अपनों से अपनी बात - देवसंस्कृति दिग्विजय को चल पड़ी चतुरंगिणी

December 1992

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जिस समय समाज में चारों ओर आपाधापी, अनैतिकताओं, दुष्प्रवृत्तियों, राग विद्वेष-विग्रह का बोलबाला हो, उस समय मूर्धन्य-प्रतिभावानों का क्या दायित्व होना चाहिए, यह प्रश्न ऐसा जटिल नहीं है कि इसके लिए वार्त्ता समितियाँ बनाकर वक्तृताएं दी जायँ, महीनों मात्र मात्र परस्पर चर्चा में बिता दिए जायँ। आस्था संकट जब रोजमर्रा के जीवन को इस कदर प्रभावित कर रहा हो कि व्यक्ति का घर से बाहर निकलना तक दुश्वार हो रहा हो, रोज भूखे सोने वालों की संख्या बढ़ती चली जा रही हो तथा बेरोजगारी, दुर्व्यसनी व्यक्ति समाज में ठलुआगिरी करते चक्रवृद्धि ब्याज की दर से अभिवृद्धि करते जा रहे हों, तब भाषणों-लेखों, सेमिनारों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। एपेण्डीक्स में सूजन आ जाने से पेट में भयंकर पीड़ा हो रहीं हो, बुखार व उल्टी से उसके विषाक्त हो पेट में ही फटने के अवसर बढ़ते दीख पड़ते हों तो एक ही तरीका शेष बचता है कि तुरंत रोगी को आपरेशन थियेटर में ले जाकर उस अंग को बाहर निकाल दिया जाय।

आज राष्ट्र में जो परिस्थितियाँ बन रहीं हैं, वे प्रायः उसी स्तर का उपचार माँगती हैं, जोः”एक्यूट एब्डाँमन” के उक्त रोगी के लिए अनिवार्य हो जाता है। विग्रह-विद्वेष, मार-काट, सामूहिक बलात्कार, दहेज-उत्पीड़न, नशे-दुर्व्यसन, कुदृष्टि-कामुकता से पनपी विषाक्तता धर्मतंत्र से उसी उपचार की माँग करती है, जो आपातकाल में दिया जाता है। आज कुछ ऐसा ही समय है। समाज को मूर्धन्यों प्रतिभावानों की जितनी अधिक आवश्यकता अग्रगामी होने की इस समय पड़ रहीं है, उतनी पहले संभवतः कभी नहीं रही। मनुष्य तो हमेशा ही दुःख कष्टों में भगवान को याद करता रहता है किंतु ऐसे समय विरे ही आते हैं, जब भगवान मनुष्य को याद करता है। उच्चस्तरीय उमंगें, आदर्शवादी साहस उभारने के माध्यम से महाकाल यह प्रेरणा देता है कि यह विशिष्ट समय हाथ पर हाथ धरे बैठने का नहीं है। इस समय विशेष में कुछ पराक्रम ऐसा कर गुजरना ही होगा जो मानव को आसन्न विभीषिकाओं के घटाटोप से उबार सके।

प्रस्तुत पंक्तियाँ विशेष रूप से विश्वव्यापी गायत्री परिवार द्वारा पिछले दिनों आरंभ किये गये देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रहीं हैं। इसी के अंतर्गत भारत व विश्व में चौबीस अश्वमेध यज्ञों को अगले तीन वर्षों में प्रथम महापूर्णाहुति के पूर्व संपन्न करने की योजना अदृश्य संचालन सत्ता के निर्देशों पर बनी है। जयपुर, नागपुर, भिलाई गुना, बड़ौदा वह लखनऊ की प्रारंभिक गोष्ठियों के निष्कर्ष यह बताते है कि जनमानस परिवर्तन के लिए किस उत्साह से संघबद्ध होता चला जा रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जयपुर का अश्वमेध महायज्ञ प्रारंभिक सभी तैयारियाँ पूरी हो, एक भव्य आयोजन संपन्न होने के रूप में सामने आ रहा है। प्रायः तीन से चार लाख व्यक्तियों की इसमें भागीदारी की संभावना है। शाँतिकुँज के सौ से अधिक कार्यकर्ता, राजस्थान व अन्य प्रान्तों के पाँच हजार से अधिक कर्मठ परिजन विगत पंद्रह दिनों से सघन स्तर पर तैयारियों में जुटे हैं। समाज के नवनिर्माण को संकल्पित संस्कृति-पुरुष परम पूज्य गुरुदेव द्वारा दिये गए मर्मस्पर्शी सूत्रों की व्याख्या समझने के बाद अब मिशन से अपरिचित व्यक्ति भी अपनी किसी न किसी रूप में भागीदारी सुनिश्चित करना चाह रहा है।

जिस देश में राष्ट्रदेवता की उपासना होती रही हो, सभी मनीषी-प्रतिभाशाली मिल−जुलकर जिसको अखण्ड-समर्थ-सशक्त बनाने का नियमित अनुष्ठान करते रहते हों, उसके निवासी शतपथ ब्राह्मण के “श्री वै राष्ट्रः।” “राष्ट्रं वै अष्वमेधः।” “तस्मात् राष्ट्री अष्वमेधेन यजेत्” की वर्चस्व जागरण की भावना के अनुरूप यदि अश्वमेध करने का संकल्प ले चुके हैं तो यह मान लेना चाहिए कि सतयुग की वापसी की प्रक्रिया का क्रियान्वयन अदृश्य जगत के

बाजीगर द्वारा आरंभ कर दिया गया। अश्वमेध यज्ञ का सबसे बड़ा फलितार्थ है- प्रसुप्त पड़ी प्रतिभा का जागरण। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रतिभाएँ ही युगों को बदलती व जनमानस का काया कल्प करती हैं। जब प्रतिभाएँ सो जाती हैं तो देश-समाज-संस्कृति का पतन पराभव आरंभ हो जाता है। जब वे जाग उठती हैं तो प्रवाह को उलट कर घनघोर तमिस्रा में से भी अरुणोदय का सा प्रकाश उदित कर दिखाती हैं। अश्वमेध यज्ञों, जो गायत्री परिवार-प्रज्ञा अभियान-युग निर्माण योजना द्वारा विश्व भर में संपन्न किए जा रहे हैं, के मूल में एक ही तथ्य है देव संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाना। विश्व राष्ट्र की कल्पना को साकार रूप देना। प्रस्तुत धर्मानुष्ठान व उनके मूल में छिपे तत्वज्ञान से, इस प्रक्रिया की विज्ञान सम्मत विवेचन ही नहीं, प्रस्तुतीकरण से निश्चित ही वह आधार भूमि तैयार होगी जिस पर इक्कीसवीं सदी रूपी भवन की स्थापना संभव हो सकेगी।


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