गुरु शिष्य कहीं जा रहे थे। रास्ते में प्रश्नोत्तर का क्रम भी चलता रहता। शिष्य ने कहा-गुरुदेव, ज्ञान-विज्ञान में मन नहीं लगता। भजन भी बन नहीं पड़ता। कुछ उपाय करें।
गुरु ने दिव्य दृष्टि से वस्तुस्थिति समझी। शिष्य की पोटली में सौ रुपये थे। वह उनके सहारे कुछ करने की योजनायें बनाता रहता और सुनहरे सपने देखता रहता। कारण समझ में आ गया कि आसक्ति के रहते, विरक्ति के मार्ग पर चल सकना बन नहीं पड़ेगा।
अगले पड़ाव पर शिष्य शौच गया। पोटली वहीं रखी रही। गुरु ने रुपयों की थैली निकाली और कुएं में फेंक दी। धड़ाम की आवाज हुई। शिष्य भागा आया। पूछा क्या हुआ-किसकी आवाज हुई गुरुदेव! उत्तर मिला, लुभाने वाली, माया चली गई। अब मन एकनिष्ठ होकर परमार्थ में लगेगा। दो घोड़ों की सवारी में असमंजस ही रहता है।