आज के युग का सर्वश्रेष्ठ सत्संग

December 1992

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अपने बलबूते सामर्थ्य अर्जित करना किन्हीं बिरलों से ही बन पड़ता हैं। आत्म-संयम बिरलों से ही बन पड़ता है। आत्म-संयम और आत्म-उत्कर्ष के लिए निरन्तर साधना करनी पड़ती है। संचित दोष-दुर्गुणों से अनवरत संघर्ष करना होता है। गुण, कर्म, स्वभाव में घुसे हुए दोष दुर्गुण सहज ही पीछा नहीं छोड़ते। एक बार हटाने पर वे दूसरी बार दरवाजे से नहीं खिड़की खुली देखकर घुस आते हैं। यही बात सत्प्रवृत्तियों के बारे में है। युधिष्ठिर पहले ही पाठ को रटने में मुद्दतें लगा बैठे थे। जबकि अन्य साथी कई-कई पाठ याद कर चुके थे तब वे ‘सत्यं वद’ की ही रट लगाये रहे। बहुत समय बीत जाने पर जब गुरुदेव झल्लाये तो उन्होंने नम्रतापूर्वक एक ही उत्तर दिया। शब्द रटने से क्या होगा? मैं तो सत्यं वद को स्वभाव का ऐसा अंग बनाना चाहता हूँ कि वह फिर भूले नहीं-छूटे नहीं। सद्गुणों के बारे में यही कठिनाई है। दुर्गुण तो सहज ही स्वभाव में जम जाते हैं। पानी नीचे की ओर तो स्वभावतः ढलने लगता है, कठिनाई तो उसे ऊँचा उठाने में पड़ती है।

आत्म-निग्रह को सबसे बड़ा पराक्रम कहा गया है। सिंह, रीछ वानर, घोड़ा, हाथी आदि को सरकस में खेल दिखाने के लिए साथ लेना सरल है। पर मन को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाये रहने के लिए अभ्यस्त करना कठिन है। योगियों को इसी आत्म साधना में सारा जीवन लगाना पड़ता है। जन्म जन्मान्तरों के संग्रहित कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना किसी भयंकर भूल से पल्ला छुड़ाने से कम नहीं है, फिर भी पराक्रमी लोग निरन्तर लगे रहते हैं तो सफलता पाकर ही रहते हैं। आत्मा पर विजय प्राप्त करने वालों की कमी नहीं रही है। प्रण करने वाले उसे पूरा करके भी रहते हैं।

इस प्रयास का एक सरल उपाय भी है-संगति सत्संग का बड़ा महत्व बताया गया है। उसमें मन रम जाय तो समझना चाहिए कि बाजी जीत ली। पारस को छूने से लोहे का सोना बन जाना एक उक्ति है जो सत्संग पर पूरी तरह लागू होती है।

एक दिन राजा वन विहार को गया। एक झोंपड़े के आगे एक तोता टँगा देखा। आते ही उसने रट लगायी----तलाशो छीनो।”वह चारों का घर था। कोई ---------जाय इसलिए वह आते ही शोर मचाता और सावधान करता। पूछने पर चारों ने तोते की रट का कारण समझा दिया। राजा आगे चला तो एक झोंपड़ी के आगे एक तोता और टँगा देखा। आते ही वह बोला-”विश्राम करें, जल पियें।” झोंपड़ी में से साधु निकले उनने अतिथि सत्कार किया। ठहराया, पानी पिलाया।

राजा ने साधुओं से भिन्न-भिन्न रट का कारण पूछा। साधु ने कहा-यह दोनों सगे भाई हैं। एक चोरों के यहाँ पला है एक हमारे यहाँ। जो चर्चा होती रहती है वही इन दोनों ने नकल करके सीख ली है। इसमें इनका दोष नहीं है। संगति का प्रतिफल है।

संगति में लोग जुआरी, चोर, व्यभिचारी, नशेबाज बन जाते हैं और ऐसा भी होता है कि, विद्या पढ़ें, सद्गुण अपनायें और श्रेष्ठ कर्मों में लग पड़ें। मनुष्य कोरे कागज की तरह है उस पर जो भी भला बुरा लिखा जाता है वही अंकित हो जाता है। मनुष्य दर्पण की तरह है जो भी सामने खड़ा होता है वैसी ही छवि दीखती है।

सत्संग का अर्थ केवल कथन-श्रवण नहीं है। ऐसा गोरखधंधा तो जगह जगह चलता है। पुराणों की कथा कहानियाँ जहाँ तहाँ होती रहती हैं। फालतू आदमी अपना समय काटने के लिए वहाँ जा पहुँचते हैं और मनोरंजन रूप में कुछ न कुछ गप शप होती रहती है। पर इससे समयक्षेप के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं। सत्संग वाणी से कम और क्रिया से अधिक होता है। नकल क्रिया की, आचरण की होती है। प्रभाव उसी का पड़ता है। जिसको अपनी बात पर स्वयं विश्वास है वह क्रिया में भी उतारेगा। जिसका वचन और कर्म एक है उसका समीपवर्ती पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा। नशेबाज पास बैठने वाले अनेकों को वह कुटेव सिखा लेते हैं। एक वेश्या ढेरों को व्यभिचार की आदत खा लेती है। किन्तु एक कथावाचक न स्वयं भक्त जैसे आचरण करता है और न पास बैठने वालों को वैसा कुछ सिखा पाता है कारण कि वहाँ मात्र कथनी काम करती है। करनी में सर्वथा भिन्नता होती है। जिनकी कथनी और करनी एक है उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा।

क्रियाशील व्यक्तित्व में एक जादुई प्रभाव होता है। मनुष्य एक चलता फिरता चुम्बक है। यदि वह प्रतिभा सम्पन्न है तो साथियों पर प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकता। किन्तु यदि प्रतिभा-विहीन है तो निर्जीव, दुर्बल होने के कारण उलटा दुत्कारा जाता रहेगा। संसार में प्रतिभाशाली लोग अनेकों को अपना जैसा बनाने में समर्थ होते हैं। किसी को कुमार्गगामी बना लेना तो बहुत ही सरल है, पर प्रतिभावान, वचन और कर्म के धनी, समीपवर्तियों को सन्मार्ग पर चला सकने में भी समर्थ होते हैं।

अपने को किस मार्ग पर चलना है। किन विशेषताओं से सम्पन्न करना है। इस निश्चय के उपरान्त देखना यह चाहिए कि ऐसा वातावरण कहाँ है? उस मार्ग पर कौन लोग कितनी निष्ठापूर्वक चलते हैं। जहाँ उपयुक्त वातावरण दिखाई पड़े वहाँ बैठने का अवसर निकलना चाहिए। वहाँ क्या होता रहता है। क्या, कहाँ और क्या किया जाता रहता है, इसका मनोयोग-पूर्वक अवलोकन करना चाहिए। समय समय पर अपनी जिज्ञासाएँ और कठिनाइयाँ प्रस्तुत करते रहना चाहिए। उस विचार मंथन में से जितना समाधान निकलता हो उतना स्वीकारना और अपनाना चाहिए। कोई समय था जब गुरु-शिष्य की परम्परा चलती थी। छोटे पूछते थे और बड़े उसका उत्तर देते थे। पर इतने से ही काम चल जाता था। अब वह समय नहीं रहा। विचार विज्ञान का क्षेत्र बहुत बड़ा हो गया है। नित नये प्रसंग और आधार सामने आते हैं। हो सकता है कि बड़ों को उन उलझनों की जानकारी न हो और वे उनका समाधान पुराने ढंग से इस प्रकार करते हों जो आज के समयानुरूप न रह गया हो, ऐसी दशा में तर्कों का समीकरण आवश्यक है। आज की स्थिति में विचार मंथन ही सही तरीका है। एक व्यक्ति का समाधान गले न उतरते हों तो दूसरे, तीसरे और चौथे से उसकी पूछताछ करनी चाहिए।

सत्संग का अर्थ है आदर्शवादी चिन्तन और चरित्र के समन्वय का वातावरण तलाश करना और उसमें जितनी उपयुक्तता प्रतीत हो उसे अपने ढंग से अपनाने का प्रयत्न करना। अपने से तात्पर्य है अपनी परिस्थितियों के अनुरूप। पिछले समय में संत होने का एक ही प्रमाण था विरक्त होना। पारिवारिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा करके भिक्षाटन पर निर्वाह करना। आज वह पद्धति करने तक की बात चले तो उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिए। सत्संग से तात्पर्य उज्ज्वल चरित्र का अनुकरण माना जाय और ऐसे विचारों को हृदयंगम करना समझा जाय जो व्यक्ति, परिवार और समाज को प्रगतिशील दिशाधारा में अग्रसर करते हों। आयु की दृष्टि से किसी का बड़ा होना इस विवशता को उत्पन्न नहीं करता कि उनके द्वारा जो कहा गया है उसे माना ही जाना चाहिए। न मानने या तर्क करने पर उनकी बेइज्जती होगी। ऐसे जड़ता प्रतिबद्ध सत्संग से वह उद्देश्य पूरा नहीं होता, जिसके लिए इन पंक्तियों में जोर दिया गया है।

आज की परिस्थितियों में स्वाध्याय को सत्संग का माध्यम बनाया जाना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। यह समय व्यस्तता का है जिसमें साथ में किसी के बैठकर जिज्ञासाओं का समाधान किया जाना हर जगह हर समय उपलब्ध नहीं हो सकता है। फिर जिन्हें पूछताछ करनी है वही सर्वथा खाली कहाँ हैं। पुराने जमाने में समय की इतनी अधिक कीमत नहीं थी। गुरु भी ढेरों मिल जाते थे और शिष्य भी। घंटों सत्संग चलते रहते थे पर अब तो काम के सभी आदमी व्यस्त हैं और संक्षेप में ही एक दो बातों का उत्तर देने से आगे सत्संग की अपनी उपयोगिता है पर उसके लिए समुचित अवसर मिले तब न?

आज की स्थिति में सत्संग का काम स्वाध्याय से चलना चाहिए। प्रमाणिक, सुयोग्य और पारंगत विद्वानों की अभी भी कमी नहीं है। उनने आवश्यक विषयों पर ऐसी पुस्तकें लिखी हैं जो अभीष्ट सत्संग की आवश्यकता पूरी करती हैं। सोचना चाहिए कि हमारी जिज्ञासाओं का विषय क्या है? उस विषय के अनुभवी विद्वान कौन हैं? और उनने तद्विषयक कौन कौन सी पुस्तकें लिखी हैं? उनकी सूची बना लेने से समस्या का बहुत कुछ समाधान हो जाता है। अब उन्हें उपलब्ध करने का प्रश्न शेष रह जाता है। उपयुक्त तो यही है कि उन्हें खरीदा जाय। जिस प्रकार पेट के लिए आहार-शरीर के लिए वस्त्र की आत्मा की भूख बुझाने के निमित्त जीवनोपयोगी साहित्य खरीदने के लिए भी एक निर्धारित बजट रखा जाय। मनुष्य जिस काम को आवश्यक समझता है उसके लिए पैसों का प्रबन्ध करता है। जिस काम को बेकार समझता है उसके लिए किफायत की बात सोचनी पड़ती है। जीवन की दिशाधारा निश्चित करने और समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने के लिए कुछ खर्च किया जाय तो उसे निरर्थक नहीं वरन् पूर्णतया सार्थक समझना चाहिए।

इन दिनों पुस्तकालयों का क्रम इस संदर्भ में ऐसा बन पड़ा है जिसमें मासिक फीस चुकाते रहने पर वे पुस्तकें नियमित रूप से उपलब्ध हो सकती हैं जिनकी हमें आवश्यकता है। जहाँ पुस्तकालय की विधिवत व्यवस्था न हो सके वहाँ कई मित्र मिल जुलकर ऐसा प्रबन्ध कर सकते हैं कि एक की खरीदी दूसरी पढ़ ले। दूसरे की खरीदी तीसरा। इसलिए चार ही मित्रों की मंडली मिल जुलकर थोड़ा-थोड़ा खर्च करके सभी लोग समान लाभ उठा सकते हैं। जो संग्रह होता चले उसे अपनी जैसी अभिरुचि के अन्य नये लोगों को पढ़ने देने और वापस लेने का सिलसिला चलाया जा सकता है। यह सत्संग का अच्छा, सरल और सस्ता तरीका है। जिससे अपनी सुविधा के समय में उस विषय के प्रवीण, पारंगत लोगों के विचारों से समुचित लाभ उठाया जा सकता है।

वह समय चला गया जब समग्र जीवन में दस पाँच समस्याएँ ही हुआ करती थीं। अब समाज और जीवन का विचार क्षेत्र बहुत बहुत बड़ा हो गया है। उनके साथ समस्याएँ भी अगणित जुड़ गई हैं। तद्नुरूप उनके समाधान भी चाहिए। यह एक पुस्तक में से नहीं मिल सकते। अपनी आवश्यकता के विषयों को छाँटकर उनके समाधान वाले अध्याय कई पुस्तकों में से पढ़ने चाहिए। इस प्रकार अनेक जगह की ढूँढ़ खोज में से अपने काम का संकलन एकत्रित करके उलझनों को सुलझाया जा सकता है।

सत्संग में एक या कुछ व्यक्तियों के चिन्तन, चरित्र को ध्यानपूर्वक देखने के उपरान्त उनका अनुकरण किया जा सकता था। अब वैसा भी नहीं हो सकता। कितने ही श्रेष्ठ जनों की जीवन पद्धति का कुछ कुछ अंश एकत्रित करके ऐसा संकलन बन सकता है जो सब मिलकर अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। इसके लिए अनेक जीवन चरित्रों को चुनना चाहिए। उन्हें पढ़ना चाहिए और जो अंश अपने काम में आने लायक हों उसे दुहराकर, तिहराकर पढ़ना चाहिए। जिस प्रकार अनेक पुस्तकों में हम काम काम के उपयोगी अंशों का चयन करके अपना विचार भंडार भरा जा सकता है, उसी प्रकार अनेक जीवन चरित्रों में से वे अध्याय विशेष रूप से पढ़ना चाहिए जो अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुकूल पड़ते हों, जो गुत्थियाँ इन दिनों सामने हों उन्हें सुलझाती हों।

सत्संग में भी अनेक मनीषियों से मिलते जुलते रहना आवश्यक होता है। एक का मिलना ही सारे समाधान नहीं कर सकता। उसी प्रकार अनेकों विचार पुस्तकों से अपने अनुरूप चिन्तन और अनेक जीवन चरित्रों में से अपने साथ ताल-मेल खाते हुए चरित्र अध्यायों का मधु संचय करना चाहिए। इस प्रकार आज का सत्संग-संकलन पद्धति से ही पूर्ण हो सकता है। इसके बिना वह अधूरा ही बना रहेगा। प्राचीन काल में जिस प्रकार सत्संग बहुमुखी था।

आज के समय में उसी प्रकार स्वाध्याय भी बहुमुखी होना चाहिए। मनीषियों ने अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप चिन्तन किये हैं और समाधान ढूँढ़े हैं। आवश्यक नहीं कि आज की स्थिति में उन्हें ज्यों का त्यों अपनाया जा सके। यही बात चरित्रों के सम्बन्ध में भी है। महामानवों में से किसी का भी चरित्र ऐसा नहीं है, जिसकी आज ज्यों की त्यों नकल की जा सके। आदर्श स्थिर रहते हैं पर प्रयोग परिस्थितियों के अनुरूप किये जाते हैं।

सत्संग का महत्व प्राचीन काल की तरह अभी भी है पर उसे स्वाध्याय के सहारे कार्यान्वित करना होगा। उसी प्रकार अनेक चिन्तर और अनेक चरित्र मिल कर हमारी आज की अपेक्षा के अनुरूप हो सकते हैं। हम जैसा निज को ढालना चाहते हैं, श्रेष्ठ पुस्तकों के स्वाध्याय द्वारा हम वैसा संभव बना सकते हैं। ऐसी पुस्तकें भी उपलब्ध हैं व उनको पाने के साधन भी आज सुविकसित हैं। अपना ज्ञान सम्पदा बढ़ाते चलना सतत्-महामानवों का मार्ग दर्शन पाने के लिए स्वाध्याय से श्रेष्ठ कोई और साधना नहीं है। उसमें प्रमाद किसी को भी नहीं करना चाहिए।


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