गुत्थियों को सुलझाने में सहज समर्थ (Kahani)

December 1992

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मकड़ी का जाला मकड़ी ने जाला ताना वह उसमें फंस गई निकलने की कोशिश करने लगीं पर असफल रही। छटपटाने लगी।

थोड़ी देर में उसकी समझ लौटी। सोचने लगी इसे मैंने ही तो ताना है उसे जिस मुँह से उगला है उसी से निगल भी तो सकती हूँ। उसने ऐसा ही किया। चाल बदल दी। धागा उगलने की बजाया उसे दूसरे सिरे से निगलने लगी। सारा जाला पेट में चला गया बाँधने वाले बंधन समाप्त हो गये।

मकड़ी स्वच्छंद विचरने लगी।

मनुष्य अपने लिये उलझाने स्वयं ही विनिर्मित करते है। यदि वे अपनी चाल उलट दे तो सारी गुत्थियों को सुलझाने में सहज समर्थ हो सकते है।


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