पृथ्वी पाँव जलाती थी, सूरज सिर झुलसाए दे रहा था। न पेट भर अन्न, और न रात काटने के लिये बिछावन। झरना मिला उसी का जल पी लिया और कहीं से कन्द मूल,फल-फूल मिल गये तो उन्हीं से पेट की ज्वाला शांत कर ली। रात एक गोल पत्थर पर सिर टिकाकर किसी वृक्ष की छाँव में बिता ली। ऐसा करते करते सात दिन बीत गये। स्नातक धन्वंतरि गुरुकुल की सीमा छोड़कर हिमालय की मध्यवर्ती उपत्यिकाओं तक जा पहुँचे, किंतु कोई ऐसी जड़ी बूटी न मिली जो अपनी पीठ पर हुये व्रण की उपयुक्त औषधि हो सकती।
धन्वंतरि का शरीर थक कर आधा हो गया था। पर वाह री लगन!धन्य रे ऐसा तप कि एक ऐसी जड़ी-बूटी की खोज जो किसी भी फोड़े से पीड़ित का अचूक उपचार सिद्ध हो सके,धन्वंतरि को उसके पीछे ही लगाये रखा।
व्ो भिशगाचार्य के अन्तिम वर्ष में शोध कर रहे थे। औषधि शास्त्र का उन्होंने ऐसा अध्ययन किया था कि स्वयं कुलाधिपति भी कई बार उनसे आवश्यक जानकारियाँ उपलब्ध किया करते थे। आयुर्वेद का ऐसा गहन अध्ययन इतिहास में शायद ही कोई और कर सका हो। एक एक ऋचा पर उन्होंने कितना कितना श्रम किया यह तो वह स्वयं जानते थे। पर आयुर्वेद का निष्णात् धन्वंतरि आज कई दिन से भ्रमण कर रहा है एक एक जड़ी एक एक बूटी का प्रयोग कर डाला है उन्होंने। पर एक भी तो ऐसी पत्ती नहीं निकली जो उनकी पीठ पर हो गये फोड़े के घाव को ठीक कर देती।
रात- दिन की लगातार खोज के उपरान्त भी सफलता हाथ न लगने पर निराशा स्वाभाविक थी। युद्ध में पराजित सैनिक की भाँति हारे थके धन्वंतरि पुनः गुरुकुल की ओर लौट पड़े। वहाँ तक पहुँचते पहुँचते भी हजारों बूटियों का प्रयोग करके देख लिया। किन्तु परिणाम असफलता। उनको न तो कोई बूटी मिली और न ही फोड़ा अच्छा हुआ। किसी को भी उनकी मुखाकृति पर चिन्ता निराशा की काली रेखाएं देखकर सहज करुणा आ जाती। पर उनकी खोज की जिज्ञासा शांत न हुई।
सूखा मुख रूखे मुरझाए बाल शिष्य की ऐसी विपन्न मुद्रा देखते ही गुरु की आँखें छलछला आयी। उन्होंने स्पष्ट ताड़ लिया कि धन्वंतरि को कोई उपयुक्त का औषधि नहीं मिल पायी।
तात! बड़ा कष्ट पाया तुमने! कहते हुये आचार्य प्रवर ने बड़ी करुणा बड़े ममत्व के साथ उनका उत्तरीय वस्त्र हटा कर देखा घाव घटा नहीं था कुछ बढ़ ही गया था। उत्तरीय वस्त्र को वैसे ही छोड़ कर आचार्य श्रेष्ठ ने कहा वत्स! आओ मेरे साथ चलो। तुम्हारा उपचार तो मेरे पास है। यह कहकर वे आश्रम से दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।
थोड़ी ही दूर पर एक औषधि का पौधा लगा था। गुरु ने उसे तोड़ा एक पत्थर पर रखकर पीसा और उसका लेप उनकी पीठ पर लगाते हुये कहा- वत्स चलो अब तुम्हारा घाव दो दिन में अच्छा हो जायेगा।
निराश और दुःखी धन्वंतरि ने लम्बी निःश्वास छोड़ते हुये कहा- गुरुदेव! बूटी विद्यालय के इतने समीप ही थी आप उसे जानते भी थे फिर मुझे व्यर्थ ही पन्द्रह मील तक क्यों दौड़ाया?इतना कष्ट देकर आपने क्या पा लिया? मौन हो ऋषि ने सकरुण नेत्रों से उनकी ओर देखा भर बस कहा कुछ नहीं। वह तो उनका अन्तःकरण था जिसने आप ही उत्तर दे दिया।
धन्वंतरि! इतनी कठिन साधना नहीं करता तो यह जो हजारों औषधियों का ज्ञान प्राप्त हुआ वह कहाँ से मिल पाता?