स्वस्थता और रोग हम स्वयं ही बुलाते हैं!

December 1992

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शरीर की निरोगता एवं बलिष्ठता के लिए मोटी दृष्टि पौष्टिक आहार या औषधि उपचार पर जाती है। बीमार होने पर लोग चिकित्सकों की शरण में दौड़ते हैं, मानो रोगों को बुलाने-भगाने की ठेकेदारी उन्हीं ने हथिया रखी हो। वे चिकित्सक और नुस्खे बदलते, अपना पैसा समय गँवाते रहते हैं पर बीमारी टस से मस नहीं होती। ऐसे जीर्ण रोगियों की भारी संख्या हम अपने इर्द गिर्द ही गिन सकते हैं। यही बात पौष्टिक आहार के स्वास्थ्य संवर्धन के सम्बन्ध में है। अमीर लोग आम तौर से ऐसा भोजन करते हैं जिसे असंदिग्ध रूप से पौष्टिक कहा जा सकता है कैमिस्टों की दुकानें टॉनिकों की बोतलों और पौष्टिक खाद्यों के डिब्बों से भरी रहती हैं। विटामिन, मिनिरल तथा दूसरी ताकत की गोलियाँ खूब बिकती खपती हैं। पर इन्हें सेवन करने वालों में से किसकी कितनी तंदुरुस्ती बढ़ी यह खोजने पर निराशा ही हाथ लगती है। यदि उनमें कोई तथ्य रहा होता तो उनका तथा उनके परिवार वालों का शरीर सर्वथा निरोग पाया जाता, यदि वे दूसरों के रोग भगा सकने में समर्थ हैं तो अपने तथा घर वालों के शरीरों को क्यों रुग्ण रहने देते?

इसी प्रकार यदि पौष्टिक खाद्यों से बलिष्ठता मिली होती तो गरीबों की बात छोड़ भी दी जाय तो कम से कम अमीर लोग तो पहलवान स्तर के रहे ही होते। उन्हें किस आहार की कमी है? वे पौष्टिक ही खाते हैं और खा सकते हैं। ऐसी दशा में उन्हें क्यों दुर्बल रहना चाहिए? पुष्टाई की दवा बेचने वाले कैमिस्ट एवं निर्माता तो बलवान रहने ही चाहिए थे। च्यवनप्राश, शिलाजीत,

मकरध्वज आदि बनाने वाले तथा उनका आकाश पाताल जैसा विज्ञापन करने वालों को जरा-जीर्णता का कष्ट क्यों भोगना पड़ता? यह लोग तो इन पौष्टिकों का उपयोग कर फिर यौवन का लाभ ले ही सकते थे। पर ऐसा होता कहाँ है? आरोग्य की आकाँक्षा के लिए कैमिस्टों और चिकित्सकों के पीछे दौड़ने में मृग तृष्णा जैसी भ्रान्ति के अतिरिक्त और कुसार नहीं है। मानवी मस्तिष्क पर छाये हुए अगणित अन्ध विश्वासों में अपने किस्म का यह एक बहुत ही भोंड़ा किन्तु अतीव व्यापक अन्ध विश्वास है कि स्वास्थ्य संवर्धन में पौष्टिक खाद्यों और रोग निवारण में औषधियों का आश्रय लेने से काम चल सकता है। इनका आपत्ति काल में उपयोग तो किया जाता है, और होता भी रहेगा किंतु इसका प्रभाव तात्कालिक एवं स्वल्प है। वह इतना नहीं है जिसके आधार पर दुर्बलता हटाने और रुग्णता मिटाने के लिए निश्चिंत रहा जा सके।

अव्यवस्था फैलाई जाती है उसी से ईश्वर प्रदत्त स्वास्थ्य सम्पदा को आघात पहुँचता है और दुर्बलता एवं रुग्णता घेरती है। जब वे विकृतियाँ पल्ले बँधी रहेंगी तब तक स्वास्थ्य समस्या के समाधान का कोई मार्ग नहीं मिल सकता। यदि असंयम पर-वासना और लिप्सा पर नियन्त्रण स्थापित किया जा सके, सुसंयत जीवन क्रम अपनाया जा सके तो उस परिवर्तन का प्रभाव सहज ही स्वास्थ्य सुधार के रूप में देखा जा सकता है। रुग्णता तो असंयम की प्रतिक्रिया भर है।

यदि दृढ़ता पूर्वक अपने आहार विहार का निर्धारण किया जा सके और उस पर आरुढ़ रहा जा सके तो रुग्णता की जड़ें अपने आप सूखती चली जायेंगी और बिना चिकित्सा उपचार के भी निरोग बना जा सकेगा।

हकीम लुकमान कहते थे कि मनुष्य समय से पहले मरने और गढ़ने के लिए अपनी कब्र अपनी जीभ से खुद खोदता है। इसका तात्पर्य यह था कि चटोरेपन के वशीभूत जिह्वा अनुपयोगी पदार्थों को अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ कराती है और जीवन मरण का संकट उत्पन्न करती है।

कितने ही व्यक्ति आरम्भिक जीवन काल में दुर्बल और रुग्ण रहने लगे थे पर उनने जब जब अपने निर्वाहक्रम को नये सिरे से सुधरा हुआ निर्धारण किया तो स्थिति बदली और दुर्बलता सशक्तता में परिणत हो गई। हिन्द केशरी चन्दगीराम पहलवान उठती उम्र में क्षय ग्रसित हो गये थे और अकाल मृत्यु के मुख में जाने वाले थे। इस स्थिति से छूटने के लिए उन्होंने साहस-पूर्वक अपनी जीवन यापन प्रक्रिया में मौलिक अन्तर किया और उस परिवर्तन के प्रभाव से न केवल बीमारी से छूटे वरन् बलिष्ठ पहलवानों की पंक्ति में जा विराजे। विश्व विख्यात पहलवान सेन्डो भी आरम्भ में ऐसे ही दुर्बल थे। वे एक बार किसी प्रदर्शनी में गये और पुष्ट पहलवानों के सुदृढ़ शरीरों को देखा। उनने ललचाई आँखों से अपने पिता से पूछा- “क्या ऐसा ही शरीर बना सकना मेरे लिए सम्भव हो सकता है,” पिता ने सुनिश्चित उत्तर दिया आहार विहार की रीति नीति को सही बनाने वाला

हर व्यक्ति सुदृढ़ स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है। सेन्डो ने क्या करना चाहिए यह पूछा और जो बताया गया था उसी दृढ़तापूर्वक क्रियान्वित करने में जुट गया। फलतः स्वास्थ्य सुधरा और वे विश्व विख्यात पहलवान बने।

गान्धी जी जिन दिनों दक्षिण अफ्रीका में थे उन दिनों उनका पेट बुरी तरह खराब रहता था। कब्ज निवारण के लिए एनीमा का सहारा लेना पड़ता था। लगता था वे बहुत दिन न जी सकेंगे। स्थिति को बदलने के लिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक स्वास्थ्य के नियम अपनाये।प्राकृतिक जीवन - चर्या की राह अपनाई और लम्बा जीवन जिया।वे 120 वर्ष जीवित रहने की तैयारी कर रहे थे। दुर्घटना उन्हें उठा न ले गई होती तो संभवतः वे उतने दिनों जी भी लेते। 36 वर्ष की आयु में अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर उन्होंने अपनी जीवनी शक्ति में अद्भुत अभिवृद्धि की ओर उस ओजस के बल पर उभर कर महामानवों की अग्रिम पंक्ति में पहुँच सके।

लोकमान्य तिलक भी बचपन में बहुत दुर्बल और बीमार रहते थे उनने भी अपना स्वास्थ्य सुधारने का उत्तरदायित्व स्वयं सम्भाला। आहार विहार में दृढ़ता पूर्वक सुव्यवस्था का समावेश किया और बलिष्ठता का उपहार प्राप्त किया, ऐसे असंख्य उदाहरण सर्वत्र मिल सकते हैं जिनमें नियमित और व्यवस्थित जीवन चर्या अपनाने वालों ने स्वास्थ्य संवर्धन में सफलता पाई और कायाकल्प जैसा उदाहरण प्रस्तुत किया है।

प्राचीन काल के हनुमान, भीष्म, जैसे ब्रह्मचर्य पालनकर्ताओं के उदाहरण मौजूद हैं, ऋषि मुनि वन प्रदेश में रहते थे और वहाँ की स्थिति में कष्ट साध्य अभाव-ग्रस्त जीवन यापन करते थे तो भी संयम के प्रभाव से उन्होंने सुदृढ़ दीर्घजीवन का सुख भोगा। स्वामी दयानन्द की बलिष्ठता प्रसिद्ध है। उन्होंने एक बार दो मजबूत सांडों को आपस में लड़ते हुए देख कर रोका था। दोनों के सींग पकड़ कर उन्हें बल पूर्वक हटाया और पीछे धकेल दिया। बग्घी को पकड़ कर घोड़ों के हजार प्रयत्न करने पर उसे आगे न बढ़ने देने का भी ऐसा ही घटना क्रम है। इसे ब्रह्मचर्य का प्रताप ही कह सकते हैं। वनवासी भील, कोल अभावग्रस्त जीवन यापन करते हैं किन्तु संयमशील रहकर आजीवन बलवान बने रहते है। यदि स्वास्थ्य मर्यादाओं का उल्लंघन न किया जाय तो ईश्वर प्रदत्त सुदृढ़ आरोग्य सहज ही आजीवन अक्षुण्ण बना रह सकता है।

सुकरात से किसी ने पूछा-काम सेवन कितने बार करना चाहिए? उत्तर में उसने कहा-जीवन में एक बार करके उसे जान लेना चाहिए कि इसमें बरबादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। प्रश्नकर्ता इतने संतुष्ट नहीं हुआ और अधिक छूट की बात करने लगा। इस पर सुकरात ने कहा-मन न माने तो वर्ष में एक बार उसे समझा-जाना जा सकता है। इस पर भी उसे संतोष न हुआ तो सुकरात ने कहा-अधिकतम एक महीने में एक बार की बात सोची जा सकती है। प्रश्नकर्ता अधिक के लिए आग्रह करता रहा। इस पर झल्लाकर सुकरात ने कहा-जो मर्जी से करो पर मरने के लिए सिर से कफ़न बाँध कर तैयार रहो। यह बात न केवल काम सेवन पर वरन् सभी इन्द्रिय भोगों पर लागू होती है। यदि उत्पादन से खर्च अधिक किया जाय तो उस अपव्यय के कारण संचित पूँजी चुकेगी और पूंजी चुकने पर दिवालिया बनने की तरह आरोग्य के क्षेत्र में भी खोखलापन सामने खड़ा दिखाई देगा।

किसी बुद्धिमान बाप ने मरते समय अपने बेटों को स्वस्थ और समुचित रहने के लिए तीन शिक्षाएं दीं (1) फूलों की सेज पर सोना (2) मोहन भोग खाना (3) बड़ों के हाथ पैर तोड़ देना। बच्चे इस पहले का कुछ अर्थ न समझ सके। गरीबी के रहते फूलों की सेज पर सोना, मोहन भोग खाना कैसे संभव हो सकता है तथा बड़ों के हाथ पैर तोड़ देने से क्या हाथ लगेगा?

पहेली का अर्थ समझाते हुए बच्चों से कहा। “फूलों की सेज” पर सोने का तात्पर्य यह है कि इतना कठोर परिश्रम किया जाय कि थकान से किसी भी स्थिति में गहरी नींद आ सके। “मोहन भोग” का तात्पर्य है ऐसी कड़ी भूख लगने पर ही कुछ खाया जाय जिसमें रूखी सूखी दाल रोटी मोहन भोग जैसी स्वादिष्ट लगे। “बड़ों के हाथ पैर तोड़ने” का मतलब है कि उनके कामों में हाथ बटाने का सतत् प्रयत्न किया जाय ताकि महत्वपूर्ण कार्यों का अनुभव हो सके और उनकी बारीकियाँ समझ में आ सकें। शारीरिक और मानसिक आरोग्य को अक्षुण्ण रखने तथा बढ़ाने के लिए यह स्वर्णिम सूत्र सदा सबके लिए समान रूप में उपयोगी सिद्ध होते रहेंगे।


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