एक ही शक्ति का खेल है, यह सारा

December 1992

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कुछ समय पूर्व तक विज्ञान जगत में आत्मा और ईश्वर की गुत्थी बड़ी उलझाव भरी थी। उसके लिये सबसे बड़ी समस्या यह थी कि स्थूल यंत्रों द्वारा सूक्ष्म तत्व की पुष्टि कैसे की जाय? और बिना पुष्टि के प्रत्यक्षवादी विज्ञान उसे स्वीकार कैसे करे? प्रश्न गंभीर थे, पर पिछले दिनों विज्ञान ने उन्हें जड़ चेतन के समन्वय के रूप में स्वीकार कर लिया है। आत्मा को अर्ध चेतन और जड़ के रूप में मान्यता मिली और इसी अनुपात में परमात्मा को अर्ध ब्रह्म और अर्ध प्रकृति के रूप में स्वीकारा गया।

अध्यात्मवाद को यह स्थिति भी स्वीकार है। चेतना विज्ञान के विशेषज्ञों के अनुसार काम इतने से भी चल सकता है। वे कहते हैं कि अर्धनारी नरेश्वर की प्रतिमाओं में इस मान्यता की स्वीकृति है। वहाँ ब्रह्म और प्रकृति का युग्म ब्रह्मविद्या के तत्वदर्शन ने स्वीकार किया है। ब्रह्मा,विष्णु महेश अपनी अपनी पत्नियों को साथ लेकर ही चलते है। शक्ति के अभाव में परमसत्ता का कोई अस्तित्व नहीं माना जाता। प्रकृति और परमात्मा के समन्वय से ही जीवात्मा की उत्पत्ति हुई है, ऐसे प्रतिदिन ब्रह्मविद्या की अनेक व्याख्याओं में उपलब्ध है।

विज्ञान अपनी भाषा में परब्रह्म को, परमात्मा को ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में स्वीकार करने लगा है और उसका घनिष्ठ संबंध जीव चेतना के साथ जोड़ने में उसे अब विशेष संकोच नहीं रह गया है। यह मान्यता जीव ओर ब्रह्म को अंश और अंशों के रूप में मानने की वेदान्त व्याख्या से बहुत भिन्न नहीं है।

अभी पिछले ही दिनों विज्ञानवेत्ताओं ने एक ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का अस्तित्व स्वीकार किया है। इससे पूर्व पृथ्वी पर चल रही भौतिकी को ही पदार्थ विज्ञान की सीमा माना जाता था पर अब एक ऐसी व्यापक सूक्ष्म सत्ता का अनुभव किया गया है जो अनेक ग्रह नक्षत्रों के बीच तालमेल बिठाती हैं पृथ्वी पर इकोलॉजी का सिद्धान्त प्रकृति की एक विशेष व्यवस्था है। वनस्पति, प्राणी भूमि वर्षा रासायनिक पदार्थ आदि के बीच परस्पर संतुलन काम कर रहा है। और वे सब एक दूसरे के पूरक दूसरे के पूरक बन कर रह रहे है। इतना तो उनकी समझा में आता था पर जड़ समझी जाने वाली प्रकृति की वह अति दूरदर्शितापूर्ण चेतन व्यवस्था उन भौतिक विज्ञानियों के लिये सिर दर्द थी जो पदार्थ के ऊपर किसी ईश्वर जैसी चेतना का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। अब ब्रह्माण्डीय ऊर्जा उससे भी बड़ी बात है। ग्रह पिण्डों के बीच एक दूसरों के साथ आदान प्रदान की सहयोग संतुलन की जो इकोलॉजी से भी अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवस्था दृष्टिगोचर हो रही है उसे क्या कहा जाय?

परामनोविज्ञान की नवीनतम शोधें भी इसी निष्कर्ष पर पहुँची है मनुष्य चेतना ब्रह्माण्ड चेतना की अविच्छिन्न इकाई हैं अस्तु प्राण शरीर में सीमित रहते हुए भी असीम के साथ अपना संबंध बनाये हुये है। व्यष्टि और समष्टि की मूल सत्ता में इतनी सघन एकता है कि एक व्यक्ति समूची ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व कर सकता है।

परमाणु सत्ता की सूक्ष्म प्रकृति का विश्लेषण करते हुये विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि दो इलेक्ट्रानों को पृथक दिशा में खदेड़ दिया जाय तो भी उनके बीच पूर्व संबंध बना रहता है। वे कितनी ही दूर रहें एक दूसरे की स्थिति का परिचय अपने में दर्पण की तरह प्रतिबिंबित कर प्राप्त करते रहते है। एक की स्थिति को देख कर दूसरे के बारे में बहुत कुछ पता मिल सकता है। एक को किसी प्रकार प्रभावित किया जाय, तो उसका साथी भी अनायास ही प्रभावित हो जाता है इस प्रतिदिन पर आइंस्टीनरोजेन पोटोल्स्की जैसे विश्व विख्यात विज्ञानवेत्ताओं की मुहर है। इस सिद्धान्त से एक व्यापक सत्ता और उसके सदस्य रूप में छोटे घटकों की सिद्धि तथा पृथक रहते हुये भी एकता का तारतम्य बने होने की पुष्टि होती है।

विज्ञान की मान्यता के अनुसार पूर्ण को जानने के लिये उसका अंश जानने की और अंश के अस्तित्व को समझने के लिये उसके पूर्ण रूप को समझाने की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना यथार्थता को पूरी

तरह नहीं समझा जा सकता। मूर्धन्य विज्ञानी फ्रिटजाँफ काप्रा ने अंश या अंशों के बीच अविच्छिन्न संबंध होने की बात का अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ताओ ऑफ फिजिक्स में विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। इसी का समर्थन करते हुए ग्राण्ड यूनिफाइड सिद्धान्त के संयुक्त नोबबल पुरस्कार विजेता षेल्डन ग्लेषों ने अपनी पुस्तक वर्ल्ड अराउण्ड अस में कहा है कि परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण सदस्य है। इस सदस्यता को किसी भी प्रकार निरस्त नहीं किया जा सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक होकर ही आदिकाल से रहे हैं और अनन्तकाल तक अपने सघन संबंध यथावत बनाये रहेंगे।

कभी आइंस्टीन ने कहा था कि ब्रह्माण्डीय चेतना का अस्तित्व सिद्ध कर सकने योग्य ठोस आधार विज्ञान के पास मौजूद है। रुडोल्फ स्टीनर ने अपने ग्रन्थ गाँड एण्ड दि यूनिवर्स में आइंस्टीन के प्रतिपादन का और भी अच्छी तरह सिद्ध करने के आधार प्रस्तुत किये है।

जीव विज्ञानी मोर्गन ने ब्रह्माण्डीय चेतना के अस्तित्व और उसके कार्य क्षेत्र पर और भी अधिक प्रकाश डाला है। वे उसे जीवाणुओं में अपने ढंग से और परमाणुओं में अपने ढंग से काम करती हुई बताते है और भारतीय दर्शन की परा और अपना प्रकृति को ब्रह्म पत्नी के रूप में प्रस्तुत करने वाली मान्यता के समीप ही जा पहुंचते हैं इस संदर्भ में उन्होंने विस्तृत प्रकाश अपनी दि किगंडम ऑफ एनिमल एण्ड दि किगंडम ऑफ गॉड पुस्तक में डाला है।

विज्ञान को परमाणु संरचना के बारे में जब से जानकारी मिली है, वैज्ञानिक परमाणु की इलेक्ट्रॉन प्रक्रिया को समर्पण रूप से मात्र यंत्रों के सहारे ही नहीं जाना जा सकता। उसके अस्तित्व का दर्शन ओर निरूपण करने वाला सबसे सशक्त यंत्र है मानवी मस्तिष्क। अन्य उपकरण तो इस संदर्भ में थोड़ी सी सहायता मात्र करके रह जाते है। परमाणु की विवेचना नेत्र का नहीं गणित का विषय है। उसकी हलचलों से उत्पन्न प्रक्रिया के आधार पर गणित करके यह पता लगाया जाता है कि परमाणु और उसके उदर में हलचल कर रहे घटकों का स्वरूप स्तर एवं क्रिया कलाप क्या होना चाहिये। वानी लुडबिग ने इसे और भी स्पष्ट करते हुये अपनी पुस्तक “क्वाटंम मिकैनिज्म “ में कहा है कि क्वाँटम शास्त्र यंत्रों पर नहीं वैज्ञानिकों की मानसिक चेतना पर अवलम्बित है।

क्वाँटम थ्योरी के उक्त सिद्धान्त ने यह सिद्ध कर दिया है कि जड़ और चेतन की सत्ता एक दूसरे से भिन्न स्तर की दीखते हुये भी वस्तुतः उनके बीच सघन तादात्म्य मौजूद है। पदार्थ एक स्थिति में ठोस रहता है। फिर द्रव बन जाता है तत्पश्चात गैस और तापक्रम जब और उच्च हो जाता है तो वह अपनी चतुर्थ अवस्था “प्लाज्मा” में पहुँच जाता है।तापमान जब और उच्चतम होता है, तो पदार्थ सर्वथा अपदार्थ स्थिति में परिवर्तित हो जाता है।विज्ञान इसे ऊर्जा करी कर पुकारता है। अध्यात्म में इसे चेतना नाम दिया गया है। इस प्रकार जड़ चेतन में और चेतन जड़ में परिणत हो सकता है। मन की सत्ता शरीर रूप में, परार्थ रूप में प्रकट हो सकती और एक स्थिति में पहुँच कर पदार्थ भी बन सकती है।

विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक राजयोग में लिखा है कि इस संसार में जितने प्राणी पदार्थ है सब सृष्टि के आरंभ में आकाश तत्व से उत्पन्न होते है। और अन्त में पुनः उसी में विलीन हो जाते है।

इसी प्रकार यहाँ जितनी भी भौतिक,अभौतिक शक्तियां काम कर रही है, सभी प्राण के रूपांतरण है उन्हीं की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है। सृष्टि के अन्त में यह सभी शक्तियां पुनः अपने मूल रूप प्राण में परिवर्तित हो जाती है। विज्ञान की ग्राण्ड यूनिफाइड थ्योरी इसी तथ्य की पुष्टि करती है और कहती है कि सृष्टि संरचना से पूर्व सभी शक्तियां एकरूप थी।

स्पष्ट है हर जड़ चेतन में भिन्न-भिन्न रूपों में एक ही शक्ति क्रीड़ा कल्लोल कर रही है। जब वह पिंड और प्राणियों में विभिन्न क्रियाओं के रूप में कार्य करती दिखाई पड़ती है, तो आत्म चेतना के नाम से जानी जाती है। वस्तुतः वह दोनों है एक ही। उन्हें न तो पृथक माना जा सकता है न क्रिया। यह बात धीरे-धीरे विज्ञान की समझ में अब आने लगी है।


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