विशेष लेख माला-(1) - वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के जन्मदाता:- परमपूज्य गुरुदेव

December 1992

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परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के बहुमुखी व्यक्तित्व के अनेकानेक पक्ष ऐसे हैं, जिन पर विस्तार से यदि प्रकाश डाल पाना संभव हो तो एक-एक पक्ष पर विशाल ग्रंथ विनिर्मित हो सकता है। समय समय पर उनके लीला प्रसंगों से लेकर तीर्थ चेतना के उन्नायक व संस्कृति पुरुष आदि रूपों की झलक हम पाठकों को देते आए हैं। एक वैज्ञानिक के रूप में, ऋषि-चिन्तक-मनीषी के रूप में उनका परिचय बहुत कम करी जानकारी में है। सही अर्थों में बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” का स्वरूप लिए जो “अखंड-ज्योति” पत्रिका विगत कई वर्षों से निकलती रही है व जिसका व्यवहारिक रूप ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की शोध-अनुसंधान प्रक्रिया के रूप में परिलक्षित होता है, वह इस महान ऋषि-वैज्ञानिक का मौलिक चिन्तन है। प्रस्तुत अंक में हम परमपूज्य गुरुदेव के बहु-आयामी व्यक्तित्व पर एक धारावाहिक लेखमाला आरंभ कर रहें हैं। इसका प्रथम पुष्प”वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” के जन्मदाता के रूप में इस संबंध में पूज्यवर के विषय में दार्शनिक सोच पर प्रस्तुत है। इसी पक्ष के व्यावहारिक पहलू व शोध संस्थान के जन्म लेकर विगत चौदह वर्षों की प्रगति यात्रा से जुड़े अन्तरंग संस्मरणों को अगले अंक में प्रस्तुत किया जाएगा। विगत दिनों अमेरिका, कनाडा व यू. के. की शाँतिकुँज दल की प्रवास यात्रा पर इन प्रतिपादनों के प्रस्तुतीकरण पर जो उन्हें सफलता मिली, उसकी भी झलक आगे पाठक पढ़ सकेंगे। क्रमशः इसी प्रकार पूज्यवर के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर यह धारावाहिक लेखमाला प्रकाशित होती रहेगी।

गायत्री का निवास बुद्धि में माना जाता है। वह स्वयं को विचारों के रूप में प्रकट करती है। मानव जाति समय-समय पर इसकी अनेकों रूपों में प्रत्यक्ष करती आयी है। समय-परिस्थितियों-परिवेश के अनुसार इसकी इसकी अभिव्यक्तियों के ढंग भले अनेक हों, पर वह अपने मूल तत्व में एक है। योगेश्वर कृष्ण की वाणी “बुद्धे परतस्तु सः” बुद्धि के परे वह है जो स्वयं की झलक बुद्धि के माध्यम से दिखायी है। जिसकी झाँकी मन की संकल्पनाओं में उभरती है। जो स्वयं को शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों के रूप में दर्शाती है। जिसका मूर्त रूप कर्म है-जिसका विस्तार जीवन।

जीवन और विचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते। मनोवैज्ञानिक एस. टाक्स के ग्रंथ “माइन्ड कल्चर एण्ड सोसाइटी” के अनुसार सामान्य व्यक्ति ही नहीं पागल तक इस नियम से बंधे हैं। लोक मान्यता भले यह समझे कि पागल की हरकतें सर्वथा अयाचित-अप्रत्याशित अथवा स्वयमेव घटती हैं-भ्रम मात्र है। मनोवैज्ञानिक उपलब्धियों का ढेर लगा देने वाले वर्तमान में- यह तथ्य सुस्पष्ट है कि पागल की हरकतें भी किन्हीं विचारों का परिणाम हैं। भले विचार अचेतन मन के संस्कारों से उपजे हों। मन के ऊपरी हिस्से के निठल्ले- निकम्मे पड़े रहने के कारण सीधे कर्म का बाना पहन लिये हों पर हैं-विचार ही। आज के नहीं तो कभी किसी समय की बटोरी-समेटी गई थाती।

विचार और जीवन की ऐसी सघनता और एकात्मता के कारण ही इतिहास वेत्ता अर्नाल्ड टायनबी मानव जाति के इतिहास को उसके विचारों का इतिहास कहता है। उसके अनुसार तथ्यों को समझने के लिए घटना-क्रमों के पर्यवेक्षण की कम-उसके पीछे क्रियाशील मन के सर्वेक्षण की कहीं अधिक जरूरत है। मानव ने अपने अस्तित्व के उदय से लेकर अब तक जो भी उतार चढ़ाव देखे हैं- जो भी उसकी जीवन यात्रा में घटा है-उसका यदि ग्राफ बनाया जाय तो स्थिति उसके विचारों के अनुरूप होगी। बाहरी जाय तो स्थिति उसके विचारों के अनुरूप होगी। बाहरी घटना-क्रमों को यदि फोटो की उपमा दें तो विचारों को निगेटिव कहे बिना न रहेंगे।

इस तथ्य को गहरे समझकर ही आधुनिक समय में ज्ञान की नयी शाखा “साइको हिस्ट्री” ने जन्म पाया है। इस विधा के विद्वान जे.लुडविग “साइकोलॉजिकल मीनिंग आँव हिस्ट्री” में कहते हैं कि विगत की उपलब्धियाँ-अनुपलब्धियां, गति -अवगति, विकास-विनाश के घटनाचक्रों ने कुछ सशक्त विचारों वाले व्यक्तियों की मनोभूमि में ही जन्म पाया है। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में “यदि नैपोलियन, चर्चिल, विस्मार्क, वेलिंगटन जैसे व्यक्तियों के नामों को निकाल दे तो यूरोप की कथा रसहीन हो जायगी। यही बात भारत के बारे में भी है। कृष्ण, चाणक्य, बुद्ध, गाँधी आदि के विचारों की आड़ी-तिरछी लकीरों ने ही यहाँ के इतिहास का चित्र बनाया है।” सशक्त मनोभूमि से विकसित विचार श्रृंखला अपने समानधर्मी अनेकों को उसमें जकड़ लेती है। विचारों की पतली धारा अपने समान गुण वाले अनेक जलकणों से मिलकर स्वयं को प्रबल वेगवती नदी, नद में बदलती महासागर का रूप ले लेती है। घटनाएँ परिस्थितियाँ परिवेश इसका अनुगमन करते हैं।

आज विचारों की समग्रता नष्ट प्रायः है। “धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक” नामक पुस्तक में परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं-”मनुष्य के खण्ड-खण्ड का चिन्तन विश्लेषण चल रहा है। उसके अस्तित्व के एक भाग को समग्र शास्त्र का रूप दे दिया गया है। ...................... ये सब हैं तो उपयोगी पर समग्र मानव को समझे बिना उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति पर ध्यान दिये बिना एकाँगी आंशिक समाधानों से कुछ बनेगा नहीं। एक छेद सीते-सीते दूसरे और नए फट पड़े तो उस मरम्मत से कब तक काम चलेगा?”......................उस महाविद्या की ओर से क्यों उदासी है? जिसे समग्र मानव का विज्ञान कहा जा सके।” बड़ा गहरा प्रश्न है-युग द्रष्टा का। इसमें युगों की तत्वालोचना समायी है। तीनों काल खण्ड एक होकर अपनी समस्याओं के बारे में मुखर हैं।

पिछले दो सौ वर्षों में इतने अधिक शास्त्र-ज्ञान विज्ञान की धाराएँ ढूँढ़ निकाली गई हैं-जितनी पहले कभी न थीं। इस सबके बाद भी उदासी के बादल छँटे नहीं घहराते ही गए, कारण उपर्युक्त सवाल के समाधान में बरती गई उदासीनता है। ज्ञान के खोजियों, जीवन के सीमाँसकों और अन्वेषित प्रणालियों का पर्यावलोचन करें तो पाएंगे- इनके मुख्यतः तीन वर्ग हैं। एक जिनने जीवन का बाह्य परिवेश देखा-केन्द्र से दूर रहकर परिधि की ओर उन्मुख रहे। बस फिर क्या- इस निष्कर्ष को केन्द्र बनाकर रच डाले्र नए नए शास्त्र। क्रियाशीलता क्यों? सक्रियता किसलिए? इनका जवाब पाने की कोई जरूरत नहीं समझी गई। उलटे कह दिया गया-यह तो दिवा स्वप्नदर्शियों का काम है। इस परम्परा ने व्यक्ति को आत्म-गरिमा से हीन भारवाहक श्रमिक बना दिया। आज जिसे विज्ञान कहते हैं-वह इसी परम्परा का अनुयायी है। इसकी उपलब्धियों पर हम कितना ही गर्व क्यों न यकर लें पर “इंट्रोडक्षन आँव फिलोसॉफी” के लेखक जी0टी0डब्लू पेट्रिक के शब्दों में “विज्ञान मूल्यों, जीवन तथा मानवीय आचरण जैसे अनिवार्य प्रश्नों के समाधान की चेष्टा नहीं कातस जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है.............। भौतिक क्षेत्र से परे जो कुछ है, यह उसके बारे में अनिश्चित है। चट्टानों की आकृति, तारों की दूरी, हड्डियों अथवा पेशियों के विषय में अधिकांश लोगों को कम रुचि है-जो सम्भवतः वैज्ञानिक कौतूहल मात्र है। किन्तु मानवीय, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक विषयों को जाने बिना हमारा काम नहीं चलता।

पूज्य गुरुदेव के शब्दों में कहें तो “इन बातों की उपेक्षा करके चिन्तन और भावना से हीन विज्ञान की प्रक्रिया और उपलब्धियों ने मनुष्यता को बारूद के ढेर में बिठा दिया है। उन्मादी अट्टहासों के बीच वह स्वयं के अस्तित्व में आग लगाने पर उतारू है। कारण उसने सोचने की जरूरत नहीं समझी-उपलब्धियाँ किसलिए?”

इसके विपरीत जिन्होंने सोचा उन्होंने क्रिया की निःसारता मान ली। मनोसंकल्पनाओं से घिरे रहने के कारण वस्तु जगत को झुठलाने के प्रयास में ही अपने कर्तव्य और पुरुषार्थ की इतिश्री समझ ली। मन का संकल्प वस्तुओं का सृजन करता है। इस दावे के बाद फिर क्या जरूरत कि वस्तु जगत पर ध्यान दिया जाय। अर्ध सत्य विचार को पूर्ण सत्य मान लेने के कारण मनुष्यता फिर एक कठघरे में फँस कर रह गयी। ठीक वैसा ही कठघरा जैसा क्रियाशीलता को सब कुछ समझने वालों का है। बेकन की भाषा में”स्वयं को दार्शनिक समझने वाला जीव अपने ही बुने तन्तु जाल में फँसता-उलझता फँसाता-उलझाता रहता है। क्योंकि उसने मान रखा है-दर्शन सोचने की पद्धति है करने की नहीं। भावना और क्रिया से विलग रहकर वह स्वयं को मानवता का कितना ही हित साधक कहे। पर उसने स्वयं। का भी कितना हित साधन किया है- इस पर भी समय ने अमिट प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।”

इस प्रश्न का हल ढूँढ़ने वालों ने मानवी अस्तित्व के एक नए केन्द्र का स्पर्श किया। उसी को सब कुछ मान जीवन की प्रश्नावली के नए समाधान खोजने शुरू किए। उनका कार्य स्तुत्य होते हुए भी समग्रता के अभाव में मनुष्य का कुछ अधिक हित नहीं कर सका। भावनाएँ उत्तम हैं, पर क्रिया का अभाव इन्हें पंगु बना देता है। चिन्तन न होने पर ये कोरी भावुकता होकर रह जाती हैं। इनकी श्रेष्ठता हम कितनी ही तरह से क्यों न सिद्ध करें- किन्तु यदि एक मात्र भावना ही सत्य है- तो मनुष्य के बौद्धिक विकास उसके शरीर धर्म का क्या अर्थ रहा? सर्वथा अनुत्तरित प्रश्न है। बौद्धिक विवेचना से पल्ला छुड़ा बैठने के कारण ही इस पथ के अनुयायी रहस्यवादी कहलाए। इस उपाधि धारण करने का एक मात्र कारण-वह अयोग्यता कही जाएगी, जिसके कारण ये अपने अनुभवों को बुद्धि की भाषा में नहीं कह पाए।

क्रिया, चिन्तन और संवेदना-जीवन के तीन पक्ष अपने एकाकीपन में मनुष्य जाति को जीवन का अर्थ नहीं दे सकते। वह कला नहीं सिखा सकते जिससे अनगढ़ता-भद्दापन मिट सके। इस कला का अभाव ही है-जिसके कारण समृद्धियों के ढेर में दबा-बौद्धिक भार से लदा मनुष्य करुण विलाप कर रहा है।

परमपूज्य गुरुदेव का सारा कर्तृत्व उस विचार सृष्टि के रूप में है जो आज के मनुष्य को सोचने का ढंग सिखाती है। उसके जीवन की गुत्थियों को सुलझाकर जीने की कला सिखाती है। उन्होंने अपनाने कर्तृत्व के रूप उस अनूठी चिन्तन शैली का विकास किया है- जो उनके निजी व्यक्तित्व के कारखाने में बनी-ढली और सँवारी गई है। वर्तमान के मनुष्य की मार्ग-दर्शक और भविष्य के मानव के लिए विरासत के रूप में सौंपी गई इस चिन्तन पद्धति को ही उन्होंने “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” का नाम दिया है।

“वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” वादों के ढेर में एक नए प्रकार की सर्जना नहीं, बल्कि ऐसा कुछ है जहाँ सभी वाद समा जाते हैं। जहाँ सबको उसका निश्चित स्थान मिल जाता है। “समुद्र मायः प्रतिषन्ति यद्वत्-समुद्र नदी नहीं है, परन्तु सभी नदियाँ समुद्र में अपना स्थान ग्रहण करती हैं।” इसी भाँति इस चिन्तन प्रणाली से जीवन के सभी अंग-उपाँग अपने चरम विकास की कला सीखते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव के शब्दों में- “यह उलटे को उलटकर सीधा करने की विधि है। जहाँ अभी तक हम अखण्ड को खण्ड-खण्ड करने की कल्पना करने की पीड़ा भोगते रहे। वहीं यह तत्वदर्शन सिखाता है- खण्ड-खण्ड अविभाज्यता कैसे पायें?” इस चिन्तन पद्धति के आविष्कर्ता भले वह हैं, किन्तु इसकी तीव्र आवश्यकता पिछले कुछ समय से सभी मनीषी अनुभव कर रहे थे। “साइन्स एण्ड फर्स्ट प्रिंसिपल्स” के रचनाकार वैज्ञानिक एफ0एस0सी0नार्थ्राय की भाषा में- यही कारण है कि एडिनल आइन्सटाइन तथ व्हास्टहेड जैसे भौतिक शास्त्री ट्रीष, हाल्डेन जैसे शरीर-क्रियाविद् ब्रोबर, हिलवर्ट जैसे गणितज्ञों का भ्री इस ओर उन्मुख होना-यह बताता है-जगत में एक नवीन स्फूर्ति तथा स्वभाव का वातावरण बन रहा है।

धर्म-दर्शन और विज्ञान-मानवीय अस्तित्व से उपजी-तीन प्रबल विचार शक्तियाँ हैं। किन्तु इनका अलगाव-आपसी टकराव मानव जीवन में वरदानों की सृष्टि न कर सका। जब संवेदना-चिन्तन और कर्म ही आपस में टकराते रहेंगे-तब परिणाम संहार के सिवा और क्या होगा? उज्ज्वल भविष्य की संसिद्धि का सिर्फ एक उपाय है-इनका सामंजस्य। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के रूप में यही है। इस नए तत्व दर्शन के अनुसार क्रिया और चिन्तन दोनों जहाँ मिल सकते हैं वह स्थान संवेदना है। जाने-अनजाने ये दोनों यहीं अपना जन्म पाते हैं। इस मिलन बिंदु को अपने मूल स्रोत के रूप में पहचानना-स्वीकारना ही वह उपाय है-जिससे मनुष्य अब तक के अपने विकास को बरकरार रख सम्भावनाओं के नए द्वार खोल सकता है।

यह उन्मुक्त द्वार संकीर्ण विचारों की कोठरियों में हैरान-परेशान मनुष्य को खुले आकाश, प्राणवर्धक वायु के बीच ले जाएगा। संवेदना से उपजी क्रिया-भारभूत श्रम नहीं- जीवन साधना बनेगी। संवेदना से उपजा चिन्तन उसका मार्ग दर्शक बनेगा। चिन्तन की यह नयी प्रणाली मानव की नियति है। इसे स्वीकारे बिना अन्य कोई उपाय नहीं। किन्तु किसी को यह नहीं सोचना चाहिए विज्ञान कैसे जीवित रहेगा? “परिवर्तन के महान क्षण” पुस्तक में निहित अस्तित्व भेदी अपने विचारों में परमपूज्य गुरुदेव स्पष्ट करते हैं- “विज्ञान जीवित रहेगा, पर उसका नाम भौतिक विज्ञान न रहकर अध्यात्म विज्ञान रहेगा। उस आधार को अपनाते ही वे सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी, जो इन दिनों भयावह दीख पड़ती हैं। उन आवश्यकताओं को प्रकृति ही पूरा करने लगेगी, जिनके अभाव में मनुष्य अतिशय उद्विग्न, आशंकित, आतंकित दीख पड़ता है।”

यह विचार प्रणाली हम सब के मन स्वीकार कर सकें, हमारे निम्नगामी मन उर्ध्वनत हो सकें, इसी के सफल प्रयास के विचारों की अधिदेवी के उपासक-उसके अवतरणकर्ता परमपूज्य गुरुदेव पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य- इस अवतरण दिवस (गायत्री जयंती 1990) को ही- पंच भौतिक आवरण को छोड़ कर- विचारमय - संवेदनामय हो गए थे। पिछले पूरे अढ़ाई वर्षों का लेखा-जोखा हमें देना है, कि हम उनकी चिन्तन प्रणाली को- उनकी भावमय संवेदना को किस हद तक स्वीकार कर सके? इस प्रश्न का उत्तर जिस भाषा में देना है - वह क्रिया है। ऐसी क्रिया जो संवेदनाओं से उपजी है, युग ऋषि का चिन्तन जिसका मार्गदर्शक हो।


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