कैसे बढ़ाएँ? अपना तेजोवलय एवं आत्मबल

December 1992

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पिण्ड और ब्रह्मांड का अपना स्वतंत्र चुम्बकीय क्षेत्र होता है। हम जिस ग्रह गोलक में निवास करते हैं, उसका भी एक चुम्बकीय क्षेत्र है। इसमें रहने वाले समस्त जीव−जन्तुओं और वृक्ष−वनस्पतियों का भी आकार की न्यूनाधिकता के अनुरूप अपना विशिष्ट चुम्बकीय प्रभाव होता है। यहाँ तक कि धरती में भी स्थान भेद के आधार पर भूचुम्बकीय क्षेत्र में भिन्नता देखी जाती है। मनुष्य में जब यह प्रभाव कमजोर हो जाता है अथवा उसे किसी ऐसे भूभाग में रहने की विवशता आ पड़ती है, जहाँ का चुम्बकीय क्षेत्र निर्बल हो, तो वह उसे प्रभावित किये बिना नहीं रहता।

आमतौर से बोलचाल की भाषा में इस प्रभाव को जलवायु की संज्ञा दे दी जाती है और कहा यह जाने लगता है कि हमारे अथवा हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए वहाँ की आबोहवा अनुकूल नहीं, पर सभी के स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल हो, ऐसी बात भी नहीं है। अन्य अनेक लोग उसी जलवायु और स्थान में स्वस्थ व सबल रहते देखे जाते हैं। फिर दूसरों के लिए यह अनुपयुक्तता क्यों? इसका उत्तर विज्ञान देता है।

विज्ञान की इन दिनों एक नितान्त नूतन शाखा बड़ी तेजी से फूलती, फलती और विकसित होती दिखाई पड़ रही है। इसे विज्ञान जगत में मैगनेटोबायोलॉजी के नाम से अभिहित किया गया है। इसके अग्रणी वैज्ञानिक पूर्व सोवियत संघ के डॉ. यूरी खोलोडोव हैं। जीव विज्ञानी डॉ. खोलोडोव ने जब एक प्रयोग के दौरान चूहों और कुछ विशेष किस्म के पौधों को न्यून चुम्बकीय क्षेत्र वाले भू−भाग में कुछ दिनों तक रखा, तो उनकी चयापचय क्रियाओं एवं अमीनो अम्ल निर्माण प्रक्रियाओं में स्पष्ट व्यवधान पड़ता देखा गया। अनेकों में ट्यूमर का विकास भी स्फुट परिलक्षित हुआ। किन्तु सबसे अधिक और स्पष्ट प्रभाव इसका तन्त्रिका तंत्र पर पड़ता देखा गया। परीक्षणों के दौरान इस बात का संकेत मिला कि न्यून चुम्बकीयता से स्मृति, धारण शक्ति और मनःसंस्थान भी सर्वथा अप्रभावित नहीं रह पाते हैं। स्मृति और एकाग्रता में इसके कारण ह्रास आता है, जबकि उत्तेजना को बल मिलता है।

अध्यात्म विज्ञान के अनुसार जिस व्यक्ति में जीवनी शक्ति, जिस अनुपात में घटती जाती है, वह उतना ही दीन−दुर्बल बनता जाता है। सबसे अधिक रोग−शोक ऐसे ही लोगों को सताते हैं। उत्तेजना और उन्माद इन्हीं में सर्वाधिक देखे जाते हैं। शरीर बाहर से फूला दीख पड़ने पर भी उस विद्युत का अभाव होता है, जिसे ‘जीवट’ कहा गया है। ऐसी दशा में उससे न तो कोई कहने लायक काम बन पड़ता है, न किसी में पूर्ण सफलता मिल पाती है। यदा−कदा मिलती भी है, तो वह ऐसी अधूरी और अधकचरी होती है, जिससे असंतोष ही बढ़ता है। आत्मबल और मनोबल इस कदर घट जाते हैं, कि कोई श्रेष्ठ कार्य करने का साहस नहीं जुट पाता और कर्ता निरन्तर पतनोन्मुख बनता जाता है।

इस दृष्टि से विचार करें, तो वर्तमान सामाजिक स्थिति बिल्कुल मिलती−जुलती दीखती है। इस दिनों बरसाती उद्भिजों की तरह जिस गति से व्याधियाँ पनपी हैं, वैसा पूर्व में कदाचित् ही कभी रहा हो। मनःसंस्थान की विकृतियाँ भी सम्प्रति जोर पर हैं। उन्माद, उत्तेजना और पागलपन इतने उग्र हो उठे हैं, जिन्हें देख कर आशंका यह होने लगती है कि संसार और समाज इनसे मुक्त हो पायेंगे क्या? पूरी तरह इनके चंगुल से छूट पायेंगे क्या? बुरे कृत्यों के प्रति लगाव व झुकाव तो इन दिनों आम बात है, पर समाज को उठाने व दिशा देने वाले सत्कार्यों के प्रति समर्पण और सत्साहस किन्हीं−किन्हीं में ही देखे जाते हैं। आज न अनीति के प्रति मन्यु प्रदर्शित करने एवं उन्हें घटाने−मिटाने के निमित्त गाण्डीव धारण करने वाले अर्जुन दृष्टिगोचर होते हैं, न अपने दुर्धर्ष व भीष्म संकल्प से मृत्यु तक को लौट जाने के लिए विवश करने वाले पितामह, न कर्ण, न उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान हनुमान कहीं दीख पड़ते हैं। न्यूनाधिक मिलते और दीखते भी हैं, तो इतने थोड़े कि उतनी कम विभूतियों से काम किसी प्रकार चलने वाला नहीं। इनका तो पूरा−का−पूरा परिकर चाहिए, ताकि आज की प्रतिकूलता को उलट कर सीधा किया जा सके। उसे अनुकूल बनाया जा सके। आखिर इस वीर−प्रसूता भूमि को हो क्या गया है? जिससे यह निर्जीव−निष्प्राण−सी लगने लगी है।

अध्यात्म विज्ञानी इसका एक ही कारण बताते हैं−जीवनी शक्ति का अतिशय अभाव। यहाँ पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान की परस्पर संगति बैठती दिखाई पड़ती है। विज्ञान की अधुनातन शोधें बताती हैं कि किसी स्थान की न्यून चुम्बकीयता व्यक्ति के मन−मस्तिष्क को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। यही अध्यात्म विज्ञान की मान्यता है। उसके अनुसार जब जीवनी शक्ति घटती है, तो व्यक्ति का स्वास्थ्य और संकल्प लड़खड़ाने लगता है। उल्लेखनीय है कि अध्यात्म विज्ञान जिस ऊर्जा को जीवनी शक्ति के नाम से पुकारता है भौतिक विज्ञान उसे ही काय−विद्युत, काय चुम्बकत्व, एवं आभामंडल जैसे संबोधनों से संबोधित करता है। दोनों में नाम के अतिरिक्त कोई और अन्तर नहीं है।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि वर्तमान में व्यक्ति की शरीर−ऊर्जा जब बेतरह जीर्ण और जर्जर हो गई है, तो एक ही स्थान में रहने वाले लोगों की स्वस्थता में भिन्नता क्यों नजर आती है? मानसिक विक्षोभों की यदि उपेक्षा कर दें, तो क्यों कोई व्यक्ति स्थान विशेष पर शारीरिक दृष्टि से निरोग नजर आता है? जब कि दूसरे कई यह शिकायत करते सुने जाते हैं, कि उक्त स्थान की जलवायु उनके अनुकूल नहीं। इतना ही नहीं, वहाँ वे लगातार रुग्ण रहते और अनेकानेक प्रकार की शारीरिक−मानसिक बीमारियों से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण बताते हुए विशेषज्ञ कहते हैं कि वर्तमान में शरीर−ऊर्जा, जिसे विज्ञान कायविद्युत अथवा चुम्बकीयता भी कहता है, मनुष्यों में अपेक्षाकृत घट गई है, जिससे उसके मन−मस्तिष्क पर हर वक्त बेचैनी और व्याकुलता सवार रहती है। कुछ हद तक तो इस कमी की परिपूर्ति उस स्थान की भू−चुम्बकीयता करती रहती है, किन्तु जब शरीर चुम्बकत्व में एक निश्चित सीमा से अधिक न्यूनता आ जाती है, तो उस क्षेत्र का भू−चुम्बकत्व भी उस क्षति की पूर्ति करने में अक्षत साबित होता है। ऐसे में विक्षोभों का विस्तार मानसिक स्तर तक सीमित न रह कर काय−ऊर्जा−की कमी विभिन्न प्रकार के शारीरिक लक्षणों के रूप में भी प्रकट होने लगती है और व्यक्ति को शरीर−मन से दीन−दुर्बल बना कर रोग−शैय्या पर ला पटकती है। इस स्थिति में चिकित्साशास्त्री उसे सैनिटोरियमों−हिल स्टेशनों में ले जाने की सलाह देते हैं। हिल स्टेशनों में वृक्ष वनस्पतियों की सघनता होने से उस स्थान विशेष में भौषजीय चुम्बकत्व की प्राणवायु ऑक्सीजन के अतिरिक्त स्वभावतः प्रचुरता होती है। इस प्रकार रोगी के शरीर चुम्बकत्व की कमी का संतुलन−समीकरण पादपीय चुम्बकत्व से बन जाने के कारण बीमार स्वाभाविक ढंग से स्वास्थ्य लाभ करने लगता है और कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है, पर यह उपचार अस्थायी होता है। इस मध्य मरीज की जीवनी शक्ति यदि नहीं बढ़ी, तो स्थान परिवर्तन के साथ उसके दुबारा रुग्ण बनने की पूरी संभावना रहती है, अस्तु इसे स्थायी इलाज नहीं कहा जा सकता। स्वास्थ्य का स्थायित्व तो काय−चुम्बकत्व के संरक्षण और संवर्धन पर ही आधारित है, अतः इस ऊर्जा को बढ़ा कर के ही स्वस्थ और सबल रहा जा सकता है।

इसके दो तरीके हैं−उपासना और साधना। उपासना के दौरान इष्ट से प्राण−ऊर्जा ग्रहण−धारण करने की प्रबल भावना और साधना के माध्यम से उन तत्वों को नष्ट−भ्रष्ट करना, जो प्राण−संचय में विघ्न−उपस्थित करते और उसके भण्डार को निरन्तर खाली करते रहते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि ऐसे ही अवाँछनीय तत्व हैं, जो हमारे शरीर चुम्बकत्व को−जीवनी शक्ति को लगातार घटाते रहते हैं। यदि इस ऊर्जा को बढ़ाया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि हमारी शारीरिक−मानसिक स्वस्थता न बढ़ सके हम अक्षुण्ण स्वास्थ्य न प्राप्त कर सकें। इतना ही नहीं, फिर हम चाहे कितने ही न्यून भू−चुम्बकीय क्षेत्र में चले जायँ, उससे हमारा स्वास्थ्य सर्वथा अप्रभावित ही रहेगा और किसी प्रकार के अवाँछित असर उत्पन्न करने में वह एकदम विफल बन जायेगा। कहावत है कि निर्बल को सभी सताते हैं, पर सबल का सामना करने से कतराते हैं। बीमारियों, बाह्य कारकों के सम्बन्ध में भी सत्य यही है। कमजोर शरीर में ही उनका आक्रमण होता है। बलवान−वीर्यवान शरीर से वह कोसों दूर रहते हैं। हम हतवीर्य न बनें−इसके लिए आवश्यक है कि अपने चुम्बकत्व को अभीष्ट परिमाण में बढ़ायें, ताकि स्थान विशेष का चुम्बकत्व हमें प्रभावित न करे, वरन् हम उस स्थान को, वहाँ के निवासियों को अपने प्रबल चुम्बकत्व से प्रभावित कर सकने में समर्थ हो सकें। यह आरंभिक प्रयोग और पुरुषार्थ हममें से प्रत्येक को संपादित करना आना चाहिए।


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