आत्म प्रताड़ना-सबसे बड़ा दण्ड

December 1992

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समाज में अपने ऊपर सर्वत्र बरसने वाली घृणा एक भारी सजा है। भोजन, वस्त्र, ऐश, आराम, जमीन, जायदाद, भोग-विलास छोटे दर्जे की चीजें हैं। समाज का सम्मान, इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण और आनन्द-दायक हैं। व्यक्ति गरीब रहकर यदि अपने चरित्र की रक्षा करता हुआ श्रद्धा और सम्मान का अनुकरणीय आदर्श जीवन व्यतीत करे तो उसे अपेक्षाकृत अधिक आनन्द मिलेगा। जिसके ऊपर सर्वत्र घृणा बरसती है, जिसे गुण्डा, उद्दण्ड, पापी और कुकर्मी माना जाता है कितनी ही कमाई कर ले, कितना ऐशो−आराम कर ले, एक निकृष्ट पतित और क्षुद्र व्यक्ति की तरह सदा नीची आँखें ही किये रहेगा। उसके लिए किसी स्वजन-परिजन की आँखों में सच्ची श्रद्धा और सच्ची सहानुभूति की एक बूँद भी न मिलेगी। ऐसा अतृप्त और असफल जीवन लेकर भी अनीतिवान व्यक्ति यदि अपने को सफल और बुद्धिमान मानें तो यह उसकी नासमझी ही कही जायेगी।

सब से बड़ा दंड आत्म-प्रताड़ना का है। अनीति के मार्ग पर चलने वाले को उसकी अन्तरात्मा निरन्तर धिक्कारती रहती है। मानव जीवन सत्कर्मों द्वारा स्वयं शांति पाने और दूसरों को सुख देने के लिए मिला है। इसी में उसकी सफलता भी है। पर यदि उसके द्वारा दूसरों का अहित होता है और अपने को आत्म-प्रताड़ना की अशांति भोगनी पड़ती है तो यही कहना होगा कि नर तन प्राप्त होने का एक अमूल्य अवसर व्यर्थ ही हाथ से चला गया।

संसार का इतिहास साक्षी है कि सन्मार्ग को छोड़कर जिसने कुमार्ग को अपनाया है, नीति को परित्याग कर अनीति को पसन्द किया है वह सदा क्षुद्र, पतित और घृणित ही रहा है। उसके द्वारा इस संसार में शोक सन्ताप, क्लेश और द्वेष ही बढ़ा है शूल-हुलते रहने वाले काँटे तो यहाँ पहले से ही बहुत थे। अपना जीवन भी यदि उन्हीं पतितों की संख्या बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ तो इसमें क्या भलाई हुई क्या समझदारी? तृष्णा और वासना की क्षणिक पूर्ति करके यदि आत्मप्रताड़ना का, नारकीय यन्त्रणा का, लोकमत की लानत का अभिशाप पाया तो इसमें क्या अच्छाई समझी गई।

अनीति का मार्ग का मार्ग असफलता की कटीली झाड़ियों में फँसा कर हमारे जीवनोद्देश्य को ही नष्ट कर देता है। हम पगडंडियों पर न चलें। राजमार्ग को ही अपनावें। देर में सही, थोड़ी सही, पर जो सफलता मिलेगी वह स्थायी भी होगी और शांतिदायक भी। पाप का प्रलोभन आरम्भ में ही मधुर लगता है पर अन्त तो उसका हलाहल की भाँति कटु है। साँप और बिच्छू दूर से देखने में सुन्दर लगते हैं पर उनका दंशन प्राण घातक वेदना ही प्रदान करता है। पाप भी लगभग ऐसा ही है वह भले ही सुन्दर दीखे, लाभदायक प्रतीत हो, पर अन्ततः वह अनर्थ ही सिद्ध होगा। जीवन जीने की कला का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि हम पाप के प्रलोभनों से बचें और सन्मार्ग के राजपथ का कभी परित्याग न करें।

जीवन एक वन है साधारण नहीं सघन, सुरम्य ही नहीं, कँटीली झाड़ियों से भरा हुआ भी। इसे ठीक तरह पार करना काफी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता द्वारा ही सम्भव है। सदाचार और धर्म की सीधी सड़क इसे पार करने के लिए बनी हुई है। उस पर चलते हुए लक्ष्य तक पहुँचना समय साध्य तो है पर जोखिम उसमें नहीं है। इतनी बात न समझ कर जल्दबाज लोग पगडंडियाँ ढूँढ़ते हैं, जहाँ-तहाँ उन्हें वे दीखती भी हैं। बेचारों को यह पता नहीं होता कि यह अन्त तक नहीं पहुँचती, बीच में ही विश्वासघाती मित्र की तरह रास्ता छोड़ देती है और जल्दी काम बनने का लालच दिखाकर ऐसे दलदल में फँसा देती है जहाँ से वापस लौटना भी आसान नहीं रहता।

अनीति पर चलकर जल्दी काम बना लेने और अधिक कमा लेने का लालच एक छोटी सीमा तक ही ठीक सिद्ध होता है। आगे चलकर तो उसमें भारी विपत्तियाँ आती हैं। आरम्भ में कई बात लाभ-दायक ही बुद्धिमान लोग उस आरम्भिक लालच को स्वीकार नहीं करते हैं। जहाँ अन्ततः जोखिम दीखती है, समझदार लोग उससे दूर ही रहते हैं। वे जानते हैं कि विनाश आरम्भ में आकर्षक ही लगता है। पाप के साथ आरम्भिक प्रलोभनों की एक लालच भरी गुदगुदी जुड़ी रहती है उसी से तो मूर्खों को जाल में फँसाया जाता है। शैतान का नुकीला पंजा रेशम की टोपी से ढँका रहता है। मछली को पकड़ने वाली डोरी पर जरा सा आटा लगा रहता है। चिड़ियों को पकड़ने वाले जाल के आस-पास अनाज के दाने फैले होते हैं इस आरम्भिक लालच की व्यर्थता न समझ पाने के कारण ही तो मछली और चिड़िया अपना जीवन संकट में डालती हैं।

पाप और अनीति का मार्ग ऐसा ही है जैसा सघन वन की पगडंडियों पर चलना। ऐसा ही है जैसा मछली का काँटे समेत आटा निगलना और जाल में पड़े हुए दानों के लिए चिड़ियों की तरह आगा-पीछा न सोचना। अभीष्ट कामनाओं की जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक मात्रा में पूर्ति हो जाये इस लालच से लोग वह काम करना चाहते हैं जो तुरन्त सफलता की मंजिल तक पहुँचा दे। जल्दी और अधिकता दोनों ही बातें अच्छी हैं पर यदि उनके लिए यात्रा उद्देश्य ही नष्ट होता हो तब उन्हें बुद्धिमत्ता नहीं माना जायगा।

चोरी, बेईमानी, झूठ, छल, विश्वासघात, अनीति, अपहरण, पाप, व्यभिचार आदि को आरम्भ करते समय यही सोचा जाता है कि एक बढ़िया लाभ तुरन्त प्राप्त होगा। ईमानदारी के राज मार्ग पर चलते हुए मंजिल देर में पूरी होती है, उसमें सीमा और मर्यादाओं का भी सीमा बन्धन है। पर पाप मार्ग में चलते हुए ऐसा लगता है कि मनमाना लोगों को ठगने से, कमजोरों को डराने से, सहज ही बड़ा लाभ कमाया जा सकता है। अशक्त से उनकी वस्तुएं छीन लेना थोड़ी सी चालाकी से ही सुगम हो जाता है। लोगों से भरपूर अनुचित लाभ उठाया जा सकता है। सोचने से यह प्रतीत होता है कि अनीति का मार्ग अपना लेने में कोई हर्ज नहीं। कितने ही ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं कि अमुक व्यक्तियों ने अनीति का मार्ग अपनाया और जल्दी ही बहुत लाभ कमा लिया। फिर हम भी ऐसा ही क्यों न करें?

आरम्भिक लाभ को ही सब कुछ समझने वाले लोग मछली, चिड़ियों और पगडंडी पर दौड़ पड़ने वाले की अपेक्षा अपने को अधिक बुद्धिमान मानते हैं और अपनी चतुरता पर गर्व भी करते हैं पर जल्द ही स्पष्ट हो जाता है कि जैसा सोचा गया था वस्तुतः वैसी बात नहीं है। पाप का दुष्परिणाम आज नहीं तो कल सामने आने ही वाला है। पारा खाकर उसे कोई हजम नहीं कर सकता, वह देर-सवेर में शरीर को फोड़कर बाहर ही निकलता है। इसी प्रकार पाप भी कभी पचता नहीं। हो सकता है कि आज फल न मिले पर कल तो वह मिलने ही वाला है। इस संसार में अनेकों यातनाओं से ग्रसित व्यक्ति देखे जाते हैं यदि उन पर ध्यान दिया जाय तो सहज ही जाना जा सकता है कि व्यथा और असफलता भी यहाँ कम नहीं हैं कुमार्ग पर चलते हुए सामयिक सफलता सदा ही मिलती रहे ऐसी कोई बात नहीं, दण्ड का यहाँ समुचित विधि-विधान मौजूद है।

वस्तुतः आत्म प्रताड़ना सबसे बड़ा दण्ड है। जिस व्यक्ति की आत्मा भीतर ही भीतर उसके दुष्कर्मों एवं कुविचारों के लिए कचोटती रहती है, जिसे कुमार्ग पर चलने के कारण आत्मा धिक्कारती रहती है, वह अपनी दृष्टि में आप ही पतित होता है। पतित अन्तरात्मा वाला व्यक्ति उन शक्तियों को खो बैठता है जिनके आधार पर वास्तविक उत्थान का समारम्भ सम्भव होता है। हम ऊँचे उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं इसकी एक ही परीक्षा, कसौटी है कि अपनी आँखों में हमारा अपना मूल्य घट रहा है या बढ़ रहा है। आत्म-संतोष जिसे नहीं रहता, जो अपनी वर्तमान गतिविधियों पर खिन्न एवं असंतुष्ट है उसे उन्नतिशील नहीं कहा जा सकता। जिसने अपनी आन्तरिक शांति कहाँ मिलने वाली है? धन कमा लेने से, कोई ऊँचा पद प्राप्त कर लेने से, कई प्रकार के सुख साधन खरीदे जा सकते हैं, पर उनसे आत्मसंतोष कहाँ मिल पाता है?

मनुष्य की महान विचार शक्ति का यदि थोड़ा सा ही भाग आत्मसन्तोष के साधन ढूँढ़ने, और आत्म-शांति के मार्ग खोजने में लगे तो उसे वह रास्ता बड़ी आसानी से मिल सकता है जिस पर चलना आरम्भ करते ही उसका हर कदम आत्मिक-उल्लास का रसास्वादन कराने लगे। संसार की सम्पदा भी तो लोग सन्तोष प्राप्त करने के लिए ही कमाया करते हैं फिर उस क्षणिक एवं तुच्छ सन्तोष की अपेक्षा यदि चिरस्थायी आत्मशांति उपलब्ध करने का अवसर जिसे मिल रहा होगा वह उल्लास, उत्साह और प्रफुल्लता का अनुभव क्यों न करेगा?


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