भगवद् शक्ति के क्रियान्वित होने का एकमात्र माध्यम मनुष्य शरीर ही है। वह निराकार सत्ता कुछ भी उदात्त कार्य इसका प्रयोग कर पूरा करा सकती है। समय-समय पर होने वाली महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोधों एवं खोजों के पीछे यह रहस्य छुपा हुआ है। परम पिता और मनुष्य उसके श्रेष्ठ व ज्येष्ठ राजकुमार होने के नाते वह सत्ता सदा उसे उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ दिया करती हैं अथवा कोई ऐसा कार्य करवा लेती हैं, जिसे मनुष्य संयोग समझ बैठता है, पर वही संयोग जब बाद में महत्वपूर्ण खोज बन जाता है, तो उसे आश्चर्य होता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? ऐसी बात नहीं है कि कोई एक आविष्कार में ऐसी घटना घट गई हो। आदिम काल में आग से लेकर वर्तमान के आग्नेयास्त्रों तक के अनुसंधानों का इतिहास ऐसी ही स्फुरणाओं अथवा भूलवश घटी घटनाओं से भरा पड़ा है, जो बाद में महत्वपूर्ण आविष्कार साबित हुई। यह बात दूसरी है कि मनुष्य इसे अपनी स्वयं की उपलब्धि मान बैठता है, पर सच पूछा जाय तो इसके पीछे उसी परम सत्ता की इच्छा-आकांक्षा काम करती रहती है।
वोल्गाना विश्वविद्यालय, इटली के प्राध्यापक लुइगी गेल्वीनि एक दिन आनी प्रयोगशाला में जीवन-जन्तुओं की नाडियों एवं माँसपेशियों में विद्युत प्रवाह के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने मेंढक को काटने के लिए स्टील का औजार प्रयुक्त किया। उसी समय उनके सहायक ने उसी कमरे में स्थिर विद्युत मशीन से विद्युत प्रवाह उत्पन्न किया, जिससे एक विद्युतीय चक्र बन गया और अचानक मेढक की माँसपेशियों एवं नाडियों में ऐसी फड़कन अनायास हुई मानों कोई जोर लगाया गया हो। मरे हुए मेढक में इस परिवर्तन ने विद्युत धारा के सम्बन्ध में एक रास्ता खोल दिया, तो आगे चलकर चिकित्सा क्षेत्र में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
सन् 1837 के पहले फोटो लेने की मशीन का निर्माण नहीं हुआ था। इसके पूर्व मात्र हाथों के प्रयोग से ही चित्र बनाये जाते थे। प्रायोगिक फोटोग्राफ के सम्बन्ध में खोज करने का श्रेय लुईस डेगुइर को जाता है, किन्तु सही अर्थों में यह खोज उनकी भी नहीं थी, वरन् यह तो अनायास ही हो गया था। डेगुइर प्राकृतिक दृश्यों को बनाने वाले चित्रकार थे। अतः सहायता के लिए अँधेरा एवं धुँधला फोटो लेने वाला कैमरा प्रयुक्त किया करते थे। वे फोटोग्राफिक प्लेट में सिल्वर का आवरण लगाते थे एवं संवेदनशील बनाने के लिए आयोडीन प्रयुक्त करते थे। परन्तु उससे जो चित्र मिलते थे, वह अस्पष्ट एवं धुँधले होते थे। एक दिन एक प्लेट जिसमें चित्र खिंच चुका था, एक पात्र में पड़े रसायन में धोने लगे और उस प्लेट का पुनः उपयोग किया दूसरे दिन उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई, क्योंकि जो चित्र प्राप्त हुआ वह बहुत ही स्पष्ट एवं साफ दिखाई दे रहा था, किन्तु परेशानी तब हुई कि कैसे पता लगाया जाय कि एक या अनेक रसायनों के संपर्क से यह परिवर्तन हुआ। इसके लिए कई दिनों तक प्रयोग-परीक्षण चलता रहा, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी क्योंकि जो सूत्र मिला वह आधा-अधूरा ही था। उनकी निगाह प्रयोग के दौरान बिखरी पड़ी चमकती हुई बूँदों पर पड़ी। इसका जब उन्होंने अध्ययन किया, वे जोर से चिल्ला पड़े-मैंने प्रकाश को पकड़ लिया, मैंने उसकी उड़ान को पकड़ लिया। भविष्य में सूर्य को भी कैमरे में कैद होना पड़ेगा यह विजय वस्तुतः डेगुइर की नहीं, अपितु कोई शक्ति उनसे भूलें कराकर यह प्रयोग सफल करवाना चाहती थी।
सन् 1939 के पहले रबर का उपयोगी स्वरूप प्रकट नहीं हुआ था, वह रबर जो इस समय दैनिक जीवन क्रम में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी खोज भी अचानक घटने वाली घटना के ही फलस्वरूप हुई। रबर का प्रारंभिक रूप उपयोग रहित था। गरम अवस्था में चिपकने वाला एवं ठंडा होने पर कड़ा, जो निरुपयोगी था। अमेरिका के चार्ल्स गुडइयर रबर को उपयोगी कर रहे थे, कि नीचे गरम स्टोव में कुछ सल्फर एवं रबर गिर पड़ा। रबर गल गया, तब सल्फर से जब प्रतिक्रिया हुई, तो रबर का वह उपयोगी स्वरूप सामने आया, जो वर्तमान में प्रयुक्त होती है। यह घटना यदि नहीं घटी होती, तो शायद आज हम रबर से संचित ही बने रहन, पर कदाचित सत्ता को मनुष्य की यह पिछड़ी स्थिति स्वीकार नहीं थी, इसी कारण उसने उक्त घटना द्वारा उसे एवं प्लास्टिक युग कहा जाय, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
मरने के बाद कुछ समय तो जीव जन्तुओं का हृदय क्यों धड़कता रहता है, इस सम्बन्ध में ग्रेट ब्रिटेन के डॉ. रिजर विभिन्न प्रकार के परीक्षणों में निरत थे। नमक की कुछ मात्रा मेढ़क के रक्त में मिलाने पर मरने के बाद भी हृदय धड़कता रहा, किन्तु यह बहुत कम समय के लिए था। एक दिन डॉ. रिंजर यह देखकर हैरान हुए कि नल के पास कई घंटे पहले मृत पड़े मेढ़क का हृदय अब भी धड़क रहा है। वे आश्चर्यचकित थे कि आखिर यह कैसे संभव हुआ? इसका कैसे पता लगाया जाय, इसका उत्तर भी जल्दी ही मिल गया। प्रयोगशाला में काम करने वाले सहायक लड़के ने बताया कि उसने “रिंजर सोल्यूशन” के बदल नल के जल का प्रयोग किया। किन्तु सौभाग्य से उस दिन नल के जल में सही अनुपात में पोटैशियम एवं सोडियम की मात्रा मिली हुई थी, जो आगे चलकर “रिंजर सोल्यूशन” कहलाया, जिसका उपयोग चिकित्सा एवं जैविक परीक्षणों में अति महत्वपूर्ण है। उस दिन वह लड़का स्वतः प्रेरणा से नल का पानी प्रयुक्त न करता, तो इसकी खोज नहीं हुई होती। ऐसा लगा, मानों कोई चेतन सत्ता ने मनुष्य को हारते देखकर खोज के लिए अनुकूल परिस्थिति बनाई हो।
फ्राँस के हेनरी बाक्वारल, रोण्टजन की एक्स-रे की खोज के बाद से यह समझने लगे थे कि सूर्य किरण ही एक्स किरणों के रूप में बदलती है। इसी सिद्धान्त की पुष्टि करने के लिए एक प्रयोग के दौरान उन्होंने फोटोग्राफिक प्लेट को काले पेपर से ढँक दिया। उसके बाद उसके पास स्वतः दीप्तिमान पदार्थ, सौभाग्य से यूरेनियम को रखा और सोचा कि इससे निःसृत किरणों का प्रभाव प्लेट पर पड़ेगा। इतना मालूम था कि यह सूर्य किरणों के निकलने पर चमकती है, किन्तु सूर्य कई दिनों तक उदित नहीं हुआ, मौसम खराब होने के कारण। अतः प्रतीक्षा करने के लिए एक दराज में बन्द कर दिया। बाद में जब बाक्वारेल ने इसे साफ किया तो पता चला, यह तो प्रभावित हुआ है। तब उन्होंने सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि कुछ ऐसे तत्व हैं, जिनसे प्रकाश की अनुपस्थिति में भी कुछ किरणें निकलती हैं। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यूरेनियम के अन्दर मौजूद किसी अज्ञात तत्व से यह रेडियेशन निकल रहा है। इस तरह आगे की खोज के लिए उन्होंने एक नया रास्ता बनाया। इसी सूत्र के आधार पर 1999 में मैडम क्यूरी ने रेडियम की खोज की, परन्तु क्या होता यदि बाक्वारेल के प्रयोग के दिनों सूर्य निकल जाता? तब शायद यह महत्वपूर्ण अनुसंधान संभव न होता।
सर अलेक्जेण्डर फ्लेमिंग रोगों के निमित्त कारण बैक्टीरिया पर कुछ शोध कर रहे थे। 1922 के एक दिन उन्हें जुकाम हो गया। अचानक उड़ आयी बैक्टीरिया का कुछ अंश उछलकर उनके नाक एवं मुँह में गिर गया। फ्लेमिंग दुखी हुए कि मेहनत बेकार गई। किन्तु तब वे आश्चर्य में पड़ गये जब इससे उनका जुकाम ठीक हो गया। इसी के आधार पर वे आगे प्रयोग-परीक्षण करते गये और अन्ततः एक ऐसी खोज की जिससे प्राणरक्षक पेन्सिलीन दवा बनायी जा सकी। वह घोल जिससे दवा बनी थी, फफूँद से बना था व गलती से ही बन गया था। किंतु एक महत्वपूर्ण आविष्कार उसी से संभव हुआ।
न्यूटन का तीसरा नियम एवं गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त फल को पेड़ से टपकते देखकर होना, फैराडे द्वारा विद्युत की खोज चुम्बक के चारों ओर लिपटे कुण्डलीय तार के कारण होना, पक्षियों को देखकर वायुयान की कल्पना चित्र बनना, उबलती हुई केतली को देखकर स्टीम इंजन का, इसके द्वारा आविष्कार, माता के डाँटने पर कि शाम को पौधों को न सताओ, इसके द्वारा पेड़-पौधों में चेतना होने की जगदीश चन्द्र बसु द्वारा खोज, यह सब तथ्य यह स्पष्ट करते हैं कि जहाँ मानवी बुद्धि असफल होकर हताश-निराश सिद्ध होने लगती हैं, वहीं परमसत्ता स्फुरणा के रूप में, दुर्घटना, संयोग अथवा भूल या सामान्य घटना के माध्यम से व्यक्ति का मार्गदर्शन करती है। यह बात और है कि व्यक्ति उसे मान ही लेता है, पर इनके पीछे वस्तुतः उसी समर्थ सत्ता का हाथ होता है, जिसने यह सृष्टि बनायी है। इन दिनों यदि हम अपने अन्तराल को तनिक-सा पवित्र बना लें, तो जीवन-यापन के संदर्भ में ऐसी ढेरों सत्प्रेरणाएँ अनायास प्राप्त कर सकते हैं, जो हमारे जीवनक्रम को सरल-सहज बना दें, क्योंकि आज हम महाकाल की सक्रिय गतिविधियों के महत्वपूर्ण सन्धिकाल से गुजर रहे हैं। विश्व घटनाक्रमों पर दृष्टि डाल कर इसका स्पष्ट आभास प्राप्त किया जा सकता है।