अहिंसा के नूतन आयाम

December 1990

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अहिंसा को धर्म धारणा में प्रमुख स्थान दिया गया है। किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना साधारणतया अहिंसा का प्रकट अर्थ समझा जाता है। पर बात इतने भर से नहीं बनती। अहिंसा शब्द निषेधात्मक है। उसका विधेयात्मक पक्ष प्रेम, दया, करुणा, सेवा, सहिष्णुता के रूप में उदित होता है। इस हेतु कुछ करना पड़ता है, करने से ही पुण्य बन पड़ता है। न करने पर भावना मात्र से एक कल्पना ही कन पर छायी रह जाती हे। उसे यदि चरितार्थ होने पर अवसर न मिले तो भाव संवेदना में औचित्य का समावेश रहते हुए भी उसका कोई प्रत्यक्ष प्रतिफल प्रस्तुत न हो सकेगा।

स्थूल अहिंसा का पालन तो पेड़, पर्वत भी करते हैं वे किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह उनकी जड़ताजन्य विवशता है। ऐसी दशा में उन्हें अहिंसक होने का श्रेय नहीं मिल सकता। प्रकृति के सभी पदार्थ ऐसे हैं जो अपनी जगह पर स्थिर रहते अपने निर्धारित चक्र पर भ्रमण भर करते रहते हैं। उनमें यह भावन नहीं रहती तो सचेतन में पाई जाती हे। ऐसी दशा में वे जान-बूझ कर हिंसा नहीं करते। उनसे टकरा कर कोई अपना पैर तोड़ ले तो उनकी मर्जी।

कृमि कीटकों पर भी अहिंसा का आदेश लागू नहीं होता। उनमें से अधिकाँश माँसाहारी प्रकृति के होते हैं। अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। इनकी प्रकृति को नहीं बदला जा सकता और न उनमें यह भाव जगाया जा सकता है कि अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि न पहुँचाएँ। लाभ-हानि तक का उन्हें विचार नहीं होता और न उन्हें यह सूझ पड़ता है कि उनकी किस क्रिया से किसी को क्या कष्ट होगा? छिपकली, मकड़ी आदि घरेलू कीड़े अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। बड़ी मछली भी छोटी को खाती देखी गई हे। बिल्ली, व्याघ्र, मगरमच्छ, सर्प, बाज़ जैसे प्राणी भी माँसाहारी होते हैं। भूख लगने पर अपनी प्रकृति के अनुरूप वे शिकार पकड़ते उदरस्थ करते रहते हैं। उन तक अहिंसा का संदेश पहुँचना या पहुँचाया जाना कठिन है।

मनुष्य भावनाशील है विवेकवान भी। उसे उचित अनुचित का बोध आरंभ से ही मिला है। सहकारी प्राणी होने के नाते उसके लिए नीति नियम भी यही है कि दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करे जैसा दूसरों से अपने लिए चाहता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। सज्जनता बरतने वाले बदले में वैसा ही सद्व्यवहार अन्यों द्वारा अपने साथ होते देखते हैं। दुष्टता की प्रतिक्रिया भी आक्रोश प्रतिशोध में होती है। इसलिए अपने को त्रास न सहना पड़े इसका एक ही सही तरीका है कि दूसरों के साथ दुर्व्यवहार न किया जाय, अन्यथा प्रतिक्रिया एक नहीं तो दूसरे तरीके से होगी और अपना किया कृत्य शब्दबेधी बाण की तरह उसी तरकस में लौट आयेगा, जहाँ से निकाल कर कि उसे फेंका गया था दूरदर्शी विवेकशीलता का यही तकाजा है कि दूसरों के साथ सद्व्यवहार करने में ही अपना लाभ समझा जाय और वैसा ही आचरण करने के लिए मानस बनाया जाय। अहिंसा इस दृष्टि से आत्मरक्षा की ढाल सिद्ध होती है। दूसरों के प्रति उदार रह कर प्रकारान्तर से अन्यों को अपने साथ सद्व्यवहार करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। हिंसा पर उतारू होकर उसकी प्रतिक्रिया से बचा नहीं जा सकता। जिसे सताया गया है वह दुर्बल एवं प्रतिशोध में असमर्थ हो सकता है। किन्तु दूसरी शक्तियाँ तो संसार में मौजूद हैं वे उस अनाचार का बदला लिए बिना नहीं छोड़ेगी। इसलिए जिन्हें चैन से रहना अभीष्ट है, उन्हें दूसरों को भी चैन से रहने देना चाहिए।

अहिंसा का सृजनात्मक पक्ष है-आत्मीयता अपनों के साथ दया करुणा, का सद्भाव और ममता का व्यवहार ही बन पड़ता है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अनवरत स्नेह लुटाते हैं और उनके साथ सेवा-सहायता का व्यवहार सहज स्वाभाविक करते रहते हैं। यह सब उनसे स्वाभाविक रूप से बन पड़ता है। एहसान जताने पुण्य करने जैसा कोई भाव उनके मन में नहीं उठता यही भावना संकीर्णता की परिधि से आगे निकलकर जब विराट के साथ संबन्ध जोड़ती है तो सभी अपने बन जाते हैं। जो अपना है वह स्नेह सद्भाव सहृदयता का पात्र बन ही जाता है। आत्मीयता का ही एक पक्ष दया और करुणा है। यह भी विकसित मानस में सहज स्वभाव चल पड़ता है। सहायता का बदला सहायता के रूप में मिलते देख कर का प्रत्युत्तर प्रेम में पाकर प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। इस प्रकार अहिंसा का प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता है। यह नकद धर्म है। जिसके आधार पर-जिओ और जीने दो, बढ़ो और बढ़ने दो” का सिद्धान्त सहज ही चरितार्थ होता चला जाता है।

अहिंसा में विक्षेप उचित कष्ट से नहीं होता। इसलिए अहिंसा में कष्ट नहीं औचित्य मुख्य है। डॉक्टर अस्पतालों में ढेरों रोगियों की शल्य क्रिया करता रहता है कितनों को ही सुई चुभोता हे। मोटी दृष्टि से यह हिंसा हुई, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। उद्देश्य रोगी के पति दया भाव होने के कारण ऊँचा ही रहा। ऐसी दशा में तात्कालिक पीड़ा का कोई महत्व नहीं रहा। देखा यही गया है कि रोगी का हित किसमें है। हित कामना को देखते हुए कष्ट पहुँचाने की भी गुँजाइश है। न्यायाधीश अभियुक्त को फाँसी की सजा देता है। इससे समाज व्यवस्था का संरक्षण होता है। यदि उस अपराधी को क्षमा कर दिया गया होता तो खुल कर न जाने कितनों की हत्या करता कितनी अव्यवस्था फैलता। इस तथ्य को ध्यान में रखकर यदि न्यायाधीश ने मृत्युदण्ड दिया और अपराधी को कष्ट हुआ तो इसके लिए क्या किया जा सकता है। अहिंसा को रूढ़ि मानकर न्याय और विवेक को झुठलाया तो नहीं जा सकता।

अहिंसा में विवेक को भी जुड़ा रखना पड़ता है। आत्म रक्षा के लिए हिंसा भी अपनाई जा सकती है। घर पर डाकू आक्रमण करे तो उनका सामना करना ही पड़ेगा, भले ही उनमें से कोई आक्रान्ता, मारा ही क्यों न जाय? घर में पलने वाले साँप बिच्छुओं पर कब तक दया करते रहा जाएगा। चूल्हें की आग जलाते समय, यात्रा में चलते समय धूप में कपड़े सुखाते समय कुछ जीव मर सकते हैं। इनकी रक्षा किया जा सकना असंभव है।

हिंसा वहाँ से आरंभ होती है जहाँ दूसरों को पराया समझकर अपनी संकीर्ण स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनीतिपूर्वक दूसरों को कष्ट पहुँचाया जाय जिससे निर्दोषों को उत्पीड़न सहना पड़े जिसके साथ अनीति का आधार जुड़ा हुआ हो।

हिंसा शारीरिक आघात तक सीमित नहीं है, उसका मानसिक आघात भी एक पक्ष हे। अपमान, तिरस्कार, दुर्व्यवहार भी हिंसा का ही एक रूप है, जिसके मन को, सम्मान को आघात लगे उसे भी हिंसा ही कहा जाएगा .. किसी को गलत परामर्श देकर कुमार्ग पर चलने के लिए सहमत कर लेने से तत्काल न सही परिणाम सामने आने पर तो कष्ट उठाना ही पड़ता है। इस प्रकार का जिसने कुचक्र रचा उसे भी हिंसक ही कहा जाएगा।

हिंसा का तात्पर्य है अन्यायपूर्वक उत्पीड़न। मात्र शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना हिंसा नहीं है। कुकर्मियों और कुमार्गगामियों को जब समझाने बुझाने से सही राह पर लाना सम्भव नहीं रहता, जब दुरात्माओं का अहंकार, दुराग्रह और आतंक चिर सीमा तक पहुँच जाता है तो वे दया क्षमा को कर्ता की दुर्बलता मानते हैं और इस प्रकार के सौम्य व्यवहार को अपनी जीत मानकर अनीति पर और भी अधिक वेग के साथ उतरते हैं। ऐसी दशा में प्रताड़ना के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। शठता को शठता की भाषा ही समझ में आती है। उन्हें सुधारने के लिए जो विवेकपूर्ण हिंसा प्रयुक्त की जाती है उसे अहिंसा ही कहना चाहिए।


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