पुनर्जन्म की मान्यता व्यक्ति को आस्तिक बनाती है

December 1992

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आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का एक प्रमाण पुनर्जन्म है। मरने के बाद दूसरा जन्म मिलने का तथ्य हिन्दू धर्म में सदा से माना जाता रहा है। पुराणों में इसका पग−पग पर वर्णन है। धर्मशास्त्रों, अगणित आप्त वचनों में आत्मा के पुनर्जन्म लेने की बात कही गयी है। अन्यान्य धर्मों ने भी उसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। ईसाई एवं मुस्लिम धर्मों में पुनर्जन्म की मान्यता तो नहीं है, पर उनके यहाँ भी आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बने रहने और ‘न्याय के दिन’ ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होने की बात कही गई है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य जन्म मिलने−पुण्य और पाप का फल भोगने के लिए फिर से जन्म मिलने की बात को धर्म ग्रन्थों में अनेकानेक उदाहरणों के साथ बताया गया है। भूत−प्रेतों का अस्तित्व एवं स्वर्ग−नरक की मान्यतायें भी इसी सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं कि अशरीरी आत्मा को भी एक विशेष प्रकार का जीवनयापन करने का अवसर मिलता है।

पुनर्जन्म की मान्यता के साथ कर्मफल का सघन सम्बन्ध है। जिन्हें भले या बुरे कर्मों का फल इस जन्म में तत्काल न मिल सका, उन्हें अगले जन्म में भोगना पड़ेगा। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने पर पाप−फल से डरने और पुण्य प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में आश्वस्त रहने की मनःस्थिति बनी रहती है। फलतः पुनर्जन्मवादी को अपने कर्मों का स्तर सही रखने की आवश्यकता अनुभव होती है और तत्काल फल न मिलने स उद्विग्नता उत्पन्न नहीं होती। नीति, सदाचार और सामाजिक मर्यादाओं के पालन की उपेक्षा नहीं होती। आत्मा की अमरता, ईश्वर का अंकुश, कर्मफल की सुनिश्चितता से गुँथे हुए अध्यात्मवाद के सिद्धान्त जहाँ प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं वहाँ उनकी−प्रतिक्रिया भी व्यक्ति एवं समाज को आदर्शवादी मान्यताओं में जकड़े रहने की भी होती है। शालीनता और सुव्यवस्था बनाये रहने की दृष्टि से आस्था का बने रहना नितान्त आवश्यक है।

पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि में अनेकानेक प्रमाण सामने आते हैं। भारत में तो इस सम्बन्ध में चिरमान्यता होने के कारण यह भी कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म की स्मृति बताने वाले यहाँ के वातावरण से प्रभावित रहे होंगे या किसी कल्पना की आधी−अधूरी पुष्टि हो जाने पर यह घोषित किया जाता होगा, कि यह बालक पिछले जन्म में अमुक था। यों इस आशंका को भी कठोर परीक्षा की दृष्टि से भली भाँति निरस्त किया जाता रहा है और बच्चे ऐसे प्रमाण देते रहे हैं कि जिनके कारण किसी झाँसापट्टी की आशंका नहीं रह जाती। पिछले जन्म के सम्बन्धियों के नाम तथा रिश्ते बताने लगने, ऐसी घटनाओं का जिक्र करना जिनकी दूरस्थ व्यक्तियों को जानकारी नहीं हो सकती, वस्तुओं के साथ जुड़े हुए इतिहास का विवरण बताना, जमीन में गड़ी−दबी चीजें उखाड़ कर देना, अपनी और परायी संपत्ति का विवरण बताना जैसे अनेक संदर्भ ऐसे हैं जिनके आधार पर पुनर्जन्म होने की प्रामाणिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भारत से बाहर उन सम्प्रदाय के लोगों पर तो पूर्व मान्यता का भी आक्षेप नहीं लगाया जा सकता। पुनर्जन्म के प्रमाण तो वहाँ भी मिलते हैं। यह भी किंवदंतियों के आधार पर नहीं, वरन् परामनोविज्ञान के मूर्धन्य शोधकर्ताओं द्वारा की गयी है और यह पाया गया है कि यह घटनायें मनगढ़न्त या कपोलकल्पित नहीं है। इनसे पुनर्जन्म की मान्यता की ही पुष्टि होती है।

प्रख्यात दार्शनिक एफ. एच. विलिस का कहना है कि पुनर्जन्म व आत्मा के विकास का सिद्धान्त सही है। उत्कृष्ट आत्मायें अपूर्ण कार्य की पूर्ति हेतु दुबारा जन्म लेती हैं। उन्होंने ऐसे कई महापुरुषों के जीवन में साम्यता पायी है जिनके चिन्तन एवं कर्तृत्व समान थे। वे इन्हें पुनर्जन्म की घटनायें मानते हैं। उनके अनुसार ईसामसीह ने दुबारा अपोलोनिक्स ऑफ टिमाना के रूप में जन्म लिया। शोपेनहांवर बुद्ध के अवतार कहे जा सकते हैं। फिश्टे, हीगल एवं काण्ट जैसे विख्यात दार्शनिकों को भी भारतीय आत्मायें कहा जा सकता है। श्रीमती बेसेंट पहले जन्म में ब्रूनो थी। सिसरो ने ग्लैडस्टन के रूप में पुनर्जन्म लिया।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध पादरी जिम विशप ने अपनी खोजपूर्ण कृति में कहा है कि पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की आत्मा ने ही राष्ट्रपति जान. एफ. केनेडी के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने दोनों के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन कर इन तथ्यों की ओर लोगों का ध्यान खींचा है जिसके अनुसार दोनों में गहरी धार्मिक भावना थी और दोनों ही विश्वशान्ति के उपासक थे। चालीस वर्ष की आयु में दोनों में राष्ट्रपति बनने की इच्छा हुई। नीग्रो स्वतंत्रता के लिए दोनों ने निरन्तर प्रयास किये। पारिवारिक जीवन भी दोनों का समान था। दोनों की मृत्यु शुक्रवार के दिन गोली लगने से हुई। दोनों की मृत्यु के पश्चात् उनका पद सम्हालने वाले व्यक्तियों का नाम जान्सन था जो दक्षिण से आये उपराष्ट्रपति थे। क्या यह अद्भुत साम्य मात्र संयोग है? या इसके कोई सूक्ष्म आध्यात्मिक विधान निहित हैं?

वर्जीनिया विश्वविद्यालय के ख्यातिलब्ध मनोवैज्ञानिक डॉक्टर इवान स्टीवेन्सन ने पुनर्जन्म की स्मृति सम्बन्धी तथ्यों के संकलन हेतु विश्व का दौरा किया और प्रामाणिक विवरण प्राप्त किये। उसी श्रृंखला में वे भारत भी आये। कन्नौज के निकट जन्मे एक बालक के शरीर पर गहरे घावों के पाँच निशान थे। उसने बताया कि पिछले जन्म उसकी हत्या शत्रुओं ने चाकू से की थी। जाँच करने पर उनने उस सही पाया। उनका कहना है कि भारत में इस तरह के उदाहरण सर्वाधिक पाये जाते हैं क्योंकि यहाँ की संस्कृति में पुनर्जन्म की मान्यता है। इस कारण पूर्व जन्म की बातें बताने वाले को डाँटा या रोका नहीं जाता है।

लेबनान और तुर्की के मुस्लिम परिवारों में भी पुनर्जन्म की अनूक घटनायें सामने आयी हैं, जिन्हें शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने सत्य पाया है। इसी तरह कोलोराइडी प्यूएली नामक नगर में पिछले दिनों रुथ सीमेन्स नामक लड़की ने अपने पूर्व जन्म की घटनाओं को बताकर ईसाई धर्म के उन अनुयायियों को असमंजस में डाल दिया जो पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सही नहीं मानते हैं। इस लड़की को मूर्धन्य आत्म विशारद मोरे वर्नस्टाइन ने सम्मोहन द्वारा अर्धमूर्छित करके उसके पूर्व जन्मों की अनेक घटनाओं का पता लगाया। वह एक सौ वर्ष पूर्व आयरलैण्ड के मार्क नामे नगर में पैदा हुई थी। उसका पूर्व नाम ब्राइडीमर्फी और पति का नाम मेकार्थी था।

मनोवैज्ञानिकों एवं परामनोवैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान के पश्चात् निष्कर्ष निकाला है कि पुनर्जन्म में पूर्व जन्म के संस्कारों के प्रभाव इस जन्म में भी सामने आते हैं। उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनने बताया हैं कि श्री लंका की एक बालिका ज्ञानतिकल दो वर्ष की आयु में अपने को पूर्व जन्म का बालक बताती थी, जिसका नाम तिलक रत्न था। पूर्व जन्म वाले स्थान से जग वह एक दिन गुजरी तो सहसा उसके दिमाग में कौंधा कि वह पहले जन्म में यहीं पर थी। जांच–कर्ताओं को उसने अपने पूर्व जन्म की कई बातें बतायीं जो परीक्षण करने पर सत्य निकलीं। शोधकर्ताओं का कहना है कि तिलक रत्न को लड़की होने की तीव्र इच्छा थी और पुनर्जन्म में वह लड़की ही बनी।

विलियम वाकर एवं केन्सन नामक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने अपनी कृति−”रिइनकार्नेशन” में ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण दिया है जिनमें पुनर्जन्म की धार्मिक मान्यता न होने पर भी बच्चों द्वारा प्रस्तुत किये गये विवरणों से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है। बड़ी आयु हो जाने पर प्रायः ऐसी स्मृतियाँ नहीं रहतीं या धुँधली पड़ जाती हैं, पर बचपन में बहुतों को ऐसे स्मरण बन रहते हैं जिनके आधार पर उनके पूर्व जन्म के सम्बन्ध में काफी जानकारी मिलती है।

प्रायः जीवात्मा के योनि−परिभ्रमण का अर्थ यह समझा जाता है कि वह छोटे−बड़े, कृमि−कीटकों, पशु−पक्षियों की चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के उपरान्त मनुष्य जन्म पाता है। परन्तु पुनर्जन्म की घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य जाति में ही मिलता है। इसके पीछे तर्क भी है। मनुष्य योनि में जीव चेतना का इतना अधिक विकास और विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्न प्राणियों के मस्तिष्क में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य अपने बचपन के कपड़े पहनकर गुजारा नहीं कर सकता। यही बात मनुष्य योनि में जन्मने के उपरान्त पुनः छोटी योनियों में वापस लौटने के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यह हो सकता है कि जीवन−क्रमिक विकास करते हुए मनुष्य स्तर तक पहुँचा हो। इसका प्रतिपादन तो डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त में भी हो सकता है, पर एक बार मनुष्य जन्म लेने के बाद पीछे लौटने की बात समझ में नहीं आती। अच्छे−बुरे कर्मों का प्रतिफल मनुष्य योनि में रहकर ही भुगतना पड़ता है।

वस्तुतः पुनर्जन्म की मान्यता जितनी सत्य है उतनी ही लोकोपयोगी भी। भारतीय संस्कृति में यह व्यवस्था इसलिये की गयी है कि मनुष्य इन सबके द्वारा अपना जीवनलक्ष्य सुदृढ़ कर ले। आत्मा की अमरता और मरणोपरान्त फिर से शरीर धारण करके कार्यक्षेत्र में उतरने की आस्था बनी रहे तो व्यक्ति दूरदर्शी विवेक अपनाये रह सकते हैं और शालीनता तथा सामाजिकता के आदर्शों को सहज ही पालन करते रह सकते हैं।


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