पुण्य और परमार्थ का सुलभ सम्पादन

December 1992

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व्यक्तिगत जीवन को पवित्रता, प्रामाणिकता और प्रखरता से भरने को पुण्य कहते हैं। यही व्रत बंधन है, इसी को तप कहते हैं। इसके लिये निरन्तर ध्यान रखने और सतर्कता बरतने की आवश्यकता पड़ती है। संकल्प में दृढ़ता भरनी होती है अन्यथा थोड़ा भी चूकने पर पतनोन्मुखी प्रवाह में अपने चलने का अभिशाप पल्ले बँध सकता है।

पुण्य का दूसरा सहभागी सहचर है-परमार्थ। दोनों के समन्वय में ही समग्रता बनती है। मनुष्य स्वयं तो निरापद रहे, किन्तु विश्व उद्यान को सुविकसित करने की ईश्वरीय इच्छा पर ध्यान न दे तो एकाकी आत्म सुधार भी एक प्रकार का स्वार्थ साध नहीं बनकर रह जायेगा। पुण्य प्रयोजन में संयम साधना है। इससे स्वल्प साधनों में निर्वाह बनता है, किन्तु व्यक्ति की उपार्जन क्षमता तो असीम है। उसे जितना अधिक विकसित किया जा सके करना चाहिए। अधिक उपार्जन व स्वल्प उपभोग करने पर बड़ी बात का सिलसिला चल सकता है। इसे परमार्थ के लिए नियोजित किया जाना चाहिए। अनीतिपूर्वक उपार्जन और उसका अपव्यय में दुष्प्रयोजनों में समापन, यही है पाप-अनाचार का आधार भूत कारण। इस संदर्भ में भरपूर सतर्कता बरती जानी चाहिए। न आलस्य-प्रमाद के कारण उत्पादन घटे, न अपव्यय में उसे बरबाद किया जाय और परमार्थ में अनुदारता अपनाई जाय, तभी यह संभव हो सकता है कि पुण्य और परमार्थ का परस्पर तालमेल बना रहे और उसके फल स्वरूप आध्यात्मिक गरिमा की दिव्य सम्पदा निरन्तर बढ़ती रहे।

एक अंग्रेजी कहावत है “दान की षुरुवात घर से करनी चाहिए।” जो जितना समीप है उसके प्रति उतना ही अधिक हमारा दायित्व है। इस दृष्टि से शरीर के उपरान्त परिवार का ही नम्बर आता है। परिवार का तात्पर्य उस समुदाय से है जिसके साथ मिल जुल कर रहा जाता है, जो एक दूसरे की सहायता पर निर्भर रहते हैं,

इसे अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता विशेषता ही कहना चाहिए कि यहाँ संयुक्त परिवार प्रणाली अभी भी किसी रूप में जीवित है। यह छोटा समुदाय अपने आप में एक सीमित राष्ट्र या समाज है। इस परिकर में सद्गुणों का बीजारोपण एवं अभिवर्धन जितना सरलतापूर्वक, व्यवस्थापूर्वक, नियमित रूप से किया जा सकता है वह अन्यत्र कदाचित ही कहीं बन पड़ता हो। सुसंस्कृत परिवारों को नररत्नों की खदान कहा गया है। इसे प्रगतिशील अथवा दुर्गति-ग्रस्त बनाना परिवार के सूत्र संचालकों-वरिष्ठ सदस्यों का काम है।

किसी भी प्रयोजन को पूरा करने के लिये उसमें मनोयोग श्रम-समय एवं साधनों को लगाना पड़ता है। यह वस्तुएं हर किसी के पास होती हैं। जिस ओर उपेक्षा बरती जाती है उस ओर कमी पड़ती जाती है और जिस और उत्साह होता है, उसे प्राथमिकता मिलती है और श्रम समय लगाया जाता है। साधन जुटाये जाते हैं। परिवार को अपना प्रथम कर्तव्य क्षेत्र माना जाय, उसे शरीर की तरह ही अपनी सुविधा एवं जिम्मेदारी का प्रमुख क्षेत्र माना जाय, तो इस परिधि में बहुत कुछ सोचने एवं करने की सुविधा मिल जाती है।

जिस प्रकार शरीर के हर अवयव की स्वस्थता-स्वच्छता पर ध्यान रखा जाता है उसमें कहीं भी कुछ भी खराबी आने पर तत्काल उपचार किया जाता है। हर अवयव को यथावत् सुसज्जित रखा जाता है उनमें से प्रत्येक को समुचित पोषण दिया जाता है उसी प्रकार यह भी होना चाहिए कि परिवार का हर सदस्य स्वावलम्बी-सुविकसित-सुसंस्कारी बने। यह हो सकता है कि उस परिवार के सदस्य आदर्शवादिता अपनाने में आनाकानी करें। यह भी हो सकता है कि असमर्थता दिखायें, उपेक्षा बरतें। तो भी अपना प्रयास शिथिल नहीं करना चाहिए। अनुरोध से लेकर आग्रह स्तर के दबाव डालने चाहिए और समझ पाने पर भी बार-बार समझाते रहने का प्रयत्न करना चाहिए।

आवश्यक नहीं कि अंश-वंश के लोगों को ही परिवार माना जाय। अनेक व्यक्ति अविवाहित रहते हैं। विधुर या विधवा होते हैं। जिनके परिजन बड़े होकर काम व्यवस्था के संबंध में अन्यत्र चले गये होते हैं। उन्हें एकाकी रहना पड़ता है। तो भी वे पड़ोसियों, सम्बन्धियों, सेवकों, सहायकों, साथियों का एक दो संपर्क वाला परिवार बना लेते हैं। यहाँ तक कि साधुओं तक की जमातें भी एक परिवार मानी जाती हैं। भिखारी तक साथ-साथ रहते हैं, श्रमिक मजदूर भी झोंपड़ी बना लेते हैं। इस प्रकार उन्हें परिवार का ही, कुटुम्ब तुल्य ही माना जा सकता है। समीपवर्ती सब लोगों को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है।

अर्थ निर्वाह की अनिवार्य व्यवस्था किस प्रकार जुटाई जाती है। यह विभिन्न लोगों को अपनी-अपनी परिस्थितियों पर निर्भर है। पर एक आवश्यकता और व्यवस्था हर परिवार के छोटे बड़े सदस्यों की अभीष्ट होती है कि उसके सद्गुणों को विकसित किया जाय। वस्तुतः यही है सचेतन सम्पदा जिसके आधार पर व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभा का उद्गम उभरता है। अभाव-ग्रस्त परिवारों की आर्थिक सुविधा बढ़ाने में भले ही अड़चन हो, पर यह तो सर्व सुलभ है कि घर में मानवी गरिमा का महत्व समझा जाय और सुसंस्कारिता को विकसित करने वाला क्रिया−कलाप चलता रहे। इसके लिये आवश्यक है कि परस्पर एक दूसरे के सामने अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति कह सकने की मुखरता हो। इस प्रकार के तथ्य एक दूसरे से पूछकर अधिक घुलते मिलते रहने वालों से पूछकर ही जाने जा सकते हैं और जहाँ भी असंतोष, असंतुलन, कुसंस्कारिता पनप रहे हों वहाँ सम्हालने सुधारने के अविलम्ब प्रयास आरम्भ किये जा सकते हैं।

कुसंस्कार खर-पतवार की तरह कहीं भी उग पड़ते हैं किन्तु सुसंस्कारों का उद्यान बड़े प्रयत्न-पूर्वक लगाना और सूझबूझ के साथ बढ़ाना पड़ता है। गुण, कर्म स्वभाव क्षेत्र की श्रेष्ठताएँ अनेकों हैं, पर उनमें से कुछ तो ऐसी हैं जिन्हें प्रमुख ही नहीं अनिवार्य भी समझा जा सकता है। इन पर सर्वत्र सतर्कता-पूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए।

दार्शनिक बौद्धिक दृष्टि से चार प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें वरीयता मिलनी चाहिए (1) समझदारी (2) ईमानदारी (3) जिम्मेदारी (4) बहादुरी इन चारों की सूखी व्याख्या विवेचना गले नहीं उतरती। रूखी और नीरस लगती है उसे सरस बनाने के लिये तर्क, तथ्य, प्रभाव ही नहीं उदाहरण की भी भरमार रहनी चाहिए। समीपवर्ती परिचित क्षेत्र के उदाहरण हो तो और भी अच्छा अन्यथा पौराणिक ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ देते हुए यह बताया जाना चाहिए कि समान धर्मधारणा एवं मानवी गरिमा के अनुरूप तत्व चिन्तन का सार संक्षेप इन्हीं चार गुणों में समाविष्ट हो जाता है। इन्हें अपनाने पर उपलब्ध होने वाले लाभों की उपेक्षा बरतने पर होने वाली हानियों को यदि समझाते रहने का क्रम चलाया जाय तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता।

व्यावहारिक जीवन के पंचशील भी ऐसे हैं, जो व्यक्तित्व को और परिवार दोनों को समुन्नत बनाते हैं। यह पंचशील हैं। (1) श्रमशीलता (2) मितव्ययता (3) शिष्टता (4) सहकारिता (5) स्वच्छता-सुव्यवस्था। इन गुणों का निरूपण कर देना मात्र पर्याप्त नहीं। परिजनों को साथ लेकर घरेलू कामों में स्वयं इस प्रकार जुटने का क्रम बनाना चाहिए जिसमें घर के छोटे बड़े सभी को सम्मिलित रहने का अवसर मिले। घर के काम आमतौर से महिलाओं या नौकरों के ऊपर छोड़ दिये जाते हैं। बचा हुआ समय इधर उधर के कार्यों में बीतता है। इससे सबसे बड़ी हानि होती है कि क्रियाशीलता में सुव्यवस्था का समावेश नहीं हो पाता और न उस प्रकार का अभ्यास बन पड़ता है। होना यह चाहिए कि घर के सभी कामों का मिलजुल कर थोड़े समय में सहयोग-पूर्वक निपटाने का क्रम चल पड़े। इसमें हर सदस्य के स्वभाव में रचनात्मक प्रवृत्तियों का समावेश होता है। घरेलू शाक वाटिका और टूट−फूट की मरम्मत के दो उपक्रम ऐसे हैं जिनके आधार पर सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ भी सजग होती है और हाथों हाथ आर्थिक लाभ भी मिलता है।

परिवार में आस्तिकता का बीजारोपण करने के लिए ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि प्रातःकाल घर का हर सदस्य पूजाकक्ष में जाकर प्रणाम करे। खड़ा होकर आँखें बन्द रखकर मानसिक रूप से गायत्री मंत्र का, या जो रुचिकर हो उस नाम का जप करे। साथ ही प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान भी। इसके उपरान्त घर के बड़ों का अभिवादन करने आशीर्वाद लेने-बराबर वालों से नमस्कार करने का दैनिक शिष्टाचार चले। यह आस्तिकता की, भाव श्रद्धा की, अभिवृद्धि का सरल उपचार है। पर उस स्थापना की मनोभूमि में जड़ जम जाने से उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। आस्तिकता के साथ आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता के सूत्र जुड़े हुए हैं।

रात्रि को कथा कहानियाँ कहने की मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद परम्परा को हर परिवार में पुनर्जीवित किया जाय। इसके लिये महामानवों की जीवनगाथाएं अप्रासंगिक कहानियों की तुलना में कहीं अधिक प्रेरणाप्रद होती हैं। इस निमित्त युग निर्माण योजना ने “प्रज्ञापुराण” के चार खण्ड छापे हैं, जिनमें प्रायः 4 हजार पौराणिक, ऐतिहासिक ऐसी कथाओं का संकलन है, जिनमें आदर्शवादी प्रेरणाएं भरी पड़ी हैं। उन कथाओं के साथ अपने परिवार की, अपने परिजनों की मनःस्थिति की गतिविधियों को आवश्यक मोड़-मरोड़ दिया जा सकता है। सुधार, परिष्कार का मार्ग सुझाया जा सकता है।

नम्रता, शिष्टता का हर सदस्य के स्वभाव में गहरा पुट रहे। कोई भी उच्छृंखलता न बरतने पाये। आवेश में आने की प्रवृत्ति किसी में भी न पनपने दी जाय। सादा जीवन उच्च विचार का मंत्र ऐसी गंभीरता-पूर्वक हृदयंगम कराया जाय कि उसे सुना समझा ही न जाय वरन् पूरी तरह व्यवहार में भी उतरे। आलस्य प्रमाद के दुर्व्यसन से कोई भी आक्रान्त न होने पाये। हर किसी को अस्वच्छता, अव्यवस्था अखरे। जहाँ कहीं भी घर की परिधि में ऐसा कुछ हो रहा हो उसे तुरन्त सुधारने के लिये हर किसी में भी उत्सुकता रहे और उस सम्हाल सुधार में दूसरों की प्रतीक्षा किए बिना हर कोई पहल करने की प्रतिस्पर्धा में उतरे। यही है पारिवारिक जीवन में परमार्थ के समावेश का उच्चस्तरीय निर्धारण जिसे गरीबी में रहने वाले परिवार भी बिना किसी कठिनाई के अपना सकते हैं और व्यक्तित्वों को समुन्नत करते हुए उज्ज्वल भविष्य का पथ प्रशस्त कर सकते हैं। परिवार की परिधि से आगे बढ़कर अपने प्रभाव, संपर्क परिचय क्षेत्र तक अपनी परमार्थ साधना को विकसित करना चाहिए। धन दान को पुण्य परमार्थ समझा जाता है। पर इसमें कुपात्रों के हाथों अपनी सहायता जाने पर उससे दुष्प्रवृत्तियों का परिपोषण भी हो सकता है। फिर हर किसी की स्थिति भी ऐसी नहीं होती जो आये दिन दान देते रहने की व्यवस्था कर सके। उतनी सम्पदा जुटा सके।

संपर्क क्षेत्र में प्रयुक्त की जा सकने वाली सर्व सुलभ सेवा साधना यही हो सकती है कि परिवार में सद्विचार की गरिमा बताने वाले साहित्य को पढ़ाया जाय। बिना पढ़ों के पढ़कर सुनाया जाय। इन प्रसंगों पर पारस्परिक चर्चा करते रहा जाय। इसके लिये झोला पुस्तकालय चलाने का एक काम ऐसा है जिसके लिये नियमित रूप से नित्य समयदान, अंशदान, देते रहा जा सकता है।

घर परिवार के लोगों के साथ निजी संपर्क किसी भी समय रह सकता है। रात्रि में तो सब लोग एक साथ रहते ही हैं। सोने से पूर्व एवं उसके पश्चात् भी इतना समय रहता है कि उसमें कुछ पूछते बताते रहा जा सके और घर के सभी लोगों के साथ संपर्क सधता रहे। उसमें सुसंस्कारिता का बीजारोपण, परिपोषण चलता रहे। पर घर से बाहर वाले संपर्क क्षेत्र में तो सत् साहित्य पढ़ाते सुनाते रहने की सेवा साधना कन्धों पर लेकर यह किया जा सकता है कि उनमें विवेकशीलता, शालीनता उभारी जाय और उन्हें अपने को परिष्कृत बनाने की दिशा अपनाने के लिये प्रभावी मार्गदर्शन किया जाय। यह कार्य झोला पुस्तकालय चलाने के लिए नियमित समय लगाकर जना-संपर्क साधते हुए आसानी से हो सकता है। प्रत्येक परमार्थ परायण को अपने परिवार में तथा संपर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के रूप में इन प्रवृत्तियों को सम्पादित करते रहने के लिये समुचित उत्साह प्रदर्शित उत्साह प्रदर्शित करना चाहिए।


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