विधाता के साथ समस्वरता

December 1990

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अपनी समूची गति से सक्रिय विश्व जीवन का यह अरणि मन्थन अकारण नहीं है। इसकी हलचलों से राजतंत्र, समाजतंत्र, धर्मतंत्र सहित विश्व व्यवस्था का हर छोटा-बड़ा घटक उद्वेलित है। मनुष्य समुदाय का हर वर्ग इसे आश्चर्य से आँखें फाड़े देख रहा है। जहाँ कहीं जो कुछ घट रहा है आश्चर्यजनक है। सिर्फ जीवन की बाह्य भूमि घटनाओं की बारिश से भीग रहीं हो, ऐसा नहीं है अंतर्मन में भी उथल-पुथल व्यापक है। उन विवेकशीलों ने इसे सूक्ष्मता और गहराई से समझना शुरू किया है, जिन्हें विश्वास हो चुका है कि यह अरणि मन्थन समूचे जीवन की संरचना में फेर-बदल कर डालने के लिए किया जा रहा नियन्ता का तप है, जिसका ताप महसूस करने के लिए सभी को बाध्य होना पड़ रहा है। यह उष्णता जाग्रत मन का मन्थन करें यह स्वाभाविक है, सोचेंगे जीवन्त ही। जिन्होंने अपने शरीर और मन पर निष्क्रियता के ताले डाल रखे हैं। उनका कहना ही क्या? नव सृजन के विधाता के तप का प्रत्येक स्पन्दन एक आह्वान है प्रत्येक हलचल एक सन्देश, जिसकी हर गूँज में स्वर समाविष्ट है- आगे आने और साथ निभाने के।

तप में साथ निभाने की बात मन के पर्दे पर सवालों की अनेकों आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच जाती है। भूखे रहने, एक पाँव के बल खड़े होने जैसे तरह-तरह के कल्पना चित्र मन के सामने नाचने लगते हैं। यही तो ताप का लोक प्रचलित रूप है। तो क्या सृजेता को आज-कल कुछ ऐसा ही उलटा-पुल्टा करना पड़ रहा है। यदि ऐसा है तो उसमें भागीदारी एक संशय भरा सवाल उपजा कर हतोत्साह की खाई में फेंक देती है। पर असलियत भिन्न है-प्रचलन हमेशा सही नहीं होते। यथार्थता के रत्न जिस गहराई में रहते हैं वह लोक प्रचलनों के उबलेपन में कहाँ?

इसका महत्वपूर्ण कारण-यह भी है कि प्रचलन प्रायः साधारण मनोभूमि के लोगों में पनपते हैं और इस मनोभूमि के लोगों के दो वर्ग हैं। एक परपीड़क-जिसे दूसरों को पीड़ा देना सुखकर लगता है। दूसरा स्वपीड़क- जिसे अपने को सताने में मजा आता है। परपीड़कों के वर्ग में आने वाले ज्ञात रूप से अज्ञात रूप से उस ओर सरकते रहते हैं-जहाँ वह दूसरों को पीड़ा दे सकें। शिक्षण, प्रशासन सुधार के नाम पर सदा ही किसी न किसी को सताने के अवसर की खोज बनी रहती है।

स्वपीड़क उत्पीड़न के वे सारे प्रयोग एक-एक करके अपने ऊपर कर डालते हैं। ईश्वर के नाम पर, प्रार्थना के नाम पर ऐसों की संख्या कम नहीं है जो कील-काँटों की शैया पर लेटते हैं, महीनों-महीनों भूखे रहते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो लगातार जगते रहने की कोशिश में लगे रहते हैं, ये सालों खड़े रहे और कोई मुद्रा नहीं अपनाई। उनकी टाँगे करीब-करीब मुर्दा हो चुकी। एक हाथ उठाए जो जी रहे हैं-एक हाथ मृत हो रहा है। हड्डियों का ढाँचा हो गए इस हाथ में खून संचरित नहीं है। प्रकारान्तर से यह एक प्रकार की हिंसा है। “वैरायटीज ऑफ रिलीजस एक्सपीरियेन्सेज” के लेखक विलियम जेम्स ने अपनी इस रचना में ऐसे तथाकथित तपस्वियों के जीवन का गहरा सर्वेक्षण किया है। विवेचन करते हुए उसने प्रश्न उठाया है-क्या यह तप है? आनन्द के स्रोत परमेश्वर की ओर जाने के लिए क्या यही मार्ग है?

जेम्स को उसके सवालों का जवाब मिला या नहीं-यह तो नहीं मालूम। पर सहस्राधिक वर्षों से गीता अपने सत्रहवें अध्याय के पाँचवें-छठवें श्लोकों के माध्यम से इस तरह का जीवन जीने वालों को दम्भ अहंकार का लबादा लपेटे अविवेकी असुर कहती आयी है। उसके अनुसार ये सभी मनोव्याधि से पीड़ित हैं। आज के मनोविज्ञान के संदर्भ में परखें तो चर्चा उचित है। जे. बैरोन अपने चिंतकोश “साइकोलॉजिकल प्रिंसिपल” में इसे “सैडिज्म” कहते है। इसके मुताबिक़ हिटलर, स्तालिन, माओत्से को इलाज तुँग इन सबके साथ ऐसे अनेक तपस्वियों को इलाज की जरूरत है। ऐसा इलाज जो इन्हें समझदारी सिखा सके-जो बता सके कि जीवन उत्पीड़न नहीं संवेदना है और तप इसकी चरमावस्था की प्राप्ति है।

उत्पीड़न कोई मार्ग नहीं-यह तो आक्रमण है चाहे अपने ऊपर हो या दूसरों पर। आक्रामकता कभी तप नहीं बन सकती। दूसरों के शरीर को उत्पीड़ित करने व शरीर को सताने में क्या भेद? शरीर है दूसरों का, स्वयं का शरीर से जरा ज्यादा नजदीक है। बस इसीलिए यह जल्दी हिंसा का शिकार बन सकता है। न जाने कितने वर्षों से मानवता इसे झूठे लोक प्रचलन को ढो रही है कि यह ईश्वर के साथ चलने-उससे भागीदारी निभाने का रास्ता है।

भगवान तो संवेदनाओं का घनीभूत पुँज है। वह संवेदना को हरण करने की बात क्यों सुझाने लगा बल्कि इसके उसने मनुष्य को संवेदनाएँ दी हैं। संवेदनशीलता की अनुभूतियों को स्वयं के साथ औरों को लाभ देने के लिए प्रदत्त किया है। पीड़ा पहुँचाने से तो इनका हरण हो जाता है। फिर यह हरण विलासिता द्वारा हो या काँटों के बिस्तर पर लेट कर। आज का मनोविज्ञान विलासिता अतिशय भोग को भी उत्पीड़न का एक प्रकार मानता है। क्योंकि भोग की क्रमिक वृद्धि शनैः शनैः इन्द्रियों को, मन की चेतना को संवेदना शून्य बनाती जाती है। मानव मन की सूक्ष्मताओं के पारखी ए हानेगग का “ कांप्लेक्स फ्री पर्सनैलिटी” में कहना है कि व्यक्तित्व की किसी न किसी ग्रन्थि के कारण व्यक्ति भोगों में डूबता है, नशेबाज बनता है अथवा स्वयं को सताने लगता है। परिणाम में आती है- मर्दानगी-चेतनाशून्यता

संवेदनशून्य शरीर और मन भला कैसे अनुभव करेंगे उस आशीष को जो उसके अस्तित्व का करेंगे उस आशीष को जो उसके अस्तित्व का विद्याता उस पर लगातार बरसाए जा रहा है। हर पल घट रही अनुग्रह वर्षा की इस अनुभूति को विलास और उत्पीड़न से मृतप्राय जीवन कहाँ अनुभव कर सकते हैं? ईश्वर के साथ समस्वरता बिठाने के लिए हमें कहीं अधिक संवेदनशील होने की जरूरत है। क्योंकि यह व्यक्तित्व की आँख है, अनन्त की ओर खुलने वाला झरोखा है। जब स्वयं का अस्तित्व इससे ओत-प्रोत होता है तो हवा का हल्का झोंका भी गहरे स्पर्श की अनुभूति कराता है। साधारण पत्थर नदी की लहरें-समूची प्रकृति एक संदेश देती दिखाई पड़ती है। जीवन शून्यता की दशा में कोई इसे कैसे अनुभव करेगा?

वास्तविकता यही है-जिसने अपने में जितनी संवेदनशीलता जगाई वह उतना ही अधिक तपस्वी हुआ। यही तपस्या-जीवन के विधाता के साथ समस्वरता है। इसी कारण गीता के महोपदेष्टा योगेश्वर कृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय में तप के प्रकरण को स्पष्ट करते हुए उन तकनीकों को गिनाया है, जिनसे अस्तित्व की जागरूकता बढ़े। उनके अनुसार शरीर का तप है-सेवा सरलता और श्रम। वाणी का तप है-सत्य-प्रिय और हितकारक वचन और मन का तप है-प्रसन्नता सौम्यता तथा विचारशीलता।

यही वह तकनीकें हैं-जिनसे जीवन की पुरानी पड़ गई गाँठों को खोला जा सकता है और तपश्चर्या है ही ग्रन्थि मुक्त सहज-सरल जीवन जीने की मनोवैज्ञानिक प्रणाली। क्योंकि जीवन जितना जटिल होता जाएगा, संवेदना उतनी खोती जाएगी। उत्पीड़क और विलासी दोनों अपने जीवन को संवेदना शून्य बना अनेकानेक ग्रन्थियों से कुरूप बना देते हैं। निष्ठुर तो जटिलता का मूर्तिमान् रूप ही है। जबकि सरल जीवन का मतलब होता है, बिना उलझाव का जीवन। सहज जीवन गहरी समझ का जीवन होता है।

होता यह है कि तप के नाम पर लोग सहजता और सरलता गँवा बैठते हैं। करने लगते हैं अनुकरण बन्दर के बच्चों जैसी नकल। महावीर नग्न रहते थे-हमें भी नग्न रहना चाहिए। बुद्ध 7 दिन पेड़ के नीचे बिना हिले-डुले बैठे रह, हम सत्तर दिन बैठे रहेंगे। आखिर बुद्ध और महावीर से बड़ा जो बनना है। अहं के पोषण का यह प्रयास हमें जड़ता के अंधेरे में ले पटकता है। महावीर की नग्नता के पीछे अनुभव की गहरी समझ थी। उनकी वह अनुभूति थी कि दिशाएँ ही वस्त्र हैं। उनके पंचभूतों के शरीर ने प्रकृति के पंचमहाभूतों से एकत्व बिठा लिया था। बुद्ध की लम्बी बैठक का कारण, ध्यान मग्नता थी। मन का शरीर भाव से ऊपर उठ कर निस्पन्द हो जाना था। जबकि हमारे जीवन में आती है-सिर्फ नकल। लाओत्से कहता था-” नकल से उत्पन्न जड़ता मृत्यु है।”

आज खोज इस बात की करनी है कि अपने व्यक्तित्व की किस ग्रन्थि के कारण हम मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ गए। थोड़ा सा आत्मनिरीक्षण, विवेचन सब स्पष्ट कर देगा, हमारे व्यक्तित्व की जटिल ग्रन्थियों के अधिष्ठाता से समस्वरता सामंजस्य की अनुभूति करने लगेंगे। तपश्चर्या की इसी भागीदारी को आज भगवान के साथ हमें निभाना है।


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