चित्तवृत्तियों की चंचलता कैसे थमे?

December 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पातंजलि योग दर्शन का कथन है –

योगष्चित वृत्ति निरोध

अर्थात् चित्तवृत्तियों को रोकना ही योग है। यदि मनुष्य अपने मन में उठने वाली अनेक प्रकार की कामनाओं और वासनाओं को रोक लेता है और उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं अपनी इच्छा से उस तरह कर सकता है जिस प्रकार सारथी रथ में जुते हुए घोड़ों को तो वह निश्चय ही अपनी शक्तियों का ऊर्ध्वगामी विकास करके परमात्मा की उपलब्धि कर सकता है।

साधारणतया चित्तवृत्तियों को समझा पाना भी सरल कार्य नहीं है। कारण सामान्य अवस्था में इनका न तो कोई स्वत्व दिखाई देता है और न मूल्य व महत्व पर जब इन्हीं को कुचला और नियन्त्रण में रखने का अभ्यास किया जाता है तब इनकी भयंकरता देखते ही बनती है। राक्षसों सुरसा की तरह अनेक रूप बनाने में पटु यह चित्त वृत्तियाँ मनुष्य को लुभाती ही नहीं वरन् डराती और धमकाती भी है। निर्बल मन और अस्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति उनकी एक ही झपाक में ठण्डे होकर लम्बे समय की जा रही तप साधना एवं योगाभ्यास तक छोड़ बैठते हैं और इस तरह आत्मिक प्रगति की यात्रा उनकी अधूरी ही रह जाती है।

अर्जुन जैसे महारथी को भी यही कहना पड़ा था-

चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्न्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुश्करम॥ गीता 6-34

अर्थात् है भगवान! यह मन बड़ा चंचल है॥ मस्तिष्क को मथ डालता है, यह बहुत दृढ़ और शक्तिशाली है। इसलिये इसको वश में करना वायु की तरह बहुत कठिन है।

किन्तु योग विद्या विशारदों का कहना है कि यह कठिनाइयों कुछ ही दिन की होती हैं यदि अभ्यास बन्द न किया जाय तो यही मन एक दिन सर्वोत्तम समीपस्थ मित्र की भांति अनुकूल आचरण करने वाला हो जाता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन! मन बड़ा चंचल है पर निरंतर अभ्यास से वह भी वश में आ जाता है। जो देर तक उसमें स्थिर रह सकता है वही अन्तिम सिद्धि तक पहुँच सकता है यह पहले ही मन में बिठा लेने की बात है।

मनीषी योगाचार्यों ने चित्त वृत्तियों के निरोध के दो उपाय बतायें है- 1 मनोवैज्ञानिक 2 वैज्ञानिक। प्रथम प्रकार के सभी उपाय मानसिक है। उनमें अपने मन को ही इस बात के लिये राजी किया जाता है कि वह अपने आप संसार की क्षणभंगुरता अनुभव करे और इस बात की जिज्ञासा जाग्रत करे कि हम वस्तुतः है क्या? इस काय पिंजर में हम किस तरह फंसे पड़े है? किस तरह उससे मुक्ति और पूर्ण आनन्द जिसके लिये हमारी चाह अनवरत है किस तरह प्राप्त हो सकती है?

योग दर्शन पाद 1 सूत्र 12 में बताया है अभ्यास वैरागभ्यान्तत्रिरोधः। अर्थात् निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की पार्थिव वृत्ति बदल जाती है इसी बात को गीताकार ने अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते कह कर समझाया है। अर्थात् निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की वृत्तियों धीरे धीरे वश में आने लगती है।

योगदर्शन 1-23 के अनुसार दूसरा उपाय -ईश्वर प्रणिधनद्धा अर्थात् अपने आप को परमात्मा में मिलाने का समर्पण का अभ्यास करने से मन की प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होने लगती है।

योग शास्त्री में अनेकानेक अभ्यास बताये गये हैं जिनसे मनोनिग्रह में सहायता मिल सकती है, पर मन उतने से ही वश में आ जाय यह कोई आवश्यक नहीं हम जिस स्थिति में हैं वह कई जन्मों का विकसित रूप हैं मनुष्य के पूर्व जन्मों के पाप और वासनाओं के संस्कार जो मन में कई परतों के रूप में जमे होते हैं बार बार उन्हीं वासनाओं की ओर घसीटते हैं इसलिये साधक की वृत्तियाँ कभी भी उद्दीप्त हो उठती है। उसके लिये वैज्ञानिक विधियाँ काम में लाई जाती है शरीर और मन की अंतरंग सफाई चित्त का परिशोधन परिष्कार यौगिक क्रियाओं से किया जाता है तब निर्मलता आती है। इसलिये आत्म साक्षात्कार की इच्छा रखने वाले किसी भी साधक के लिये आवश्यक हो जाता है कि वह अष्टांग योग का अभ्यास करता हुआ आत्मा का विकास परमात्मा की ओर करे। योग के यह आठ अंग है।

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारण ध्यान समाधयोडश्टावड् गानि। योग दर्शन 2-29

अर्थात् 1- यम 2- नियम 3- आसन 4- प्राणायाम 5- प्रत्याहार 6- धारणा 7- ध्यान और 8- समाधि।

इनका अभ्यास करने से मन और अंतःकरण की कठिन मलिनतायें भी नष्ट हो जाती हैं और निर्मल ज्ञान प्रकाश एवं विवेक बुद्धि की अभिवृद्धि भी इन्हीं आठ अंगों में उत्तरोत्तर अभ्यास और विकास द्वारा उपलब्ध होती है। परन्तु इनका वास्तविक लाभ आत्मा या ईश्वर की प्राप्ति ही है। इसलिये किसी को भी चमत्कार ओर सिद्धियों की ओर मन न लगाकर केवल आत्म कल्याण का ही विचार करना चाहियें। प्रायः अष्टांग योग की पूर्ण जानकारी हर किसी को नहीं होती और जिन्हें रहती भी है वे लम्बी अवधि तक उन कठोर से लगने वाले नियमोपनियमों का पालन नहीं कर पाते जिनसे चित्त की एकाग्रता सधती और कषाय कल्मषों से कुसंस्कारों से छुटकारा मिलता हैं फलतः योगाभ्यास का वह लाभ नहीं मिल पाता जिसकी महिमा महत्ता का वर्णन ऋषि मनीषियों एवं योगशास्त्रों ने पग पग पर किया है ऐसी स्थिति में मन को साधने के लिये मनोवैज्ञानिक प्रयोग सर्वाधिक सुविधाजनक जान पड़ते है। इस विधि से प्रतिदिन नियमित रूप से थोड़ी देर तक अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति अपना वैराग्य और ईश्वर प्राप्ति का अभ्यास दृढ़ कर सकता है। हानि रहित यह अभ्यास हर कोई कर सकता है। मनोवैज्ञानिक अभ्यास की सर्वोपयोगी दो विधियाँ है पहला अभ्यास सर्वप्रथम किसी समतल और कोलाहल रहित शांत स्थान में कोई वस्त्र बिछाकर सीधे चित्त लेट जाना चाहिये। ध्यान रहे दोनोँ पैर सीधे मिलाकर रखे जाय। साथ ही दोनों हाथ सीने के ऊपर हों। इसके पश्चात शरीर को निश्चेष्ट एवं बिलकुल शिथिल छोड़ दिया जाय और प्रगाढ़ भावना की जाय कि मानो प्राण शरीर में से निकलकर प्रकाश के एक गोले की तरह हवा में स्थिर हो गया है और शरीर मृत अवस्था में बेकार पड़ा है। अब यही बात प्रत्येक अंग अवयव के बारे में ध्यान पूर्वक सोची जाय कि कल तक यही आंखें अच्छी अच्छी वस्तुयें देखने का हठ करती थी। अब आज क्यों नहीं देखती और यह मुख जो बढ़िया बढ़िया स्वादिष्ट वस्तुयें खाने को माँगता था, कैसा बेकार पड़ा है।

नाक, आँख, मुंह, कंठ, छाती, हाथ, पैर सहित उन सभी अंगों को बार बार ध्यान पूर्वक देखा जाय जिनमें कफ, थूक, माँस-मज्जा मल-मूत्र के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं रह गया है। यथार्थ वस्तु जो कि आत्म चेतना थी वह तो अभी भी मेरे ही साथ है क्या मैंने इस शरीर के लिये ही अपने इस प्रकाश शरीर को आत्मा को भुला दिया था? क्या अब तक इसी शरीर के लिये जो पाप कर रहा था, वह उचित था? आदि ऐसे अनेक प्रश्न मन में उठाये जा सकते जिससे साँसारिक भाव नष्ट हो और मन यह मानने को विवश हो जाय कि हम अब तक भूल में थे। वस्तुतः मनुष्य का यथार्थ जीवन शरीर नहीं आत्मा है।

दूसरा अभ्यास इसमें किसी शांत एकान्त स्थान में कुश आदि का कोई पवित्र आसन बिछाकर ध्यान मुद्रा में बैठना पड़ता है। आसन सदैव समतल स्थान पर बिछाया जाता है। ऊंचा नीचा होने पर शरीर को कष्ट होगा और ध्यान नहीं जमेगा। ध्यान मुद्रा का आरंभ शरीर, सिर एवं ग्रीवा को सीधा रखकर अध खुले नेत्रों से नासिका के अगले भाग को देखने से होता है। दृष्टि और मन कहीं दूसरी ओर न जाय इस ओर विशेष ध्यान रखना पड़ता है यदि जाता है तो उसे बार-बार अपने मूल अभ्यास की याद दिलाकर एकाग्र किया जाता है।

जब मन शांत हो जाय तब भावनापूर्वक ध्यान किया जाय कि मैं प्रकाश के एक कण तारा या जुगनूँ की तरह हूँ और नीले आकाश में घूम रहा हूं। सूर्य की तरह का इससे भी हजारों गुना बड़ा और तेज चमक वाला एक प्रकाश पिण्ड आकाश में दिखाई दे रहा है। उसी की प्रकाश किरणें फूटकर निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त हो रही है। हजारों सूर्य उसके आस पास चक्कर काट रहे है। मैं जो अभी तक एक लघु प्रकाश कण के रूप में अशक्त अज्ञानग्रस्त और सीमाबद्ध पड़ा था अब धीरे धीरे उस परम प्रकाश पुँज में हवन हो रहा है। अब मैं रह ही नहीं गया या तो करोड़ों अरबों किलोमीटर के विस्तार वाला गहरा नीला आकाश है या फिर वही दिव्य प्रकाश जिसमें घुलकर मैं अपने आप को सर्वव्यापी सर्वदर्शी सर्वज्ञ और सर्व समर्थ अनुभव कर रहा है।

यह दोनों ही अभ्यास चित्तवृत्तियों को रोकने और वैराग्य तथा ईश्वर प्राप्ति की कामना को बढ़ाने में बहुत ही सहायक सिद्ध हो सकते है। भावप्रवणता की गहराई में प्रवेश करने पर थोड़े दिनों के अभ्यास से ही उसके प्रतिफल सामने आने लगते है। अपनी सुविधानुसार कोई भी व्यक्ति इन साधनाओं का अभ्यास कर सकता है और अध्यात्म साधना की दिशा में वाँछित प्रगति कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles