रवीन्द्र नाथ टैगोर अपने कमरे में बैठे कविता लिखने में व्यस्त थे कि इतने में एक छुरा लिये हुये गुण्डे ने उनके कमरे में प्रवेश किया। उसे किराये पर हत्या करने के किसी ईर्ष्यालु ने भेजा था।
रवीन्द्र ने आँख उठा कर उसकी तरफ देखा। सारा मामला भाँप लिया। उनने उंगली का इशारा करके शांत भाव से चुपचाप एक कोने में पड़े स्टूल पर बैठ जाने को कहा। देखते नहीं मैं कितना जरूरी काम कर रहा हूँ।
हत्यारा सकपका गया। इतना निर्भीक और संतुलित व्यक्ति उसने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था। वह कुछ देर तो बैठा रहा पर पीछे उसे पैर उखड़ गये और उलटे पैरों भाग खड़ा हुआ।
राजा अश्वघोष वैराग्य लेकर ईश्वर दर्शन की लालसा से देश देशांतरों में भ्रमण करते रहे तीर्थ यात्रा से शांति मिली न देव दर्शन से। कथा प्रवचन सुनते रहे उससे भी कोई बात बनी नहीं। साधना में मन ही न लगा।
इस प्रयास परिभ्रमण में वे एक किसान के खलियान में जा पहुंचे, वह बहुत प्रसन्न और संतुष्ट दीख रहा था। उसे तृप्ति और शांति का रसास्वादन करते पाया मस्ती के गीत गा रहा था और हल चला रहा था।
अश्वघोष वहीं बैठ गये और किसान से वैसी ही तृप्ति उन्हें भी प्रदान करने की याचना करने लगे
किसान ने सभी बात जानी और कठिनाई समझी। वैरागी को पेड़ तले बैठा लिया। जो चावल पास में थे। वह परोसे और आधा आधा बाँट कर खाया। पेट भर गया तो दोनों को गहरी नींद आ गई और उसी छाँव में देर तक सोते रहे।
दोनों साथ साथ जागे। किसान ने कहा परिश्रम पूर्वक कमाया और मिल बाँट कर खाया जाय तो वैसी शांति मिल सकती है जैसी कि ज्ञानी वैरागी चाहते हैं।
राजा की आँख खुल गई और उनने वही रीति नीति अपनाई जैसी कि किसान ने प्रत्यक्ष दिखाई थी।
महाराष्ट्र के पेषव माधवराव के गुरु मंत्री एवं प्रधान न्यायाधीश जैसे उच्च पदों पर श्री राम शास्त्री नामक एक कुलीन ब्राह्मण थे। विद्वता एवं उच्च पदों से सम्पन्न होकर भी शास्त्री जी का जीवन सादगी का मूर्त रूप था।
एक दिन शास्त्री जी की धर्मपत्नी आवश्यक कार्यवश राजमहल में रानी के पास गयी। रानी ने गुरुपत्नी को जनसाधारण से भी सादा वस्त्रों में देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ उसे। गुरुपत्नी की यह स्थिति उसे अपने और स्वयं महाराज माधवराज के सम्मान में एक कमी मालूम हुई। उसने सोचा गुरुपत्नी की इस दशा से महाराज की निन्दा होना स्वाभाविक है। रानी ने गुरुपत्नी को सुन्दर सुन्दर बहुमूल्य वस्त्र आभूषण पहनाये और सम्मान के साथ कहारों द्वारा पालकी में बैठाकर घर भिजवाया।
कहारों ने द्वार पर जाकर किवाड़ खटखटाये। शास्त्री जी बाहर आये किवाड़ खोले किन्तु यह कह कर बन्द कर दिये। भाई यह बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत देवी कोई और है आप लोग भूल से यहाँ आ गये इन्हें तो किसी भव्य महल या राज प्रसादों में ले जाओ।
शास्त्री जी की धर्मपत्नी उनके स्वभाव को भली प्रकार जानती थी। वह राजमहल में लौट गयी और वहाँ उन बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को छोड़कर अपने पूर्व वस्त्र धारण किये और पैदल ही राजमहल से अपने घर तक आई। घर पर आई तो दरवाजा खटखटाना नहीं पड़ा दरवाजा खुला था।
शास्त्री जी ने कहा, भद्रे! बहुमूल्य वस्त्र आभूषण तो अविवेकी लोगों द्वारा अपनी अज्ञानता संकीर्णता क्षुद्रता को छिपाने के साधन हैं। इस पर भी हम तो ब्राह्मण हैं दूसरों को प्रगति और मर्यादाओं पर चलने का मार्ग दिखाने की संपत्ति सादगी ही होती है।