गंगा कैसे बनी भागीरथी

December 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

माँ गंगे अवतरित हो। तुम्हारे बिना कौन इस ताप को मिटाएगा? यह ताप तुम्हारे लाखों लाख पुत्रों को कब से जला रहा है और कब तक जलाता रहेगा? करुणा करो माँ!

भगीरथ प्रार्थना कर रहे थे, किन्तु उसका प्रभाव कुछ दीख नहीं रहा था। माँ के कान क्या बहरे हो गये? करुणा के स्रोत क्या सूख गये? अन्तःकरण से आवाज उठी- नहीं यह सम्भव नहीं। प्रार्थना के साथ प्रयास पुरुषार्थ का पुट चाहिये।

भागीरथ लग गये पुरुषार्थ की साधना में। प्रचण्ड तप की अगाध श्रृंखला चल पड़ी। तन सूख गया प्राण प्रवाह अवरुद्ध होता दिखा पर उसकी चिन्ता किसे .............अन्दर दिव्य करुणा का प्रवाह जो सतत् उफन उमंग रहा था और समय आया कि भगीरथ मौन साधना में रत थे- माँ बुला रही थी वत्स इधर देखो बोलो क्या चाहते हो?

भगीरथ का ध्यान टूटा तन्मयता के तार बिखरे देखा माँ गंगा के अन्तःसलिल में करुणा छलक उठी।..............माँ तुम आ गयी माँ बस.............और क्या चाहिये अब तुम आ गयी माँ बस .............और क्या चाहिये,अब तक कहाँ थी।

मैं तो कब से बुला रही हूँ वत्स! मेरे प्रवाहित होने की शीघ्र व्यवस्था करो।

भगीरथ ने शीश झुकाया, भगवान शंकर ने अनुग्रह किया और गंगा की धारा भूतल पर प्रवाहित हो उठी। शीतलता मृदुता का वेग फूट पड़ा। जन जीवन में आनन्द लहरा उठा। लोग दर्शन मज्जन पान द्वारा विविध दुखों से मुक्ति पा रहे थे। भगीरथ ने देखा दुखित - क्लान्त चेहरों पर उल्लास की आभा खिलने लगी। उनको परम सुख की अनुभूति हुई, रोम रोम पुलकित हो उठा। हर्षातिरेक में नेत्र बन्द हो गये जैसे समाधि लग गयी। लोगों ने उल्लास में भरकर जयघोष किया - बोलो पाप तापनाशिनी माँ भागीरथी की जय।

भागीरथ चौंक पड़े। विस्फोटित नेत्र से चारों ओर देखने लगे। यह कैसा सम्बोधन भागीरथी अर्थात् भगीरथ की पुत्री। माँ के प्रति ऐसा सम्बोधन करने की धृष्टता किसने की क्यों की? पर गंगा मन्द मृदुल मुस्करा रहा थी। भगीरथ के चेहरे पर विस्मय के साथ रोष उभर आया बोले - माँ क्षमा करो, जिसके मुँह से माँ को अपमानित करने वाला यह सम्बोधन निकला है उसे मैं दण्डित करूंगा शाप दे दूँगा। नहीं वत्स! मेरा अपमान कोई नहीं कर सकता न ही कर रहा। तुम शांत रहो। यह तो मेरा यथार्थ सम्मान हो रहा है मेरा अपमान तो अब तक हो रहा था। नासमझ लोग मेरी करुणा को लाँछित करते थे। उन्हें यह नहीं समझ थी कि उसके लिये भी कुछ सीमा मर्यादायें निर्धारित है। उनकी पूर्ति के बिना मेरी करुणा रुद्र भी ओर लोग मेरी भावना को दोष देते थे। आज उन्हें यथार्थ समझ में आया। भागीरथी सम्बोधन के पीछे उस मर्यादा पूर्ति की अनिवार्यता समझ लेने की स्वीकारोक्ति छिपी है। लोगों ने यह समझ इसे स्वीकार किया इससे मुझे सन्तोश है। मुझे यह सम्बोधन स्वीकार है।

भगीरथ कातर हो पुकार उठे माँ यह कैसा अनर्थ पुत्र को पिता सम्बोधन? मुझे तो तुम्हारा वात्सल्य चाहिये ममता चाहिये माँ मुझे यह सब कैसे सहन होगा?

वत्स! विकल मत हो। तुम्हारे लिये तो मैं वही हूँ और मेरा स्नेह उसी रूप में तुम्हें मिलता रहेगा। किन्तु संसार के लिये मैं भागीरथी ही बनकर रहूँगी। पुत्र तुम तपःसिद्ध हो तपोपूत हो। तुम्हारे नाम के साथ तप की भावना और पद्धति की उत्कृष्टता जुड़ी हुई है माँ की करुणा या शिव का अनुग्रह प्रवाहित करने के लिये यह भावनायुक्त तप आवश्यक है अनिवार्य है इस तथ्य को लोग सम्बोधन के सहारे समझेंगे। घटना को तो लोग भुला सकते हैं। ऐसा हुआ तो मेरे साथ पुनः अन्याय हो जायेगा। इस सम्बोधन के साथ जो सिद्धान्त बोलता है वह युगों युगों तक मेरे प्रति जन दृष्टिकोण को शुद्ध बनाये रखेगा और इससे मर्म समझने वालों का हित होता रहेगा।”

गंगा मौन हो गयी और भगीरथ नतमस्तक। न जाने माँ की भावना की महानता के स्मरण से या तप की अदम्य क्षमता देखकर।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles