अनगढ़ चिन्तन ही कारण बनता है-रोग व शोक का

December 1992

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शरीर और मन के अन्योन्याश्रित संबंध में एक के स्वस्थ रहने पर दूसरा भी स्वस्थ रहता है। एक के बीमार पड़ने पर दूसरा भी रुग्णता रहता का शिकार हो जाता है। इन दोनों में मन की प्रधानता है। मन की इच्छा या आज्ञा के अनुरूप शरीर विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप पूरे करता रहता है। यहाँ तक कि अनायास ही अनवरत रूप से होते रहने वाली जीवन-चर्या को वहन करने वाली अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र-संचालन भी अचेतन मन ही करता है। रक्त-संचार, शयन-जागरण, आकुँचन-प्रकुँचन, निमेष-उन्मेष, चयापचय जैसी अनेक क्रिया-प्रक्रियाएँ शरीर के अंतर्गत होती रहती हैं। यह अनायास ही नहीं होता, उनका सूत्र-संचालन अचेतन मन अपनी रहस्यमयी सामर्थ्य के आधार पर करता रहता है। मनःशक्ति के समाप्त हो जाने पर मनुष्य मर जाता है। उसमें शिथिलता आ जाए, तो फिर मूर्छित या निष्क्रिय स्थिति में चला जाना पड़ता है। मन को ही चेतना का केन्द्र माना गया है। शरीर तो उसका पंच भौतिक आवरण मात्र है।

मन का स्वस्थ एवं सही रहना, शारीरिक स्वस्थता की तरह ही आवश्यक है। यदि वह विकृत, उन्मत्त, भ्रम-ग्रस्त अथवा अस्वस्थ हो, फिर शरीरगत क्रिया-कलाप भी ठीक तरह न बन पड़ेंगे। विक्षिप्तों की भौंड़ी हरकतें देखते ही बनती हैं उन्हें न फिर सभ्यता का बोध रहता है और न उपयोगिता-आवश्यकता की बात सूझ पड़ती है। शरीर हरकतें तो करता है, पर वे सभी ऐसी होती हैं, जिनमें उपहासास्पद बनना पड़े और कोई लाभदायक प्रयोजन न सध सके। नशे की खुमारी में बन पड़ने वाली चित्र-विचित्र घटनाओं को देखकर इसका परिचय भली-भाँति पाया जाता है। विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त स्थिति में मानसिक दृष्टि से असंतुलित व्यक्ति ऐसी हरकतें करते हैं, जिनके कारण साथी-संबंधियों की तथा स्वयं अपनी परेशानी में और भी अधिक वृद्धि होती रहे।

इन दिनों मनोविकारों की बाढ़ आई हुई है। शारीरिक रोगों की तुलना में मानसिक रोगों से ग्रसित व्यक्ति और भी अधिक संख्या में पाये जाते हैं। अन्तर इतना ही है कि शारीरिक पीड़ा प्रत्यक्ष होती है और देखने-जानने पर उसका पता आसानी से लग जाता है, किन्तु मनोरोगी देखने में सही होते हुए भी भीतर से गलत है। वह जो कुछ सोचता है, वह अवास्तविकताओं पर आधारित होता है। चटोरापन इसी का एक लक्षण है। जिह्वा, इन्द्रिय और जननेन्द्रिय का असंयम आधी शक्ति और आधी जिन्दगी को बरबाद करके रख देता है। फिर भी वह सामान्य जनों जैसी आदत होने के कारण अखरता नहीं और न उसके सुधार के लिए ज्वर-खाँसी रोगों जैसा उपाय-उपचार करते ही बन पड़ता है। निषेधात्मक दृष्टिकोण अपना लेने पर भीतर से ही भय, आशंका, चिन्ता, आवेश, अविश्वास जैसे भूत उगते, उछलते हैं। झाड़ी में भूत रहते नहीं; पर आशंकाग्रस्त जब मानसिक संतुलन खो बैठते हैं, तो वह झुरमुट ही दाँत निकालते, आँखें फाड़ते भूत प्रेतों की तरह दृष्टिगोचर होते हैं। कई बार तो वह डरे हुए व्यक्ति के लिए प्राणघातक तक बन जाते हैं। तिल का ताड़ ऐसे ही लोग बनाया करते हैं। शेख चिल्ली जैसी योजनाओं का जाल-जंजाल बुनते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। काला चश्मा पहन लेने पर हर वस्तु काली प्रतीत होती है। भले ही वह मूलतः किसी भी रंग की क्यों न हो। सही स्थिति देख समझ पाना तभी संभव होता है, जब रंगीन चश्मा उतार दिया जाय। पर अर्धविक्षिप्तता की स्थिति में वह भी तो नहीं बन पड़ता है। ऐसे लोगों को सभी में खोट प्रतीत होता है। भले ही स्वभाव या चरित्र का कोई दिखाई नहीं पड़ता। लगता है सभी उसके शत्रु हैं। सभी ने मिल−जुलकर षडयंत्र बनाने में ही निरंतर लगे रहते हैं। ऐसी मान्यता बना लेने पर व्यक्ति भयभीत, आक्रोशग्रस्त एवं कई बार तो आक्रामक तक बन जाता है। किसी का समझाना-बुझाना, और वास्तविकता की सफाई देना भी ऐसों के गले नहीं उतरता। उसे वे बहकावा भर मानते हैं या फिर समझाने वाले को विरोधी माने गये लोगों का एजेन्ट भर करार देते हैं।

इस मनःस्थिति के रहते किसी व्यक्ति को अपने समय, श्रम, चिन्तन एवं साधन को सही कामों में नियोजित कर सकते बन ही नहीं पड़ता। इसके स्थान पर दूसरों को हैरान करते चलने का उलटा उपक्रम आगे भी अधिक चल पड़ता है। फलतः दूसरे तो किसी प्रकार उपेक्षा करके पीछा भी छुड़ा लेते हैं, पर अपनी बहुमूल्य मानसिक क्षमता का ऐसा दुरुपयोग होता है, जिसे अपने आप कुल्हाड़ी मारना कहा जा सके। ऐसे व्यक्ति स्वयं ही अतिशय घाटे में रहते हैं, सनकी समझे जाते हैं और स्वजन-संबंधियों के सहयोग तक से वंचित हो जाते हैं। इस परिस्थिति में न तो कोई प्रगति कर सकता है, न सुखी रह सकता है। यहाँ तक कि वह स्वास्थ्य को भी अकारण बिगाड़ता और रोगियों से भी अधिक गई गुजरी स्थिति में रहकर निरन्तर हानि ही हानि उठाता है। ऐसे सनकी लोगों की बढ़ती हुई संख्या एक बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। इस कारण व्यक्ति और समाज को असाधारण हानि उठानी पड़ रही है। शारीरिक स्वास्थ्य तो चौपट हो ही रहा है। विक्षिप्तों को, अपंगों से, अभावग्रस्तों से भी अधिक बोझिल माना जाता है। वे अपने समेत सबका मात्र अनहित ही अनहित करते हैं। इस संदर्भ में भारी कठिनाई यह है कि इस मानसिक रुग्णता को घनिष्ठ साथियों के अतिरिक्त और कोई समझ तक नहीं सकता। साधारण रीति से खाते, बोलते, चलते, फिरते देखकर किसी को अनुमान तक नहीं होता कि, यह सनकी अर्ध विक्षिप्तता की स्थिति में रहकर ऐसी विसंगतियाँ उत्पन्न कर रहा है, जिसमें किसी के लिए कुछ कर सकना तक संभव नहीं होता। समझाना, बुझाना इसलिए कारगर नहीं होता कि अनगढ़ मान्यताओं को ही सही मान बैठने का दुराग्रह स्वयं कुछ सही सोचने नहीं देता और किसी दूसरे को समझाने का द्वार बंद कर देने के कारण और कुछ करते धरते नहीं बनता। ऐसे लोगों की कोई चिकित्सा भी नहीं बन पड़ती। क्योंकि वे अपने को रोगी मानते तक नहीं, फिर किसी की चिकित्सा को स्वीकृत क्यों करें। मानसिक विकृतियों में उपरोक्त संशय सनक के अतिरिक्त और भी कई हैं, जिनमें एक आवेश भी है। मतभेदों को सुलझाने के लिए धैर्य और सहनशीलता चाहिए। अपनी गलती समझने और दूसरों को समझाने के लिए निष्पक्षता और विवेकशीलता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसी के सहारे गुत्थियां सुलझती हैं, पर जब आवेश की उत्तेजना चढ़ी हो, असहिष्णुता स्वभाव बन गई हो, तो इस बात की गुँजाइश नहीं रहती कि धैर्य-पूर्वक वस्तु-स्थिति समझी जाय और दोनों पक्षों के लिए इसके लिए समान रूप से अवसर दिया जाय कि मतभेदों के मूल कारण समझें और उनके समाधान में किसकी क्या भूमिका होनी चाहिए, इस निष्कर्ष पर पहुँचे। यही है एक मात्र वह मार्ग, जिससे गुत्थियाँ सुलझती हैं। आवेश की स्थिति में तो गालियाँ और धमकियाँ ही देते बन पड़ती हैं, जिससे समझने-समझाने का द्वार ही बुरी तरह बन्द हो जाता है। सुलझाने के हर प्रयत्न को आवेशग्रस्त बेकार कर देते हैं। कुछ बन नहीं पड़ता, तो अपना ही सिर पीटते हैं। घुटन में घुटते और शरीर के जीवन तत्वों को अपने द्वारा जलाई गई आग में ही स्वाहा कर लेते हैं। ऐसे लोगों को कोई पथ्य, कोई उपचार कारगर सिद्ध नहीं होता। उनकी अस्वस्थता क्रमशः बढ़ती ही जाती है। बात बढ़ने पर दुर्बलता और रुग्णता के लक्षण और भी अधिक स्पष्ट रूप से उभरने लगते हैं।

कामुक-चिन्तन भी इसी किस्म का एक ठंडा रोग है, जो दृष्टिकोण को तो दूषित करता ही है, चरित्र में दुष्टता और भ्रष्टता की मात्रा बढ़ाता ही है। इस सबसे भी बड़ी बात है कि व्यथा कल्पना क्षेत्र को बुरी तरह अपने चंगुल में जकड़ लेती है। सोते-जागते अश्लील कल्पना चित्र ही मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं ऐसे असंख्य कल्पना चित्र रंगीली तस्वीरों की तरह दीखते रहते हैं, जिनका व्यवहार रूप में उतर सकना कदाचित ही कभी किसी के लिए संभव होता है। जिस मस्तिष्क को कामुकता की गठिया ने जकड़ रखा है, वह कोई उपयोगी चिन्तन प्राप्त कर ही नहीं पाता। अश्लील ललक ही क्षमताओं को अपने जाल में कस कर बाँध लेती है और शिकार को तड़पते, खीजते रहने के अतिरिक्त और कुछ उपयोगी काम कर सकने योग्य रहने नहीं देती। ऐसे लोगों को कुटेवों और यौन रोगों से ग्रस्त होते हुए भी देखा जाता है। उन्माद को हल्का करने के फेर में वे अपने शरीर का ही सत्यानाश करते रहते हैं। नर-नारियों में गुप्त रोगों का बढ़ता जाना एड्स जैसे रोग का आगमन इस कामुकता के मंद विष को ढोते रहने के कारण ही संभव हुआ है। विवाहेत्तर संबंध, गर्भपात, व्यभिचार आदि जीवन को असंतुलित बना देने वाली घटनाएँ कामुक-चिन्तन की ही कष्टकारक परिणति हैं।

यह ठीक है कि शरीर के रोगी होने पर मानसिक स्वस्थता भी खतरे में पड़ जाती है। पर इससे भी ज्यादा सही यह है कि मनोविकारों का गंभीर प्रभाव शरीर पर पड़ता है और आहार-विहार में कोई व्यतिरेक न होने पर भी व्यक्ति चिन्ता की परिधि में आने वाले अनेकानेक मनोरोगों का उपज पड़ना बरसाती उद्भिजों की तरह उभरता है। इन परिस्थितियों में कोई भी शरीर को निरोगी बनाये नहीं रह सकता।

शरीर के ऊपर पूरी तरह मन का आधिपत्य है। मात्र आहार, रक्त, माँस आदि के सहारे ही शरीर यात्रा की गाड़ी नहीं चलती। हर अंग अवयव पर मनोदशा का परिपूर्ण प्रभाव रहता है। हाथों का उठना, पैरों का चलना तभी होता है, जब मन वैसा करने की आज्ञा दे। स्वस्थ मन ही शरीर का समुचित निर्देशन करता है और सदा उसे सही स्वस्थ स्थिति में बने रहने की सुविधा उत्पन्न करता है। निराश व्यक्ति की सभी गति-विधियाँ मंद पड़ जाती हैं। निराश व्यक्ति की सभी गतिविधियाँ मंद पड़ जाती हैं क्रोधी व्यक्ति की आँखें लाल हो जाती हैं। भयभीत का हृदय धड़कने लगता हैं। शक से भूख मारी जाती है। अनिष्ट की आशंका से नींद उड़ जाती है। इतना ही नहीं, इन विकृतियों के कारण रक्त-संचार, पाचन-क्रम, गहरी नींद आदि सभी आवश्यक गतिविधियों में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हो जाता है। जिसे अनेक मनोरोग घेरे रहें, उनकी स्थिति तो उबलते दूध वाली कढ़ाई जैसी हो जाती है। स्थिरता, एकाग्रता, समस्वरता जैसी स्थिति न बना पड़ने पर शारीरिक शक्ति पक्षाघात पीड़ित स्तर की बन जाती है। प्रत्यक्षतः कोई बड़ा कारण न होते हुए भी मनोरोग शरीर रोगों करी शक्ल धारण करने लगते हैं। ‘मानसिक-आधि’ ‘शारीरिक व्याधि’ के रूप में आमतौर से परिणत होती देखी जाती है। इसलिए तत्वदर्शी सदा से सही कहते आये हैं, जिन्हें शरीर को निरोग रखना हो, उन्हें मनोविकारों के भयंकर दबाव से छुटकारा पाने का प्रयत्न करना चाहिए। ब्रह्म अर्थात् मानसिक विक्षेप की दवा तो लुकमान के पास भी नहीं थी। वे यही कहा करते थे कि, शारीरिक-रुग्णता ही दवा दारु से अच्छी हो सकती है, पर मनोविकृतियों का इलाज तो अपनी सूझ-बूझ के आधार पर हर किसी को स्वयं ही करना होता है। जो इसका समाधान किन्हीं दूसरों के सहारे करना चाहते हैं, उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। संसार में प्रतिकूलताओं की कमी नहीं। उन सभी को अनुकूल बना सकना संभव नहीं। सभी हमारी मर्जी के अनुरूप ढल जायें और हमारा कहना मानने लगें, यह आशा रखना व्यर्थ है। संसार में बिखरे सभी काँटे और कंकड़ नहीं बीने जा सकते। संभव इतना ही है कि अपने पैरों में जूते पहन लिये जायँ और बिना काँटों की परवाह किये आगे बढ़ते रहा जाय।

मनोरोगी अक्सर दूसरों को दोष देते पाये जाते हैं। अपने को निर्दोष ठहराते रहते हैं। यह दोनों ही उनकी ऐसी भूलें हैं, जो हर किसी को स्वयं ही अपना चिन्तन बदलते हुए ही सुधारनी पड़ती हैं। विक्षोभ अपना निजी उत्पादन है। अपने खेत में कोई दूसरा बीजारोपण करे और फसल काटे, यह संभव नहीं। अधिकार तो अपना है, फिर जैसा भी कुछ चाहा जाएगा, उसी का बीजारोपण होगा और उसकी प्रतिक्रिया फसल भर कर अपने कोठे भरेगी। खेत में खर-पतवार उगते तो हैं; पर चतुर किसान उन्हें आसानी से उखाड़ फेंकते हैं। मानसिक-स्वस्थता की सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि शरीर को स्वस्थ रखने की आकाँक्षा सँजोकर रखी जाती है। दोनों के लिए समान रूप से चेष्टा करने की आवश्यकता पड़ती है।

मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहने वाला व्यक्ति शरीर से थोड़ा बहुत अस्वस्थ रहने पर भी अपनी गति विधियाँ किसी प्रकार चलाता और उत्तरदायित्वों को पूरा करता रहता है, इसलिए उसकी हर दृष्टि से प्रधानता है। शरीर का रोगी मानसिक दूरदर्शिता के सहारे शरीर रोगों से निपट लेता है; किन्तु जिसका मन गड़बड़ा जाता है उसे आहार-विहार की समुचित सुविधाएँ रहने पर भी अनगढ़ चिन्तन रहने के कारण अनेकानेक बीमारियों से ही नहीं, समस्याओं-कठिनाइयों एवं विपत्तियों से भी ग्रसित रहना पड़ता है। इस तथ्य को समझते हुए हर किसी को स्वास्थ्य रक्षा की तरह मानसिक प्रखरता भी सम्पादित करनी चाहिए।


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