा निरन्तर चलती रहती है । उन्हें मरणधर्मा होने के साथ-साथ अजर-अमर भी कह सकते हैं । वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया चलते रहने पर भी उनकी अविनाशी सत्ता पर कोई आँच नहीं आती ।

नोबेल पुरस्कार विजेता विख्यात वैज्ञानिक डॉ. अलेक्सिस केरल उन दिनों न्यूयार्क के रॉकफेलर चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र में काम कर रहे थे । एक दिन उन्होंने एक मुर्गी के बच्चे के हृदय के जीवित तन्तु का एक रेशा लेकर उसे रक्त एवं प्लाज्मा के घोल में रख दिया । वह रेशा अपने कोष्ठकों की वृद्धि करता हुआ विकास करने लगा । उसे यदि काटा छाँटा न जाता तो वह अपनी वृद्धि करते हुए वजनदार माँस पिण्ड बन जाता । इस प्रयोग से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन तत्वों से बना है, यह अभी जाना नहीं जा सका है । यदि इस पहेली को ठीक तरह से जाना जा सके और टूट-फूट को सुधारना संभव हो सके तो अनन्तकाल तक जीवित रह सकने की सभी संभावनायें विद्यमान हैं ।

प्रोटोप्लाज्मा जीवन का मूलतत्व है । यह तत्व अमरता की विशेषता से युक्त है । विज्ञानवेत्ता रासायनिक सम्मिश्रण से इसे उत्पन्न किये जाने के परीक्षणों में निरत हैं । छोटे जीवाणु बनाने में ऐसी कुछ सफलता उन्हें मिली भी है, पर उतने से ही यह दावा करने लगना उचित नहीं कि मनुष्य ने जीवन का सृजन करने में सफलता प्राप्त करली ।

जिन रसायनों से जीवन विनिर्मित किये जाने की चर्चा है, क्या उन्हें भी उनकी प्रकृतिगत विशिष्टताओं को भी मनुष्य द्वारा बनाया जाना संभव है ? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों को मौन ही साधे रहना पड़ रहा है । पदार्थ की जो मूल प्रकृति एवं विशेषता है, यदि उसे भी मनुष्यकृत प्रयत्नों से नहीं बनाया जा सकता तो इतना ही कहना पड़ेगा कि उसने ढले हुए पुर्जे जोड़कर मशीन खड़ी कर देने जैसा बाल-प्रयोजन ही पूरा किया है । ऐसा तो लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षर बनाने वाले किन्डर गार्डन कक्षाओं के छात्र भी कर लेते हैं । इतनी भर सफलता से जीव निर्माण जैसे दुस्साध्य कार्य को पूरा कर सकने का दावा करना उपहासास्पद गर्वोक्ति है ।

कुछ मशीनों बिजली पैदा करती हैं, कुछ तार बिजली बहाते हैं, पर वे सब बिजली तो नहीं हैं । अमुक रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जीवन पैदा हो सकता है, सो ठीक है, पर उन पदार्थों में जो जीवन पैदा करने की शक्ति है वह अलौकिक एवं सूक्ष्म है । उस शक्ति को उत्पन्न करना जब तक संभव न हो तब तक जीवन का सृजेता कहला सकने का गौरव मनुष्य को नहीं मिल सकता ।

जीवविज्ञानियों ने जीव-कोष से सम्बन्धित अब तक जो जानकारियाँ उपलब्ध की हैं उसके अनुसार प्रत्येक कोशिका का नाभिक-न्यूक्लियस अविनाशी तत्व हैं । वह स्वयं नष्ट नहीं होता, पर वैसे ही अनेक सेल्स बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है । एक कोशिकीय अमीबा निरन्तर अपने आपको विभक्त करते हुए वंशवृद्धि करता रहता है । कोई शत्रु उसकी सत्ता ही समाप्त कर दे, यह बात और है, अन्यथा वह अनन्त काल तक जीवित ही नहीं रहेगा, वरन् वंशवृद्धि करते रहने में भी समर्थ रहेगा । इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं । चूँकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिए वह अनेकों अणु-परमाणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है । इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं, पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की समस्त क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान हैं जैसे समुद्र की एक बूँद में पानी के सब गुण विद्यमान होते हैं ।

उक्त तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि चेतन ही जड़ की उत्पत्ति का मूल कारण है । वैज्ञानिकों के समक्ष तो मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी , नर से नारी या नारी से नर, बीज से वृक्ष या वृक्ष से बीज जैसे प्रश्न, अभी भी अनिर्णीत पड़े हैं । उनका हल न मिलने पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं । ठीक इसी प्रकार जड़ और चेतन में कौन प्रमुख है, इस बात पर जोर न देकर यही मानना उचित है कि दोनों एक ही ब्रह्म सत्ता की दो परिस्थितियाँ मात्र हैं । द्वैत दीखता भर है, वस्तुतः अद्वैत ही सर्वत्र बिखरा पड़ा है । सूक्ष्म यंत्रों से भी न देखी जा सकने वाली परमात्मा चेतना ही संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत, है । वही सब भूतों की प्राणियों की आत्मा है और मनुष्यों की भी । उपनिषद् के इस कथन में ही पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और पूर्वात्य दर्शन में सामंजस्य के सूत्र सन्निहित हैं ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles