यह नासमझी तो नहीं करें

December 1992

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कई बार कई चीजें दूर रहकर जितनी लाभकारी सिद्ध होती हैं, नजदीक आने पर उतनी ही हानिकारक भी बन जाती हैं। आग और गर्मी दोनों ही मनुष्य के लिए आवश्यक एवं उपयोगी हैं, इनसे ठंडक और नमी दूर भागती और शरीर को राहत पहुँचती है, पर इनकी समीपता एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाय, तो उपयोगी होते हुए भी ये अनर्थ ही खड़े करेंगी। सूर्य पृथ्वी को जीवन धारण करने की क्षमता प्रदान करता है। इसकी गर्मी और रोशनी से ही पृथ्वी में जीवन संभव हो सका है। वृक्ष-वनस्पतियों से लेकर जीव-जन्तुओं तक को यदि इसकी ऊर्जा और ऊष्मा नहीं मिलती, तो अन्यग्रहों की तरह यह धरा भी जनशून्य होती। इस दृष्टि से सूर्य की उदारता और परोपकारिता तो है, पर उस दूरी को भी नहीं भुला दिया जाता चाहिए, जिसके कारण उसकी किरणें वसुन्धरा को अपनी मंगलमयी अनुदान वर्षा करती है। यदि यह दूरी कम रही होती, तो वही किरणें कहर बरपाना शुरू कर देतीं जो कभी अपनी अधिक दूरी के कारण सुन्दर और सुखद अनुभूतियों से भरती थीं। अतः हानि-लाभ के निर्णय में दूरी का प्रसंग भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, अस्तु ऐसे प्रकरणों में सदा इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।

ओजोन का रक्षा-कवच इस दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि यह सुरक्षात्मक आवरण पृथ्वी के चारों ओर न होता, तो अन्तरिक्ष से आने वाली अनेकानेक प्रकार की विघातक विकिरणें यहाँ के जन-जीवन को विनष्ट करने में कोई कसर उठा न रखतीं। तब प्रतिक्षण एक्स एवं गामा स्तर की घातक बौछारों इस नयनाभिराम धरा को उसी तरह जीवनहीन कर देती, जिस प्रकार अन्तरिक्ष के अन्य ग्रह-गोलक हैं। ब्रह्माण्डीय विकिरणों तो दूर अकेले सूर्य से ही इतनी मात्रा में पराबैगनी किरणें आतीं कि उसके अपरिमित परिमाण को बर्दाश्त कर पाना यहाँ के जीव-जन्तुओं और वृक्ष-वनस्पतियों के सामर्थ्य से परे की बात होती। इस स्थिति में यहाँ की धरती वैसी ही ऊसर और अनउर्वर बन जाती, जैसी चन्द्रतल की है, जहाँ पर्यावरण की अनुपयुक्तता के कारण न तो कोई जीव जन्म पाता है, न वनस्पतियाँ पनप पाती हैं। ऐसे में उस अपरा प्रकृति को धन्यवाद देना चाहिए, जिसने जीवधारियों के संरक्षण के निमित्त धतर के चारों ओर एक ऐसी पर्त विनिर्मित की जिससे कि आज यह सुखद और सुन्दर बनी हुई है। यह उस सुरक्षा कवच के लाभ हुए, जिसे विज्ञान “ओजोन पर्त” के नाम से पुकारता है, पर इसकी हानियाँ भी कोई कम नहीं हैं।

जब यह गैस जन-जीवन के संपर्क में आती है तो अगणित प्रकार के उपद्रव खड़े करती है। कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “अल्टरनेटिव्स” में इस संबंध में विस्तृत जानकारी प्रकाशित हुई है। उसके अनुसार इस दिनों टेक्नोलॉजी के द्रुत विकास के कारण नित नये यंत्र-उपकरण तेजी से विकसित होते चले जा रहे हैं, जिसे स्वास्थ्य संबंधी खतरा दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इन आधुनिक मशीनों में से कई, घातक स्तर की गैसें निकलती हैं। इन सब में “ओजोन” प्रमुख है। पत्रिका के अनुसार जब इसकी मात्रा वायु में 0.1 पी.पी.एम. होती है, तो नाक, कान, गले एवं आँखें जैसे कोमल अंगों में जलन होने लगती है। यह परिमाण बढ़कर जब 0.55 पी.पी.एम. हो जाता है, तो मितली एवं सिरदर्द का कारण बनता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अनुपात की दृष्टि से यह मात्रा नगण्य जितनी है, पर वायुमण्डल में इसका यह अत्यल्प स्तर भी कितना प्रभावी होता है, इसका अनुमान इसकी स्वल्प मात्रा से ही लग जाता है। यदि इसके परिमाण में आगे और वृद्धि हुई, तो यह कितनी खतरनाक सिद्ध हो सकती है, इसका अन्दाज लगाना मुश्किल है। अतः जो दूर रह कर लाभ देने वाला हो, उनसे दूरी बनाये रखना ही समझदारी और विकसित बुद्धि की निशानी है। ओजोन इसी स्तर की गैस है।

हिंस्र पशुओं में शेर, भालू, चीते एवं साँप अपनी रंग-बिरंगी छवि के कारण कितने लुभावने और आकर्षक होते हैं यह सर्वविदित है पर इसके कारण यदि कोई इनको पकड़ने और पालने का हठ करने लगे, तो यह उसके लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। ऐसे जन्तुओं के संपर्क में रहने वालों का इतिहास बताता है कि इनमें से अधिकांश अन्ततः इन्हीं के शिकार बने और जीवन गँवा बैठे। यह नासमझी है। यही नासमझी इन दिनों विज्ञान कर रहा है। विकास के दौरान उसे उस विनाश को भी ध्यान में रखना चाहिए, जो व्यक्ति को मौत के मुँह में धकेलता और असमय मरने के जिए बाधित करता है।


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