समझदारी विकसे, संवेदना पनपे

December 1992

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अपने अन्दर विद्यमान प्रकाश के अनुसार जीवन बिताने से इनकार करना वास्तविक पाप है। अपने आस-पास के जन-समुदाय के विचारों के अनुकूल जीवन बिताने को अस्वीकार करना रूढ़ पाप है। हम रूढ़ से डरते हैं, इसलिए वास्तविक पाप करते हैं। मनुष्य का कर्तव्य यह है कि वह अपने अन्दर विद्यमान प्रकाश को प्रमाण माने और यदि आवश्यक हो तो रूढ़ियों का विरोध करे।

मनुष्य स्वाभाविक तौर पर एक नैतिक प्राणी है। वह चाहता है कि नैतिक कार्य ही करे। युद्ध और क्रूरता जैसे कार्य भी वह तब तक नहीं करना चाहता जब तक उसे किसी प्रकार नैतिक आधारों पर उचित न ठहरा ले। उसके लिए भी वह स्तुत्य उद्देश्यों की बातें करता है जैसे संसार को प्रजातन्त्र के लिए सुरक्षित बनाना, घर-बार और आश्रितों की रक्षा, सन्धि सद्भावनाओं को अविकल बनाए रखना, इत्यादि ऐसे कार्यों को कराने के लिए उत्तरदायी मन में जो भय-अभिमान, धन की लालसा और सत्ता की इच्छा होती है, उन्हें छिपाया जाता है। कारण यही है कि अनैतिक कहलाना मनुष्य को पसन्द नहीं।

प्रारम्भ से ही इन्सान के ज्यादातर कष्टों का कारण उसकी दुष्टता उतनी नहीं रही-जितनी कि मूर्खता। यूरोप में कथित जादूगरनियों को भयंकर यन्त्रणा इसलिए दी जाती थी, क्योंकि समझदारों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे उन्हें शैतान के चंगुल से बचाएँ। ईसाईयत में विश्वास न करने वालों को इसलिए जिन्दा जला दिया जाता था, क्योंकि उन्हें अनन्त काल तक नर्क की यातना से बचाने का यही एक मात्र उपाय समझा जाता था। हम बहुत बड़े पैमाने पर हत्या आयोजन करने वाले लोगों का अनुगमन इसलिए करते है, क्योंकि हमें समझा दिया जाता है न्याय और स्वतन्त्रता की रक्षा का एक मात्र उपाय यही है। हमारी घोरतम क्रूरताएँ भी दयालुता के भ्रम के कारण होती हैं।

इसलिए मानवीय स्तर पर शान्ति सद्भाव किसी एक व्यक्ति या संघ के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। उसके लिए तो मानव जाति को नैतिक जड़ता पर विजय पानी होगी। जन समूह को अत्याचार का विरोध करने की सामर्थ्य सरलता से प्राप्त नहीं होती। उसके लिए विचार को दृढ़ विश्वास में बदलना होगा और उसके अनुसार जीवन यापन करने का साहस प्राप्त करना होगा। दूसरे शब्दों में केवल बुद्धि को ही नहीं बल्कि हमारी सम्पूर्ण चेतना को उस कार्य में खपना चाहिए।

यदि हम विश्व में शान्ति सद्भाव की स्थापना करना चाहते हैं तो सिर्फ बुद्धि से सोचना काफी न होगा। हो सकता है कि विग्रह, विद्वेष, विलासिता, अनीति को हमारी बुद्धि घृणा-जनक और मानवता से असंगत समझती हो। पर इतना कहाँ पर्याप्त है? आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सम्पूर्ण प्रकृति उसे त्याज्य समझे और वह भी इस स्तर तक कि अत्याचार अनीति के सहयोगी बनने की अपेक्षा कष्ट और अकेलापन सहने को उद्यत रहे। इसका अर्थ केवल अपने दृष्टिकोण को बदलना नहीं अपितु अपने मनोबलों का पुनर्गठन है। हमें संसार के सम्बन्ध में मानचित्रों-भवनों बाजारों की दृष्टि से नहीं, बल्कि नर-नारियों के संवेदनशील जीवन्त समूह की दृष्टि से सोचना शुरू करना होगा। भले ही हम अन्य व्यक्तियों की भावनाओं को अंगीकार करने को तैयार न भी हों, तो भी हमें अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण समझने, वस्तुओं, तथ्यों को दूसरे व्यक्ति की दृष्टि से देखने की कल्पना के श्रम से बचना नहीं चाहिए।

गाल्सवर्दी के एक नाटक में एक पात्र कहता है यदि मुझे केवल एक ही प्रार्थना करनी हो तो वह होगी “है प्रभु मुझे समझने की शक्ति प्रदान करो।” गायत्री मंत्र के “धियो यो नः प्रचोदयात्”- पद में यही भाव अन्तर्निहित है।

अन्य व्यक्तियों और जातियों को भी, भले ही वे कितने ही पिछड़े हुए क्यों न हों, समान रूप से पनपने का अधिकार है, शाश्वतता में उनका भी अधिकार है। वे आगे की ओर यात्रा में हमारे साथी तीर्थ यात्री हैं। हममें से प्रत्येक मानवता के स्वास्थ्य और सुख का न्यासघर (ट्रस्टी) है। इस न्यास के महत्व के सम्बन्ध में जितना कहा जाय, कम है और यह न्यास हमारे ऊपर जिम्मेदारी डाल देता है कि हम अन्य लोगों की दुर्बलताओं को सहन करें, कठिनाइयों पर विजय पाने और संसार में शाँति स्थापना करने में एक दूसरे की सहायता करें। इक्कीसवीं सदी समझदारी का यही संदेश सुनाती आ रही है।


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