प्रकृति -मर्यादाओं से परे है, मानवी चेतना

December 1992

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मानवीय क्षमता असीम और अप्रत्याशित है। चेतना के क्षेत्र में उसकी बराबरी अन्य कोई दूसरा प्राणी नहीं कर सकता। अन्यान्य प्राणी प्रकृति के नियमों में रहते हुये ही अपना जीवन क्रम चलाते है किन्तु मनुष्य प्रकृति के अनुशासन में रहे तो उससे लाभ भी उठा सकता है और उल्लंघन करता है तो उसे हानि भी उठानी पड़ती है। वह लाभ उठाये अथवा दण्ड सहे, यह उसकी अपनी इच्छा की बात है। यह छूट उसे अपनी चेतना का स्वतः विकास करने के लिये मिली है।यदि मनुष्य इस दिशा में कुछ साधनात्मक कदम उठाता है तो वह अपने प्रभाव से प्रकृति को अपने नियम बदलने के लिये बाध्य भी कर सकता है।

इस संभावना को मानव के लिये वरदान कहा जा सकता है कि वह अपनी चेतना की शक्ति को किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिये स्वतंत्र है। प्रख्यात मनःशास्त्री विक्टर ई. क्रोमर का इस संदर्भ में कहना है कि यदि व्यक्ति अपनी मानसिक चेतना को केन्द्रित या घनीभूत करने की कला में प्रवीण हो जाय तो न केवल व्यक्तित्व को उस प्रयोग से उच्चस्तरीय प्रबल और प्रखर बनाया जा सकता है वरन् प्रकृति के नियमों को भी बदला और उन्हें वशवर्ती बनाया जा सकता है।

इस तथ्य को प्रामाणित करने के लिये क्रोमर ने दक्षिण जापान के बौद्ध मंदिरों में किये जाने वाले एक विशिष्ट धर्मानुष्ठान का उदाहरण दिया है। जापान में बौद्ध धर्म की एक शाखा है जिसके अनुयायी जेन नामक ध्यानयोग पर बहुत आस्था रखते है। यह आस्था इस हद तक दृढ़ रहती है कि उन्हें कठिन तितिक्षाओं से होने वाले कष्टों का भी अनुभव नहीं होता। इतना ही नहीं उनके शरीर पर इन कष्टों का कोई प्रभाव भी नहीं पड़ता। यह तो हो सकता है कि मनुष्य का ध्यान किसी और दिशा में केन्द्रित हो और उसे अपने शरीर पर उसका प्रभाव तो पड़ता ही है। लेकिन इन मन्दिरों में होने वाले धर्मानुष्ठानों ऐसी कोई बात नहीं होती और प्रकृति के नियम अपवाद बन जाते है। उनके मन्दिरों में जब जेन साधक छह फुट लम्बी दहकते हुये कोयलों से सजायी गयी वेदी पर नंगे पैर नाचते हुये पार करते है तो आग से जलने का अनुभव तो दूर रहा उनके पैरों में झुलसन तक नहीं होती। दहकता हुआ अग्निकुण्ड जिसकी आँच आस पास खड़े लोगों को भी लगती है उन साधकों के लिये ठण्डी राख के समान हो जाती है।

क्रोमर के अनुसार मलेशिया के कई क्षेत्रों में भी इस प्रकार के धर्मानुष्ठान प्रचलित है। आग का स्वभाव है जलना फिर क्या कारण है कि वह इन धर्मानुष्ठानों में अपना नियम बदल देती है। और वह भी केवल उन व्यक्तियोँ के लिये जो चेतना के क्षेत्र में अन्य व्यक्तियों से उन्नत समझे जाते है।

भारतीय तत्वदर्शियों का कथन है कि जड़ प्रकृति ही गुणमयी है और इस कारण नियम विशेष के अंतर्गत अपना काम करती है। चेतना का जो अंश जहाँ जितना विकसित होगा, वहाँ इन जड़ नियमों के अपवाद देखे जा सकते है। पत्थर जड़ है अपने स्थान से बिना हटाये नहीं हटेगा, परन्तु प्राणी स्वेच्छा से कही भी आ जा सकते है। बर्फ शीतल है और तप्त बालू गर्मी से अपनी इच्छा से गरम या ठण्डी नहीं हो सकती पर मनुष्य के संपर्क में आते ही वह उन्हें इच्छानुसार पिघला सकता है या ठण्डा कर सकता है।

मनुष्येत्तर जीव जन्तु भी अपनी सीमा में रहते हुए स्थान परिवर्तन, परिस्थितियों के अनुरूप अपना परिवर्तन आदि सम्पन्न कर लेते है। परन्तु उनकी चेतना मनुष्य की अपेक्षा कम विकसित है इसलिये उन्हें भी कुछ मर्यादाओं का पालन करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। यह छूट केवल मानव कोही मिली है कि वह इच्छित दिशा में विकास करने के लिये इन नियमों का अतिक्रमण कर दे और अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करता हुआ प्राप्त क्षमताओं का मनुष्य समाज के हित में अधिकाधिक सदुपयोग करें। उन्नत और परिष्कृत व्यक्तित्व न केवल अपने आस पास की प्रतिकूलताओं को निरस्त कर देते है वरन् ऐसे ऐसे कार्य भी कर दिखाते है जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है।

चमत्कार कोई करतब आदि नहीं वरन् व्यक्ति को अपनी आस्था संकल्प और निष्ठा के बल पर प्रकृति को अपने नियंत्रण में करने की ही फलश्रुति मात्र है।

प्राणि विज्ञानियों का कहना है कि विषधर सर्प महाक्रोधी और स्नेहशून्य होते हैं। वे छेड़ने वाले को डसने ओर उसका प्राणहरण करने में जरा भी विलम्ब नहीं करते परन्तु आस्था एवं संकल्प के बबील विषधर प्राणियों को भी अपना परम सहयोगी और विश्वस्त बनाया जा सकता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डी.एच. लारेन्स ने अपनी मैक्सिको यात्रा का सचित्र विवरण प्रकाशित करते हुये उस देश के रेड इंडियनों के सर्प प्रेम की चर्चा की है और बताया है कि वहाँ के लोग किस प्रकार वर्ष में एक बार मिलकर सर्प पूजा का अनुष्ठान करते है।

यह सर्प अनुष्ठान मैक्सिको के नवाजों प्रान्त के कारिजोना से सत्तर मील दूर स्थित वार्स्य गाँव में होता है। निर्धारित तिथि पर एकत्रित होने के ले होपी कबीले के पुरोहित साँपों को निमंत्रण देने उनके बिलों पर जाते है और उनसे मंत्रोच्चार पूर्वक अनुरोध करते है। यह काम साल भर तक चलता है ओर आश्चर्य यह कि जिन साँपों को निमंत्रण दिया जाता है वे निमंत्रण स्वीकार कर निर्धारित तिथि पर उत्सव में आते भी है। इस कबीले के लोग साँप को सूर्य देवता का विशेष प्रतिनिधि मानते हैं और इस पूजा समारोह में आमंत्रित कर उनकी प्रसन्नता प्राप्ति की आशा करते हैं। पूजा का यह उत्सव नियत स्थान पर नियत तिथि को आयोजित होता है।

इस समारोह में प्रधान भूमिका निभाने वाले याचक नौ दिन पहल से ही उपवास करना आरंभ कर देते है। निर्धारित समय पर वे एकत्रित होकर अपनी विचित्र वेषभूषा में सर्पनृत्य करते हैं। पत्तों से ढके गड्ढे में न जाने कितने सर्प कब से छिपे बैठे रहते है। अनुष्ठानकर्ता मंत्रोच्चार करते हुये उन्हें पकड़ लाते हैं और गले में पहनकर या शरीर से लिपटाकर विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करते हैं साथ ही सर्प भी अपने अंगों को हिलाते डुलाते हुये आयोजनों में भाग लेने वाले याजकों की तरह रुचि तथा प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।

अनुष्ठान जब पूरा हो जाता है तो याजक आमंत्रित साँपों को स्वागत सत्कार के साथ विदा कर देते है तथा अगले आयोजन में फिर आने को निमंत्रण देते है। लारेन्स ने अपनी कृति में लिखा है कि मैंने इस तरह के कई सर्प अनुष्ठान देखे। विचित्र और अविश्वसनीय होने के कारण मैं उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखता रहा तथा यह जानने का पूरा प्रयास किया कि इसका रहस्य क्या है? लेकिन फ्रॉड या चालाकी जैसी कोई बात देखने नहीं आयी।

इस प्रश्न का उत्तर अध्यात्म विज्ञान के पास है कि मनुष्य चाहे तो अपनी संकल्पशक्ति एवं आत्मबल को इतना विकसित कर सकता है कि वह किसी भी भयंकर से भयंकर हिंस्र और विषैले से विषैले प्राणी के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। आखिर उन प्राणियों से भी तो प्रेम सद्भाव होता है। प्रेम सद्भाव न सही वे उनके साथ सहजीवन तो व्यतीत करते ही है।

मनीषियों का कहना है कि रूप गुण आकृति और प्रकृति में भिन्न होते हुये भी सभी प्राणियों में एक ही चेतन सत्ता विद्यमान है। इस तथ्य को समझ लिया जाय तो सुनिश्चित आध्यात्मिक अभ्यासों यौगिक साधनाओँ द्वारा उस चेतना से सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते है। अध्यात्म विज्ञान में जड़ को गौण और चेतना को प्रमुख स्थान इसलिये मिला है कि वह स्थूल प्रकृति की मर्यादाओं से बंधी हुई नहीं है और अपना स्वतंत्र विकास करने से सक्षम है।

मनुष्य की शारीरिक क्षमताओं के अतिरिक्त जिन शक्तियों की भौतिक विज्ञान द्वारा अभी तक जाना अथवा अनुभव किया जा सका है वे मस्तिष्कीय शक्तियां है जिनमें इच्छा ज्ञान अनुभव और बुद्धि आती है। परन्तु इन शारीरिक और मानसिक क्षमताओं की एक सीमा है। अध्यात्मदर्शन इन शक्तियों से भी अधिक समर्थ सक्षम आत्मिक शक्ति को महत्वपूर्ण मानता है जिसकी क्षमता का तो अभी अनुमान ही नहीं लगाया जा सका है। वह मानसिक शक्तियों से भी अधिक समर्थ संकल्प आस्था और विश्वास की शक्ति को मानता हैं। तत्वदर्शियों की मान्यता है कि इन शक्तियों को अर्जित विकसित करने में किन्हीं बाहरी योग्यताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनके विकास का अपना अलग ही विज्ञान है और उसके अलग ही नियम है जिनके अनुसार क्रमबद्ध विकास हो है। श्रद्धा और विश्वास के आधार पर परिपक्व हुआ अन्तःकरण मनुष्य में इस तरह की विशेषतायें उत्पन्न कर सकता है जिनके आधार पर वह जड़ प्रकृति को भी अपने अनुकूल ढाल लेता है तथा विपरीत स्वभाव के प्राणों से भी मित्रता स्थापित कर लेता है। यत्र−तत्र दिखायी देने वाले उदाहरण इसी क्षमता के साँकेतिक प्रमाण है।


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