तृप्ति तुष्टि और शांति

December 1992

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प्रत्येक प्राणी की आवश्यकतायें सीमित है। जीव धारियों की संरचना इस प्रकार हुई है कि इनका कौशल और स्वभाव स्थानीय परिस्थितियोँ और वस्तुओं के साथ ताल मेल बिठाकर तृप्त हो जाता है। अभाव जन्य असंतुष्टि के कारण उनकी मानसिक स्थिति उद्विग्नता ग्रस्त नहीं रहती। शरीरगत क्षुधाएं उचित सीमा तक सरलता पूर्वक पूरी होती रहे तो फिर उस हैरानी की जरूरत नहीं पड़ती, जो चैन से नहीं बैठने देती। मानसिक विकास हर प्राणी का इतना ही हुआ है कि वह साधन जुटाने और आत्मरक्षा की दृष्टि से प्रतिरक्षा की आवश्यक व्यवस्था बनाता रहे। अधिकांश प्राणी यह सब कर भी लेते हैं। यही कारण है कि बचे हुये समय में प्रसन्न मुद्रा में बने रहते हैं और शेष समय विनोद मनोरंजन में कुदकने-फुदकने में यात्रा पर निकलने में खर्च करते हैं। आमतौर से पेट प्रजनन में ही उनकी शारीरिक मानसिक आवश्यकताएं निहित रहती है। स्वार्थों की खींच तान में कभी कभी वे लड़ झगड़ भी बैठते हैं। इसी प्रकार उनका समय पूरा गुजरता है। असमर्थ हो जाने पर उस कचरा शरीर को हिंस्र प्राणी अपना आहार भी बना लेते है। यही है साधारण नियति अधिकांश जीवधारियों की।

मनुष्य की स्थिति कुछ विचित्र है। उसे औचित्य की सीमा में रहना, मर्यादाओं का अनुबंध पालना स्वीकार नहीं। चंचलता उद्विग्नता आपाधापी अहमन्यता दूसरों पर हावी हो जाना जैसा अनावश्यक किन्तु आकर्षक लगने वाले कार्यों में उसकी विशेष रुचि बढ़ी चढ़ी मात्रा में रहती है। यह अतिवाद ही उसे अमर्यादित एवं अनैतिक स्थिति अपनाने के लिये बाधित करता है। यही वह ललक -लिप्सा लालसा है जिसे इच्छित मात्रा में पूरा कर सकने के ले उसका चिन्तन उद्विग्न आकाँक्षाओं से भरा रहता है। जो चाहा गया है। उसका बहुत ही छोटा अंश पुरुषार्थ की सीमा और परिस्थितियों की अनुकूलता को देखते हुए कार्यान्वित हो पाता है। होना तो यह चाहिये कि उसे पूरी करने की सारी विधि व्यवस्थाएं ठीक प्रकार से सम्पन्न होती रह सके। तृष्णा के भड़क जाने पर व्यक्ति की स्थिति अतृप्त उन्मादी जैसी हो जाती है। वह मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। धर्मोन्माद युद्धोन्माद के कारण अनेकानेक दुर्घटनाएं आए दिन घटित होती देखी गयी है। ठीक इसी प्रकार लिप्सा वासना तृष्णा प्रशंसा की पूर्ति के लिये भी लोग इस कदर बेतहाशा भाग दौड़ करते है कि उनका स्वस्थ चिन्तन ही अस्त व्यस्त हो जाता है। हविस के मारे लोग उन्मादियों की तरह स्वार्थ सिद्धि कि लिये उस सीमा तक आगे बढ़ जाते है जहाँ अनाचार के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता। ऐसे व्यक्ति अनर्थ ही सोचते और अनर्थ ही करते है।

संसार में साधन इतने सीमित है कि उन्हें मिल बाँट कर खाते हुये सभी लोग सामान्य स्तर का गुजारा कर सकते है। इस समतावादी आचार पद्धति को अपनाकर सभी लोग चैन से रह सकते हैं। चैन से रहने दे सकते हैं। न आपस में प्रतिद्वंद्वित प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता पड़ सकती है। नहीं ईर्ष्या द्वेष की जरूरत। कुछ आदमियों का बड़ा बनने का मतलब है शेष का गई गुजरी स्थिति में रहने के लिये विवश होना। दीवार उठाने के लिये कहीं मिट्टी खोदनी पड़ती है और गड्ढा बनाना पड़ता है। अमीरों की साधन सुविधा बढ़ी चढ़ी होने का परिणाम दुहरी हानि पहुंचाता है। एक यह कि वैभव का सरंजाम साधारण जनों को आकर्षित करता है। और उसको पाने के लिये वे भी लालायित हो उठते है। पुरुषार्थी पैसा परिस्थिति कौशल हर आदमी नहीं जुटा पाता इसलिये इतने बढ़े चढ़े साधन तो सहज नहीं मिल पाते पर ईर्ष्या द्वेष की आग सहज ही भड़कने लगती हैं जिसे शांत करने के लिये उसे कुछ उपद्रव खड़ा करने की नीचा दिखाने की सूझ सूझती है। इससे उभय पक्षीय आक्रोश उभरता है। इसके अतिरिक्त दूसरी कठिनाई यह है कि जिसे असाधारण सुविधायें मिलने लगती है उसमें अधिक पाने की लिप्सा असाधारण रूप से भड़कती है। जितना वैभव उसे मिल चुका है वह सर्व साधारण की तुलना में कहीं अधिक होने पर भी उसे प्रतीत होता है कि जितना चाहता था उसकी तुलना में कम मिल पाया है। उसे पाने के लिये वह आतुरता में अधिकाधिक पाने के लिये ऐसी क्रिया पद्धति अपनाता है जो समूचे वातावरण विक्षुब्ध कर देती है।

इसलिये वैयक्तिक और सामाजिक सुस्थिरता के लिये आवश्यक है कि हर किसी के मन में ऐसा चिन्तन बोया जाय जो भौतिक ...................अमीरी घटने के साथ गरीबी भी घटेगी। ज्वार उठता है तो समुद्र में उससे सटा हुआ जील का भाग नीचे जाता है जिन जलाशयों में पानी समतल रहता है। उछाल नहीं आता उनका पानी भी स्वच्छ रहता है और जल जन्तु भी प्रसन्नता भरा जीवन यापन करते हैं। यही स्थिति मानव समाज की भी होनी चाहिये। व्यवस्था भी इसी स्तर की बनानी चाहिये कि अमीरी बटोरने का अवसर किसी को न मिले। अन्यथा उनके संपर्क में आने वाले अपने को निर्धन अनुभव करेंगे और उसका कारण अमीरी को समझाते हुये किसी न किसी प्रकार आक्रोश व्यक्त करेंगे। यह आक्रोश कितने स्थानों पर कितने प्रकारों से फूटेगा यह कहा नहीं जा सकता। इसलिये दर्शन धर्म तर्क तथ्य उदाहरण प्रमाण एकत्रित करके लोक चिन्तन को इस प्रकार विनिर्मित किया जाना चाहिये कि किसी की महत्वाकाँक्षा न भड़के। धन की आकाँक्षा एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति है जो आक्रान्ता को तो उद्वेलित करती है साथ ही अपने प्रभाव से उस संपर्क परिकर में रहने वालों को भी प्रभावित किये बिना नहीं रहती।

वित्तेषणा की तरह ही दूसरी महत्वाकाँक्षा है लोकेषणा। लोग अपेक्षाकृत अधिक सम्मान पाना चाहते है प्रतिष्ठा के अधिकाधिक भूखे रहते है। यदि व्यक्ति सद्गुणों और सेवा भावनाओं के आधार पर अपनी गरिमा का परिचय देता है बदलें में कृतज्ञता के रूप में सद्भाव पाता है तो वह उचित है। किन्तु यदि अपनी अमीरी चतुरता या आतंकवादिता -सुन्दरता ठाट बाट आदि दिखाकर ऐसी चेष्टा की गई है कि इस आडम्बर से दूसरों की आंखें चौंधिया जाये और वे तिल का ताड़ समझने लगें तो इस प्रयास के निमित्त रचे गये समस्त जाल जंजाल जादूगरी या बाजीगरी स्तर के होंगे। उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो पर वास्तविकता जल्दी ही प्रकट हो जाता है कि वाहवाही लूटने के लिये ही यह सारा तान बाना बुना गया है। इससे क्षुद्रता प्रकट होती है। और व्यक्ति की सत्ता का अवमूल्यन होता है। प्रसिद्धि लूटने के लिये जो भी आडम्बर रचे जाते है। उन्हें रचनाकार की जादूगरी बाजीगरी कहकर विदूषक स्तर का ठहराया जाता है। क्योंकि ऐसे आडम्बर वही लोग रचते है। शरीर का चेहरे का सौंदर्य बढ़ा चढ़ाकर दिखने के लिये कई महिलाएं अनेकों श्रृंगार साधनों से अपने को अधिक आकर्षक दिखाने का प्रयत्न करती है। इससे कोई अजनबी भर चौंक सकता है। विचारशील आदमी को वस्तु स्थिति समझने में देर नहीं लगती। कलई जल्दी ही धुँधली पड़ जाती है। ढोल की पोल जल्दी ही खुल जाती है। बड़प्पन के लिये उछल कूद करने वाले बेढंग मेंढ़कों की चाल से हर कोई परिचित हो जाता है पदवी प्रतिष्ठा सम्मान पाने के लिये कोई व्यक्ति संस्थाओं के पदाधिकारी बनने के निमित्त लालायित फिरते हैं इसके लिये जोड़ तोड़ बिठाते रहते है। किन्तु इसके लिये जोड़ तोड़ बिठाते रहते है। किन्तु इतना हर किसी को विदित हो जाता है कि यह उथला आदमी है।गंभीरता के साथ विनयशीलता जुड़ी रहनी चाहिये। जो विनम्र विनयशील सुसंस्कृत शालीन नहीं है उसी का अहंकार नामवरी कमाने के लिये शेखी खोरी कराता है। कुछ रिश्वत उपहार देकर प्रलोभनों में बहकाकर अपना प्रयोजन पूरा कराता है। ऐसे लोग आमतौर से उपहासास्पद बनते है। उनकी उद्धतता पग-पग पर पकड़ में आती रहती है। कभी सामने कभी पीछे हंसी उड़ाती रहती है। इससे मुँह के सामने कुछ भी सुन ले सुनाले पर वस्तुतः उसकी यह मनोवृत्ति दर्पण की तरह नंगी हो जाती है। तब शांति के समय वह सोचता है कि यदि विनयशीलता, नम्रता, शालीनता अपनाई गई होती तो सम्मान भी अधिक मिलता और वह चिरस्थायी भी रहता। जिस प्रकार लूट पाट से उड़ाई हुई वस्तु को छिपाकर उपयोग करना पड़ता है, सब के सामने उपयोग करने से बात खुल जाने और पकड़े जाने का भय रहता है। इसी प्रकार प्रशंसा के लिये लालायित व्यक्ति द्वारा रचे गये षडयंत्र कुचक्र हाथों हाथ प्रकट होते जाते है और जो भी वस्तु स्थिति समझ पाते है उन सभी के मन में उनके प्रति तिरस्कार के भाव बढ़ते जाते है।

शास्त्रकारों ने वित्तेषणा लोकेषणा पुत्रेषणा को त्रिविध अनैतिक आवेश कहा है। वे ज्वर पीड़ित की तरह आवेश उन्माद उत्पन्न करते है। इन व्याधियों से ग्रसित व्यक्ति अपने चिन्तन चरित्र व्यवहार और क्रिया कलाप को सज्जनोचित नहीं कर पाता फलतः न उसे सन्तोश मिलता है और अभीष्ट उपलब्धियां सहकार प्राप्त करने का श्रेय सौभाग्य ही। वह अनेक गुने घाटे में जरूर रहता है। चिन्तन को कुचक्र रचकर दूषित करता है। मिथ्याचार की विडम्बना रचकर चरित्र बिगाड़ता है। और उल्लू सीधा करने की फिराक में रहकर व्यवहार को भी भौंड़ा बना लेता है। तीसरी ऐषणा है पुत्रेषणा जिसे बोलचाल की भाषा में कामांधता या परिवार के प्रति कर्तव्य की सीमा में रहकर उन्हीं के लिये विलास वैभव जुटाते रहने और मरते खटते रहने की लालसा भी कह सकते है। समय और सामर्थ्य हर मनुष्य के पास सीमित है। यदि कोई परिवार में अत्यधिक लिप्त हो जाता है उन्हीं के लिये अपनी सारी कमाई लगाता है समय को इसी में खपाता है। चिन्तन पर वह थोड़े लोग ही छाये रहते है तो समझना चाहिये कि जीवन का महत्वपूर्ण अंश इसी जंजाल में नियोजित हो गया। औचित्य की सीमा में रहकर कर्तव्य पालन मात्र से भी काम नहीं चलता।

ऐसी दशा में आत्मोत्कर्ष और लोक मंगल के लिये जिन उत्तरदायित्वों को हाथ में लेना चाहिये था उस संदर्भ में कुछ बन ही नहीं पड़ता। सादा जीवन उच्च विचार का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बंध है। उच्च विचारों को हृदयंगम और कार्यान्वित कर सकना मात्र उन्हीं के लिये संभव है जो अपने निजी जीवन में सादगी का सन्तोश का सद्भावना का समुचित समावेश कर पाते है। जिनके लिये अपने ऊपर इतना नियंत्रण करना कठिन है जो लिप्सा, तृष्णा, वासना, अहंता के उद्धत प्रदर्शन में अनावश्यक प्रयास में ही अपने को खपा देते हैं वे पीछे उसका दुःखद परिणाम सहते हैं।

तृप्ति, तुष्टि और शांति को जीवन की तीन बड़ी उपलब्धियाँ माना गया है। तृप्ति लिप्सा में होती है। लिप्सा का तात्पर्य है शरीर की आवश्यकताएं इन्द्रियजन्य वासनाएं। उनका समाधान औसत नागरिक के स्तर पर अपना काम चलाने वाले विवेक को अपनाने से होता है। अन्यथा चटोरने के कुचक्र में पड़कर लोभ और मोह की रटन्त हर घड़ी लगी रहती है। भलेही उन भोगों का दूरदर्शितापूर्ण उपयोग कर सकने की क्षमता अपने में नहीं ही हो।

तुष्टि सीमित परिवार को सद्गुणी शिष्ट एवं सुसंस्कारी बनाने में होती है। इसके लिये सर्व प्रथम अपने आप को अनुकरणीय उदाहरण बनाना पड़ता है। मर्यादाओं से बाहर का पक्षपात करने अनावश्यक लाड़ दिखाने उत्तराधिकार में विपुल सम्पत्ति छोड़कर मरने की आकाँक्षा अतृप्ति उत्पन्न करती है। इसलिये विश्व परिवार का दृष्टिकोण विकसित करते हुये समूचे समाज को कुटुम्ब मानकर चलना चाहिये। जो छोटा सा अपना परिवार है उसके प्रत्येक सदस्य को स्वावलंबी भर बनाने की बात सोचनी चाहियें। जिनसे इतना बन पड़ता है उन्हें तृप्ति की प्रसन्नता भी अनुभव होती हैं।

शांति उन्हें मिलती है, जिन्हें बड़प्पन बटोरने सस्ती वाहवाही कमाने बड़े पद पर आसीन होने या लोगों की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करके अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ने की अभिलाषा शांत हो जाती है। नम्रता विनयशीलता सज्जनता का स्वभाव बना लेने से ही शांति का आभास होता हैं। अपने दृष्टिकोण स्वभाव और दैनन्दिन कार्य क्रमों को उच्चस्तरीय बना लेने पर कोई भी व्यक्ति प्रचुर परिमाण में तृप्ति,तुष्टि और शांति का अजस्र आनन्द लाभ करता रह सकता।


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