तालमेल बिठा कर चलने की रीति-नीति

March 1992

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संसार जैसा भी कुछ है, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और यथार्थता के अनुरूप अपने को ढालना चाहिए। संसार केवल हमारे लिए ही नहीं बना है और उसके समस्त पदार्थों व प्राणियों का हमारी मनमर्जी के अनुरूप बन या, बदल जाना शक्य नहीं हैं। तालमेल बिठाकर समन्वय की गति पर चलने से ही हम संतोषपूर्वक रह सकते हैं और अन्यों को शाँतिपूर्वक रहने दे सकते हैं।

इस दुनिया में रात भी होती है व नित्य दिन भी होता है। परिवार में जन्म का क्रम भी चलता है और मरण का भी। कभी किसी का मरण न हो व हमेशा दिन ही बना रहे ऐसी इच्छा किसी की पूर्ण नहीं हो सकती। रात को रात के ढंग से और दिन को दिन के ढंग से प्रयोग करके हम सुखी रह सकते हैं और दोनों स्थितियों के साथ जुड़े हुए लाभों का आनन्द ले सकते हैं। जीवन की अपनी उपयोगिता है और मरण की भी अपनी। दोनों का संतुलन मिलाकर चला जाय तो हर्ष एवं उद्वेग के उन्मत्त-विक्षिप्त बना देने वाले आवेशों से काफी कुछ बचा जा सकता है।

हर मनुष्य की आकृति भिन्न है। किसी की शक्ल दुनिया में किसी से नहीं मिलती। जुड़वों में भी थोड़ा बहुत अंतर होता है। इसी प्रकार प्रकृति में व्यापक स्तर पर भिन्नता संव्याप्त है। हर मनुष्य का अपने ढंग का व्यक्तित्व है। उसमें यत्किंचित् परिवर्तन की तो संभावना है, पर यह आग्रह कि हम उसे वैसा बनालेंगे जैसा हम चाहते हैं गलत है। इस संसार में तालमेल बिठाकर चलना ही व्यवहारिक व्यवहारिक है। हमारा जीवनक्रम इस कौशल को अपनाकर ही सुख-शान्तिमय हो सकता है।


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