सूक्ष्म शक्तियों, संवेदनाओं एवं तेजस्विता की संग्राहक−शिखा

December 1992

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भारतीय संस्कृति में आस्तिकता को जितना महत्व मिला है प्रतीकों में सूत्र के साथ शिखा को (चोटी को) भी उतना ही महत्वपूर्ण माना गया है। धर्मशास्त्रों में शिखा को प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अत्यन्त पवित्र और अनिवार्य−प्रतीक बताया गया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राण दिये जा सकते थे, पर शिखा नहीं। गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों ने अपनी जीवित बलि दे दी, पर चोटी नहीं कटाई। प्राण जैसी महत्वपूर्ण वस्तु हँसते−हँसते दे देना, पर संस्कृति की−हिन्दुत्व की प्रतीक चोटी को न कटवाना यह संकेत करना है कि शिखा रखने का कोई बड़ा भारी रहस्य भारतीय तत्वदर्शन में है, अन्यथा उस पर मनीषियों ने जोर न दिया होता।

आर्षग्रन्थों में उल्लेख है−

“चिद्रुपिणि महामाये दिव्य तेज समन्विंते। तिष्ठ देवि शिखा मध्ये तेजो वृद्धिं कुरु ष्व मे॥”

अर्थात्− चेतना स्वरूप महान महिमावाली तथा दिव्य तेज प्रदान करने वाली है शक्ति, तुम हमारी शिखा में आओ, बैठो और हमारे अन्दर तेजस्विता की अभिवृद्धि करो।

दीर्घायुष्य वाय बलाय वर्यसे। शक्तये शिखाये वषाट्॥

अर्थात्−”तुम दीर्घ जीवन, बल, ब्रह्मवर्चस् और शक्ति का संवर्धन करने वाली हो।”

इन मंत्रों में शिखा के सूक्ष्म रहस्यों और उसके महान महत्व का प्रतिपादन किया गया है। अध्यात्मवेत्ता मनीषियों का कहना है कि यही वह माध्यम है, जो सर्वप्रथम मानवीय चेतना का सम्बन्ध सृष्टि की अनादि चेतन शक्तियों से जोड़ती है। जिस तरह किसी रेडियो स्टेशन से संदेश प्रसारित करने हों तो उसे विद्युत तरंगों द्वारा किसी शक्तिशाली ट्रांसमीटर द्वारा निक्षेपित करना पड़ता है, ठीक वैसा ही कार्य शिखा द्वारा अन्तःकरण की भाव तरंगें किन्हीं देवशक्तियों तक पहुँचाने के रूप में होता है। बाहरी संदेश और रेडियो तरंगों को ग्रहण कर आवाज में बदलने के लिए प्रारंभिक आवश्यकता ‘एरियल’ या ‘एंटीना’ की होती है। मनुष्य शरीर जैसे दिव्य रेडियो और टेलीविजन सेट में यह कार्य शिखा से ही सम्पन्न होता है। इस तरह बाह्य और आन्तरिक शक्तियों का मूल बिन्दु शिखा को ही माना जाना चाहिए।

बरगद एवं पीपल की महान एवं रुद्र जटायें−एरियल रुट्स तथा पेड़−पौधों की पत्तियाँ अपने सूक्ष्म छिद्रों स्टोमेटा से हवा और प्रकाश के कण खींचती हैं जिससे उनमें ‘फोटोसिन्थेसिस’−प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है और वे अपना विकास करते रहते हैं। मनुष्य के बाल भी देखने में अत्यन्त बारीक दिखायी देते हैं, पर वे भी छिद्रयुक्त होते हैं और त्वचा के अन्दर उनका सम्बन्ध तंत्रिका तंतुओं से होता है। शक्ति संरक्षण एवं पोषण में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

मनोवेत्ताओं के अनुसार शरीर के अन्य भागों के बाल जहाँ शरीर के विभिन्न अंगों को पोषण और प्रकृति के परिवर्तन से होने वाले तापमान की घट−बढ़ से सुरक्षा रखते हैं, वहाँ सिर के बाल विशेष कर शिखा क्षेत्र मस्तिष्क की शक्तियों को प्रबुद्ध और प्रखर बनाते−तेजस्विता प्रदान करते हैं। स्त्रियाँ लम्बे बाल मुखमंडल को तेजस्व की प्राप्ति होती रहती है और वे देखने में सुन्दर आकर्षक लगती हैं। अनिष्टकारी प्रभावों से रक्षा, अवसाद से रक्षा, मनोबल की वृद्धि, वासना की कमी तथा मानसिक शक्तियों के पोषण में यों सिर के सभी बालों का महत्व है, पर शिखा−स्थान का महत्व इन सबसे अधिक है। शक्तियों को खींचने और प्रेषण करने का सबसे संवेदनशील स्थान यही है। यहाँ के बाल बार−बार कटवाते रहने से बार−बार शक्ति खर्च होती रहती है, पर यदि शिखा रखाकर उस शक्ति के अपव्यय को रोक देते हैं तो उसी से मानसिक शक्तियों का पोषण होने लगता है। वही शक्ति मनुष्य की विवेक शक्ति, दूरदर्शिता, दृढ़ता, संयम और प्रेम की शक्ति के रूप में विकसित होकर मानव जीवन में शक्ति और सफलता, सुख और शान्ति के द्वार खोलने में मदद करती है।

शिखा रखना अब तक श्रद्धा और विश्वास का विषय था। हम भारतीय लोग हमेशा से उसी आधार पर चोटी रखते आये और उसके दिव्य लाभों से लाभान्वित होते रहे हैं। धर्म−ध्वजा की तरह उसकी रक्षा को जातीय गौरव और प्रतिष्ठा का चिन्ह मानते रहे हैं, पर आज जब कि लोगों में सूक्ष्म बौद्धिक क्षमता का − विवेकशीलता का अभाव हो चला है, लोगों की कल्पना और विचारशीलता स्थूल भौतिक जानकारियों तक सीमित हो गयी हैं। यह प्रश्न उठाया जाने लगा है कि आखिर शिखा रखने का−संस्कार परम्पराओं का वैज्ञानिक अर्थ क्या है? श्रद्धा−पोषित सीधे सादे पुरोहित उसका उत्तर भले ही न दे सकें, पर यह सच है कि आज विज्ञान भी मानने लगा है कि शिखा स्थान का मानव जीवन से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है।

इस संदर्भ में हुई वैज्ञानिक शोधों ने शिखा स्थान की वही महत्ता प्रतिपादित की है जो हमारे प्राचीन मनीषियों ने उसे गहन अनुसंधान के पश्चात् प्रदान की थी। प्रख्यात वैज्ञानिक नेलसन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ह्युमन मशीन” में ‘रेटीक्युलर फार्मेशन’−तंत्रिका जाल पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया है कि शरीर में सतर्कता के सारे कार्यक्रमों का नियमन उसी स्थान से होता है। मस्तिष्क के पार्श्वभाग थर्डवेन्ट्रिकल की सतह मेडुला आब्लाँगेटा से लेकर हाइपोथैलेमस तक फैली यह संरचना अपने आस पास के वातावरण, जलवायु आदि में आने वाले तनिक से भी परिवर्तन को समझने, ग्रहण करने और परिवर्तन के अनुसार शरीर में समायोजन करने का कार्य करती है। यह नाड़ी जाल बहुत से मस्तिष्कीय नाड़ी तन्तुओं के समानान्तर रूप से एक ही केन्द्र की ओर जाने से विनिर्मित होता है। यह स्थान ठीक चोटी के नीचे स्थित पीनियल ग्रन्थि के अधोभाग में सेरिब्रम में बाह्य परिवर्तनों का संग्राहक और व्यवस्थापक ही नहीं अनेक विलक्षण अनुभूतियों का मार्ग भी यह चोटी वाला स्थान है, इसे ही सूक्ष्म ब्रह्मांडीय तरंगें प्रभावित करती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान, ध्यान द्वारा आकाश स्थित सूक्ष्म शक्तियों के आकर्षण का मूल बिन्दु यही है। यदि इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को बढ़ा दिया जाय तो मनुष्य को सूक्ष्म अनुभूतियाँ सहज ही होने लग जाती हैं।

सुप्रसिद्ध अँग्रेजी वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ के पिछले एक अंक में अमेरिकी अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों का एक लेख छपा है जिसमें एक प्रयोग का हवाला देकर यह सिद्ध किया गया है कि यदि मस्तिष्क के शिखा वाले उस केन्द्र को अत्यधिक संवेदनशील बना लिया जाय, जो सभी ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को ग्रहण करता और उनके अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, तो जो कार्य आँखें, नाक, कान, त्वचा आदि करती हैं वह अपने आप अतीन्द्रिय रूप में किया जा सकता है। समाधि अवस्था का यथार्थ ज्ञान और स्वप्नों की सत्य अनुभूतियाँ इसी संवेदनशीलता का परिणाम होती हैं। महाराजा रणजीत सिंह और अँग्रेज जनरल वेन्टुरा की उपस्थिति में संत हदास ने एक माह की समाधि लगायी थी। जब वे बाहर निकले थे तब चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों ने उनकी जाँच करते समय पाया था कि उनकी चोटी वाले स्थान का तापमान इतना अधिक था कि उसे छुआ भी नहीं जा सकता था। इससे उन्होंने अनुमान लगाया था कि समाधि की स्थिति में श्वांस लेने और शरीर के कोषों की उत्सर्जन प्रक्रिया रोक कर उन्हें यथावत् स्थिति में रखने का काम तक इस संस्थान द्वारा किया जा सकता है। इस अवस्था में शरीर का सारा पोषण सूक्ष्म आकाश से होता है, साथ ही आत्मचेतना का बाह्य जगत से मुक्त सम्बन्ध तक जुड़ा रहता है। यह इस बात के प्रमाण हैं कि ब्रह्मांडव्यापी अनन्त शक्तियों से संपर्क और दूरानुभूति जैसी अतीन्द्रिय सामर्थ्यों का केन्द्र भी शिखा स्थान ही है। इस स्थान को भारतीय उपासना पद्धति में बहुत अधिक संवेदनशील बनाने का इसीलिए अनिवार्य विधान रखा गया है।

इन अमेरिकी वैज्ञानिकों ने ‘रेटीक्युलर फार्मेशन’ नामक मस्तिष्कीय केन्द्र पर किये गये विभिन्न प्रयोग−परीक्षणों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि मस्तिष्क का यह स्थान सूक्ष्म आँख का काम करता है और विकिरण तरंगों तक को देख सकने में समर्थ है।

योगशास्त्रों में इसी केन्द्र को सहस्रार कमल कहा गया है जिसमें परमात्म सत्ता या−शिखा−शक्ति−आत्मा विराजमान रहती है। वही देखती, सुनती, चलती−फिरती और समस्त कर्मों का कर्माध्यक्ष है। इसलिए इस केन्द्र को जितना अधिक सुसंस्कारित, परिष्कृत एवं संवेदनशील बना सकते हैं, वह संसार के रहस्यों, आत्मा के रहस्यों, भूत और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं की सत्य जानकारियों को उतना ही अधिक स्पष्ट और सच−सच देख, सुन एवं अनुभव कर सकती है। शुद्ध हुए इस संस्थान की सहायता से ही योगी एवं ऋषि−मनीषी भविष्य में झाँक सकने में समर्थ होते हैं। चूँकि यह कार्य शिखा के बालों के माध्यम से ही होता है, ब्रह्मांड के लिए एरियल और ट्राँसमीटर वही है, इसलिये इसे आध्यात्मिकता का केन्द्र बिन्दु मानकर इतना महत्व दिया गया। आज जब इसके महत्व को भुला दिया गया है तब हमारी बौद्धिक क्षमतायें, अतीन्द्रिय सामर्थ्य कुंठित पड़ गयी हैं। शिखा−संस्थापन द्वारा शुभ संस्कारों का बीजारोपण कर हम पुनः अपने गौरवशाली अध्यात्म−परम्परा की पुनरावृत्ति कर सकते हैं शिखा ही व्यक्ति को व्यष्टि से समष्टि और अपनी सूक्ष्म सत्ताओं को अनन्त क्षमताओं से जोड़कर लाभान्वित होने का माध्यम है। उसकी जितनी महिमा गायी जाय कम है।


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