व्यक्तित्व का अवमूल्यन कर देती है -ईर्ष्या

December 1992

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ईर्ष्या एक प्रकार की मनोविकृति है। इससे भौतिक क्षेत्र में विफलता और आध्यात्मिक क्षेत्र में अवगति प्राप्त होती है। जो इस मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो गया, समझा जाना चाहिए कि उसने प्रगति के अपने सारे द्वारा बन्द कर लिये। इस तरह के लोग यदा-कदा उन्नत स्थिति में पहुँच गये, तो इसे उनका संयोग-सौभाग्य ही मानना चाहिए, अथवा किसी का कृपा-वरदान, अन्यथा ऐसी स्थिति प्राप्त कर पाना उनके स्वयं के बूते की बात नहीं होती। इसी प्रकार स्वयं के पुरुषार्थ से उन्नति के शिखर पर पहुँचे व्यक्ति में ईर्ष्या दिखाई दे तो वह उन्नति के उपरान्त औरों से सवंमित इस रोग के विषाणुओं का ही प्रभाव कहा जायगा, क्योंकि ईर्ष्या और सफलता आग और पानी की तरह साथ-साथ नहीं रह सकती। फिर यह भी सुनिश्चित है कि उच्च स्थिति में पहुँचने के बाद यदि किसी में ईर्ष्यालु-वृत्ति आ गई, तो वह उसके पतन का कारण बनेगी, इसमें संदेह नहीं।

मनोरोग विशेषज्ञ एच. ए. स्किनर ने अपने अध्ययन “ एबनार्मल पर्सनाँल्टि हिडन डायमेन्षन्स” में उन व्यक्तियों विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार एक व्यक्तित्व की प्रभाव-शक्ति समाप्त हो जाती है। वह सदा दूसरों की बुराई करता, छल छिद्र ढूँढ़ता देखा जा सकता है। दूसरों की उन्नति और सुख-शांति तो वह कभी सह ही नहीं पाता। झूठी आलोचनाएँ, मिथ्या दोषारोपण, और दूसरों के कार्यों का अवमूल्यन करना उसके स्वभाव के अंग बन जाते हैं इससे उसके व्यक्तित्व और प्रकृति में रुक्षता दूसरों की निगाहों से वह गिर जाता है। लोगों के मन में उसके प्रति सम्मान एवम् आदर का भाव नहीं रह जाता। उसके जीवन में करक्तता और अकेलापन बढ़ता जाता है। इतना ही नहीं, इसका एक सबसे बड़ा कुपरिणाम यह होता है कि उसका निज का व्यक्तित्व दो खंडों में बँटता जाता है। यह विखण्डन बड़ी विचित्र स्थिति है। स्वयं की ही शक्ति दो दिशाओं में प्रवाहित होती है जिससे एक आन्तरिक संघर्ष षुरु हो जाता है। ऐसी स्थिति में उत्पन्न द्वन्द्वात्मक स्थिति तब तक बनी रहती है, जब तक मूल कारण को मिटाया न जाय।

हर दिशा में इस दुष्प्रवृत्ति का एक ही परिणाम होता है-समाज में समृद्धियों-विभूतियों की कमी। दूसरों जैसा स्वयं भी गुण सम्पन्न बनने का प्रयास किया जाय, तो इसमें स्वयं का हित होने के साथ समाज भी सुखी समृद्ध होगा। किन्तु ईर्ष्या की प्रेरणा व प्रतिक्रिया तो सर्वथा इसके विपरीत होती है। अतः व्यक्ति और समाज का सभी तरह से अपघात करने वाले इस विषैले पादप को जड़-मूल से उखाड़ फेंका जाय इसी में भलाई है। सम्पूर्ण मानव समाज एक इकाई है, एक ही माला में बँधे मनके हैं, एक ही वृक्ष के फल हैं, एक ही समुद्र की तरंगें या एक ही विशाल नदी की लहरें हैं। यह सत्य अपने अनुभव क्षेत्र में और चिन्तन क्षेत्र में, मन मस्तिष्क में, अन्तःकरण में आत्मसात कर लेने पर ईर्ष्या क्षण भर नहीं ठहर सकती।

अपनी असफलता, निराशा और हीनल स्थिति के कारण इसको न पनपने दें, क्योंकि इससे ये दुर्स्थिति बढ़ने ही वाली है, घटेगी नहीं। पहली बात तो, यह जीवन में असफलता-सफलता दोनों ही पहलू आते हैं। विचार करें तो स्पष्ट होता है कि असफलता सफलता का ही पथ प्रशस्त करती हैं पूर्व की त्रुटियों का परिमार्जन कर, नए सिरे से प्रयास प्रारम्भ करें सफलता मिली कठिन नहीं। दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करने की जगह यदि उन्हें बधाई दी जाय, प्रशंसा की जाय तो उनमें से अनेक मित्र, प्रियजन एवम् सहायक रूप में सामने आ सकते हैं। फिर हर व्यक्ति अपने आप में अनोखा, अद्वितीय है। दूसरे उसका स्थान नहीं ले सकते। उद्यान के प्रत्येक वृक्ष की अपनी शोभा है। खेत के प्रत्येक पौधे का अपना महत्व है। गगन में प्रत्येक नक्षत्र की अपनी भूमिका है। इसलिए परस्पर सहयोग से एक दूसरे को विकसित होने का अवसर दें, इसी में बुद्धिमत्ता है। अन्य सभी नष्ट हो जायं हम अकेले जीवित रहें, यह सोचना ओछेपन का चिन्ह है। एकाकी वृक्ष से भला उद्यान की शोभा कैसे बरकरार हर सकेगी। इन सब तथ्यों पर विचार करते हुए, मनन शक्ति के आधार पर ईर्ष्या को समाप्त कर दिया जाय, इसी में व्यक्ति का उत्कर्ष है और समाज का भी।


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