मनोयोग- कुँजी है, समस्त सफलताओं की

December 1992

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समय का सदुपयोग तब बन पड़ता है जब उसके साथ उत्साह भरा विचार भी जुड़ा हुआ हो। देखा यह जाता है। क्रिया और विचारणा एक साथ धुल मिल कर नहीं चलती।काम हाथ में कुछ है और विचार प्रवाह किसी अन्य दिशा में बह रहा है, ऐसी दशा में काम और विचार परस्पर घुले हुये नहीं रहते। ऐसी दशा में समय जिस प्रयोजन के लिये लगाया जाना चाहिये था लग नहीं पाता। क्षमता दो भागों में बंट जाती है।। फलतः न चिन्तन सही दो भागों में बंट जाती है फलतः न चिन्तन सही हो पाता है और कार्य।समय का नियोजन भी वैसा नहीं हो पाता जैसा होना चाहियें। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी तब तक समय के साथ काम करने वाली दोनों षक्याँ आपस में सामंजस्य न बिठा सकेंगी। यह अधूरापन रह जाने पर काम भार रूप अरुचिकर बना रहता है और उसमें लगाया गया समय सार्थक नहीं हो पाता।

समय का सदुपयोग किसी कार्य के साथ जुड़ने पर ही हो पाता है। निठल्ले बैठे रहने पर समय की बरबादी ही होती रहेगी। भले ही उस समय कल्पना की उड़ाने उड़ते या किसी मनोरंजन में दिल बहलाते रहा जाय। निठल्ले व्यक्ति आलसी प्रमादियों की तरह समय गुजारने के लिये कुछ न कुछ आधार तो ढूंढ़ लेते है फिर भी उसे वक्त की बरबादी ही कहा जायेगा। जिस काम के साथ कोई महत्वपूर्ण उद्देश्य न जुड़ा हो वह रुचिकर नहीं हो सकता। अरुचि के रहते शरीर द्वारा की जा रही हरकतें एक प्रकार से बेगार भुगतने जैसी ही होती है उनमें न काने कुबड़े काम ऐसी ही मनःस्थिति में बन पड़ते है। उनसे न अपने को संतोश होता है ओर न उस निर्माण का उपयोग करने वाले को। इस स्थिति प्रामाणिकता में चार चाँद लगते है। ऐसी दशा में यह नहीं माना जा सकता कि समय का सदुपयोग हुआ। भले ही वह अवधि किसी व्यस्तता के बीच ही क्यों न गुजर गई हो।

कई बार ढर्रे के कामों में ही लगे रहकर समय व्यतीत करना पड़ता है। प्रायः नित्य कर्म नाश्ता काम पर जाना रात घर लौटना और खाकर सो जाना। इसी बीच कुछ समय सुस्ताने और यत्किंचित् मनोरंजन की भी व्यवस्था कर ली जाती है घर खर्च चलाने के लिये भी इसी नियति में परिभ्रमण करना पड़ता है। नवीनता के इच्छित अभिरुचि के कार्य न बन पड़ने पर निजी योजनाओं और महत्वाकांक्षाओं का समावेश नहीं हो पाता। तब मौलिक स्तर पर सोचने योजन बनाने और कार्य करने की गुंजाइश नहीं रहती। देखा गया है कि इस स्थिति को बदलने की गुंजाइश दीखने पर भी इच्छानुसार कुछ कर गुजरने की मनः स्थिति नहीं बनती। अस्तु जैसा कुछ चल रहा है उसी को नियति समझकर स्थितियों के साथ तालमेल बिठा लेते है। आगे की बात सोचने और भविष्य को इच्छानुरूप ढालने की संभावना ने देखकर उस ओर से उदास हो जाते हैं ऐसी दशा में यह किया जाना चाहिये कि अपने निर्धारित कार्यों को ही रुचिकर बनाने के लिये स्थिति को तैयार करना चाहिये और जो कार्य हाथ में है उसे अधिक बारीकी से समझते हुये आधिक सुन्दर और अधिक सुव्यवस्थित बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।

काम छोटा हो या बड़ा उसका स्वरूप कैसा बन पड़ा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके साथ कितनी दिलचस्पी जुड़ी रही, उसमें त्रुटियाँ न रहने देने के लिये कितनी चेष्टा की गई। सर्वांगपूर्ण बनाने के लिये उसे हेतु कितनी तत्परता बरती गई। यदि काम मनोयोगपूर्वक किया गया होगा उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अधिकाधिक अच्छी तरह किया गया होगा तो निश्चय ही वह कृति अलग ही अपनी गौरव गरिमा का परिचय देगी। उसका सौंदर्य अलग से चमकेगा। साधारण होते हुये भी उसे विशेषता भरा देखा जायेगा।

घोंसला कबूतर भी बनाता है और बया पक्षी भी पर दोनों की कृतियाँ में जमीन आसमान जैसा अन्तर रहता है। कबूतर आड़ी टेड़ी लकड़ियाँ रखकर अपने बैठने आराम करने की जगह बना लेता है। उसी में अण्डे देता है। यह कमजोर बनावट हव का तेज झोंका आते ही नीचे गिर पड़ती है। घोंसला उजड़ जाता है और अण्डे जमीन पर गिरकर नष्ट हो जाते है। इसके विपरीत बया चिड़ियाँ शरीर से छोटी होते हुये भी मनोयोगपूर्वक अपना घोंसला बुनती है। साइज के तिनके बिनकर लाती ही और उन्हें सतर्कता पूर्वक एक दूसरे के साथ गूँथती है। आदि मध्य अन्त की बनावट कैसी हो उसमें क्या फर्क रहे इसका ध्यान रखती है फलतः वह निर्माण ऐसा बन पड़ता है मानों किसी कुशल कारीगर ने अपनी समूची कलाकारिता दाँव पर लगाकर उसे बनाया है। उसके भीतर आराम से रहती है। अण्डे बच्चों के लिये हर ऋतु में वहाँ रह सकने की सुविधा प्रदान करती है। कबूतर लापरवाही से किसी प्रकार लकड़ियाँ इकट्ठी करके घोँसले के नाम पर कुछ भी सुगढ़ अनगढ़ बना लेता है पर बया ही अपने घोंसले में संजोई गई कारीगरी की ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती है।

यही बात कंधे पर आये हुये सामान्य कार्यों के ऊपर भी लागू होती है। उनमें नवीनता न हो तो क्या?कोई महत्वाकांक्षी योजना न जुड़ी हुई हो तो क्या? साधारण और हलके काम भी ऐसी विशेषता से सम्पन्न बनाये जा सकते है कि उन्हें अन्यान्य सहकर्मियों की कृतियों के बीच अतिरिक्त श्रेय सम्मान मिल सके।

प्रकाश जिस वस्तु पर भी पड़ता है वह चमकने लगती है अंधेरे में हर वस्तु धुँधली या अदृश्य हो जाती है। आलस्य अपेक्षा अस्त–व्यस्तता ही अंधकार है जिसके कारण हर काम घटिया स्तर का धुँधले जैसा बन जाता है। किंतु उसे यदि प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरे मनोयोग के साथ किया गया है तो उसकी सुघड़ता दूर से ही दिखाई पड़ेगी। इसे करने वाले के बारे पूछताछ की जायगी। आर अनुमान लगाया जायेगा कि यह कोई विचारशील या क्रिया कुशल होना चाहिये। इतनी भर मान्यता बन जाने पर उस व्यक्ति को ऊंचे दर्जे के काम सौंपे जाते है। लोग उसकी इज्जत करते है और चाहते है कि उसका सहयोग लें या अपना सहयोग उसे प्रदान करें। इसी आधार पर एक से दूसरी सीढ़ी पार कर ऊंचे चढ़ते जाना संभव होता रहता है। काम को किसी तरह निपटाने वालों के सम्बन्ध में यही समझा जाता है कि यह श्रमिक स्तर का प्राणी है। खेती में काम करने वाले बैल या बोझा ढोने वाले गधे की तरह किसी प्रकार अपनी बला टालता रहता है। उत्साह के अभाव में कोई काम न तो जल्दी हो पाता है और न उसमें विशेषता उभर पाती है सामान्य मनोयोग वाला व्यक्ति अपने स्तर और जीवन को घटिया ही बनाये रहता है। वह दिन तो किसी प्रकार गुजार लेता है पर ऐसा प्रकार गुजार लेता है पर ऐसा अवसर पाने से वंचित ही रहता है जिसमें प्रगति हो सके और प्रशंसा मिल सके।

जिन्हें स्वतंत्र बुद्धि से किये जाने योग्य स्वतंत्र व्यवसाय या व्यवस्था के काम हाथ लगते है वे अपने निर्मा में अधिक कुशलता का समावेश करके अन्यों की तुलना में बढ़चढ़ कर प्रतिस्पर्धा कर सकते है। उपभोक्ताओं का ध्यान अपनी ओर अधिक आकर्षित कर सकते है। जिस वस्तु को प्रामाणिक और सही पाया जायेगा। उसकी माँग अन्य सस्ती वस्तुओं की तुलना में कही अधिक रहेगा। यह नहीं सोचा जाना चाहिये कि मात्र वस्तु के सस्ते होने के कारण ही उसके अधिक ग्राहक होते है। उन लोगों की भी कमी नहीं जा अच्छी टिकाऊ और सुन्दर वस्तु चाहते है भले ही उसका मूल्य अधिक ही क्यों न देना पड़े। स्थायी ग्राहक इसी आधार पर मिलते है।

अच्छी वस्तुएं अच्छी सामान से बनती है यह ठीक है। पर इससे भी अधिक ठीक बात यह है कि उनके साथ कुशल कारीगरों का अनुभव और मनोयोग भी जुड़ा होता है। इन सबसे बड़ी बात है व्यवस्थापक की सूक्ष्म बुद्धि जिसके आधार पर कहीं कोई भूल नहीं रहने दी जाती और अपनी कृति के अधिकाधिक सुन्दर सुनियोजित सर्वांग सुन्दर बनाने की कोशिश की जाती है।

व्यक्तित्व के धनी ही अपने-अपने क्षेत्रों का नेतृत्व करते देखे जाते हैं। राजनीतिक सामाजिक आर्थिक पारिवारिक वैज्ञानिक कलाकारिता जैसे क्षेत्रों में बाजी वे मारते हैं जिनने अपनी प्रती को बढ़ाया और उसे सही अवसर सही काम में लगाया। किसी भी क्षेत्र के मूर्धन्य लोगों को देखा जाय वे सामान्य से असामान्य स्तर तक इसी आधार पर पहुँचे हैं कि उन्होंने निर्धारित प्रयोजनों में अधिकाधिक समय समूचे मनोयोग और पूरे उत्साह के साथ लगाया। यदि उनने बेगार भुगतने की तरह किसी प्रकार अपने कामों को निपटाया होता कुछ खुद किया कुछ दूसरों पर छोड़ा तो निश्चय ही प्रतिस्पर्धा में आगे निकल सकने का सुयोग कभी सामने न आता।

एक ही स्थिति में पैदा हुये एक जैसे साधनों वाले व्यक्तियों में से कुछ तेजी से आगे बढ़ते और ऊंचे उठते देखे जाते है जबकि उनके दूसरे साथी उसी गई गुजरी दशा में दिन बिताते रहते है। उठने वालों उठाने में सभी सहायता करते है जबकि यथा स्थिति यथा स्थिति में गुजर करने वालों को देखकर लोग मुंह मोड़ लेते है और उन्हें घटिया मान कर चल देते है। न कोई उन्हें साथ लेते है ओर न सहयोग देता है। सहयोग न मिलने की सुयोग हाथ न आने की शिकायतें तो कई लोग करते है पर यह भूल जाते है कि अपने व्यक्तित्व और कर्तव्य में कही कई ऐसी कमी रह रही है जिसके कारण बढ़ी सफलताओं के सुयोग हाथ नहीं आता। जब तक अपनी विशेषताओं को उभारा न जायेगा तब तक प्रतिस्पर्धा के आधार पर चल रहे इस संसार में किसी को भी महत्वपूर्ण प्रगति कर सकने का सुयोग हाथ नहीं लग सकता।

सद्गुणों की संख्या अनेकों में है वे सभी अपने अपने स्थान पर उपयोगी और चमत्कारी है। पर इन सब में समय का सदुपयोग सभी से बढ़ा चढ़ा है। उसे अपनाने पर मन को वश में रखने का लाभ मिलता है। कुमार्ग अपनाने के लिये अवसर अवकाश ही नहीं मिलता। यह बड़ा लाभ है। मन यदि भटके नहीं कुमार्ग पर कदम बढ़े नहीं तो समझना चाहिये कि श्रेय साधना का लक्ष्य हस्तगत हो गया।

इसका सीधा सा उपाय यह है कि अपने समय को सुनियोजित किसी काम में लगाये रहा जाय। साथ ही उसमें पूरा मनोयोग नियोजित रखा जाय। रुचि ली जाय तो वही कार्य जो पहले रूखा प्रतीत होता था पीछे मनोरंजक ज्ञानवर्धक और सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक सिद्ध होगा।


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