हम्मीर हठ, जिसने रूढ़ियों के बन्धन तोड़े

December 1992

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“यह केवल हठ की बात नहीं है काका सा! आप यह क्यों नहीं सोचते कि हम भारतीयों के घरों में नारी की स्थिति पहले ही कैसी दयनीय है? राजकुमारी वसुमती का वैधव्य मेरे लिए अमंगल हो सकता है तो यह सारे भारतीयों के मस्तक पर भी कलंक क्यों न होना चाहिए? विधवाओं की सबसे ज्यादा संख्या इसी देश में है और उसके उत्तरदायी सामाजिक कारण भी पुरुषों द्वारा ही तैयार किए गए हैं। क्या अपने किए का प्रायश्चित पुरुषों को नहीं करना चाहिए?”

राणा हम्मीर इतना कहते-कहते कुछ आवेश में आ गए थे पर अपने काका सा-अजयसिंह और अन्य सभासदों का वे पूर्ण सम्मान करते थे। इसीलिए फिर अपनी वाणी को संयत और विनीत बनाते हुए बोले-”काका सा! श्राजकुमारी के कोई सन्तान नहीं है, वे छोटी आयु में ही विधवा हो गई। राज परिवार संन्यासी का सा जीवन नहीं जी सकता फिर क्या यह राजकुमारी की कोमल भावनाओं पर आघात न होगा कि उन्हें हँसते-खिलखिलाते जीने की इस आयु में रीति रिवाजों के बन्दीगृह में डाल दिया जाय? सम्बन्ध मुझे करना है और मैं तैयार हूँ, आप लोग किसी अमंगल की बात अपने मन से निकाल दें।”

“किन्तु हम्मीर! तुम नहीं जानते चित्तौड़ नरेश भालदेव ने हमारे साथ छल किया है। उसने जान-बूझ कर विधवा कन्या का सम्बन्ध भेजा है। तुम्हारे जैसे वीर और प्रतिष्ठित राजकुमार के लिए विधवा से संबंध करना शोभा नहीं देता-हम्मीर! युद्ध ही करना है तो हम तैयार हैं, पर हम इस पक्ष में कभी नहीं कि तुम्हारा सम्बन्ध एक ऐसी कन्या से हो जो पहले कभी किसी का वरण कर अपवित्र हो चुकी हो।” अजयसिंह ने दृढ़ शब्दों में कहा और सामन्तों ने उसका अनुमोदन किया।

पर हम्मीर उस धातु के बने नहीं थे जो किसी भी समय कैसे भी मोड़े और झुकाए जा सकते? हम्मीर किसी सिद्धान्त को देर से स्वीकार करते थे। लेकिन एक बार उसमें सत्य और आदर्श कर रक्षा देख लेते तो उसके लिए ऐसा हठ करते कि फिर सारा संसार एक तरफ हो जाता तो भी वचन से पीछे न हटते। “हम्मीर हठ” उन दिनों जन साधारण के लिए दैनिक बोल बन गए थे।

हम्मीरदेव ने कहा-”काका सा! पुरुष जब चार-चार रानियाँ लाकर राजमहलों में डाल देता है तब अपवित्र नहीं होता, फिर नारी एक ऐसी अवस्था में जबकि उसे सहारे की आवश्यकता होती है और दूसरा विवाह कर दिया जाता है तो वही अपवित्र क्यों हो जायेगी। मान्यताएँ मनुष्य ने बनाई हैं, पर उनमें केवल वही बातें मान्य हो सकती हैं जिनका कुछ विवेक-जन्य औचित्य भी हो? विधवा अपवित्र और अमंगल होती है- यह कोई तर्क नहीं, सच बात तो यह है-यदि वह निःसन्तान है तो सबसे पहले सहारे की अधिकारिणी भी वही है।” हम्मीर के हठ के आगे किसी की एक न चली। वह लगन मण्डप पर जा पहुँचे और सम्बन्ध कर ही लिया। सैनिक जो मेवाड़ से युद्ध करने गए थे, वह बाराती बनकर लौटे। वसुमती ने उस दिन पूर्ण श्रृंगार किया था, पर उसे ऐसा लग रहा था जैसे महाराणा हम्मीर उसके साथ

कहीं छल तो नहीं कर रहे। समाज ने विधवा के जीवन में जो आत्महीनता लाद दी है, वसुमती उसी के कारण कुछ भयभीत-संकुचित सी लग रही थी। लेकिन शीघ्र ही उसके भ्रम कर निवारण हो गया। महाराणा के प्रेमिल व्यवहार से उसे जल्दी ही मालूम हो गया कि हम्मीर ने यह कार्य सिर्फ हठ के कारण नहीं-मानवीय करुणा और रूढ़ियों को तोड़-फेंकने के शौर्य के रूप में किया है।

उसने हम्मीर देव को शासन व्यवस्था में ऐसा सहयोग प्रदान किया कि एक दिन राणा हम्मीर बिना किसी द्वन्द्व रक्तपात के ही मेवाड़ के शासक बन गए। पहले जो लोग कहा करते थे कि विधवा से विवाह हम्मीर के अमंगल नहीं होती। उसे मानवीय सम्मान मिले तो वह किसी भी योग्य जीवन साथी के कर्तव्यों का पालन कर सकती है।


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