स्रष्टा का एक निराला उपक्रम

December 1992

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किसान अपने कृषि कार्य में भूमि-शोधन, बीजवपन, हरीतिमा-विस्तार, पुष्प की शोभा और फलों की सम्पदा का वैभव बढ़ाने जैसे अनेकों काम सम्मिलित रखता है। लेकिन इतने मात्र से कृषि के अभीष्ट परिणाम नहीं मिल जाते, न ही वह स्थिति निर्बाध गति से चलती और स्थिर रहती है। कीड़े-मकोड़े और पशु-पक्षी खेती को नुकसान पहुँचाते हैं। ऋतुएँ भी कई बार कृषि उत्पादन में रुकावट पैदा करती हैं। अन्ततः एक समय ऐसा आता है जब पकी फसल सूखती है और उसकी जीवन लीला समाप्त होती है। उत्पादन का चक्र निरन्तर चलता रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान का क्रम जारी रहे।

कहना न होगा कि परमात्मा की इस सुन्दर सृष्टि की सुव्यवस्था और सुन्दरता अनुपम तथा अद्वितीय है। इसकी प्रगति प्रक्रिया का एक इतिहास है। जिसमें नये अध्याय जुड़ते ही जाते हैं। इस प्रगति प्रक्रिया के साथ अवगतिक्रम का भी अन्त नहीं। पतन और पराभव तत्व अपना काम करते हैं तथा प्राणियों को अधिक जागरूक हरने की प्रेरणा देते हैं। जन्म-जीवन प्रवाह का एक सिरा है तो मृत्यु दूसरा छोर, सृष्टि का गति चक्र इसी प्रकार चलता रहता है। विस्तार ही विस्तार होता जाय इतना स्थान ब्रह्माण्ड में नहीं है। इसीलिए वह चक्र गति से परिभ्रमण उठते हैं। सृष्टि क्रम में भी यही होता है। शैशव, कैशोर्य और यौवन काल पूरा होते ही जराजीर्णता का चलना आरम्भ हो जाता है और इस जराजीर्णता के बाद अन्त में मरण आ उपस्थिति होता है। यह मरण भी अन्तिम नहीं है। मृत्यु के दिन से ही नए जीवन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। मृतक को नया जन्म मिलता है। असमर्थ और रोगी-वृद्ध के सामने मृत्यु की निराशा भरी स्थिति रहती है तो मृत्यु के बाद अगले चरण के रूप में नए जन्म, से देखी व समझी जा सकती है। निराशा के घनीभूत अन्धकार में ऊषा की अरुणोदय आभा का आश्वासन हर आस्थावान व्यक्ति अनुभव करता है।

उत्थान और पतन के यह पन्ने समष्टि प्रवाह में भी उलटते पुलटते रहते हैं। इस प्रवाह में सृजन प्रधान है, उत्कर्ष प्रमुख है। व्यवस्था शालीनता के साथ जुड़ी हुई है और यही जीवन है तथा यही विस्तार है फिर भी पतन और पराभव से छुटकारा नहीं। चिनगारी यद्यपि छोटी होती है, घुन भी जरा सा होता है। इनकी सत्ता प्रायः नगण्य ही होती है, फिर भी वे चुपके-चुपके इतना अधिक कर गुजरते हैं कि मृत्यु या उसके समान संकट का सामना करना पड़ता है। विश्व के इतिहास में ऐसे संकट की घड़ियाँ अनेकों बार आई हैं, जब विनाश की ताँडव लीला अपनी पूरी गति से नर्तन करती रही है। सर्वनाश की आशंका ने उन घड़ियों में जन-जन को भयाक्रान्त भी किया है। यह सब होते हुए भी सृष्टा अपनी इस अद्भुत कलाकृति को, विश्व वसुधा को, मानवी सत्ता को सर्वनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही अपनी सजगता और सक्रियता का परिचय देते हुए परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार प्रस्तुत करता है।

ऐसे अवसरों पर सृष्टा का वह आश्वासन पूरा होता है जिसमें उसने अपने सुरम्य उद्यान को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही उसे बचाते रहने का सुनिश्चित विश्वास दिलाया है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य ......... वाली प्रतिज्ञा गीताकार ने अर्जुन के सम्मुख ही प्रकट नहीं की है वरन् शास्त्रों और आप्त वचनों में अनादि काल से इस आश्वासन का अनवरत उल्लेख होता रहा है। न केवल उल्लेख वरन् उसके प्रकट होने का प्रमाण समय-समय पर मिलता रहा है।

यही अवतार है। संकट की सामान्य परिस्थितियों से तो मनुष्य स्वयं ही निपट लेता है, पर जब असामान्य स्तर की संकटग्रस्त विपन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं तो स्रष्टा को स्वयं सक्रिय होना पड़ता है। मनुष्य का पौरुष जहाँ लड़खड़ाता है, वहाँ गिरने से पूर्व ही सृजेता के लम्बे और समर्थ हाथ असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए चमत्कार प्रस्तुत करते हैं। वैसे भी सर्वसामान्य के लिए उत्थान के साधन जुटाना कोई आसान काम नहीं है। फिर पतन के गर्त में गिरने वाले जनमानस को उलट देना तो और भी कठिन है। इस कठिनतम कार्य को सहज पूरा कर डालने के लिए ही स्रष्टा का लीला अवतरण-प्रकटीकरण हुआ है। इसी को अवतार प्रक्रिया कहा गया है। आज की विषम वेला में इस अवतार प्रक्रिया-को प्रस्तुत होते हुए कोई भी प्रज्ञावान प्रत्यक्ष देख सकता है।


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