योगाभ्यास में ध्यान प्रक्रिया की प्रमुखता है। लययोग, राजयोग, हठयोग, नादयोग, बिन्दुयोग आदि अनेकों योग हैं। उनकी संख्या 84 बतायी जाती है। इन सबकी जो क्रियाएँ कर्मकाण्ड निर्धारित हैं, वे तभी सफलता तक पहुँचते हैं जब उनके मनोयोग का गहरा पुट लगा हुआ हो। उपेक्षापूर्वक, अन्यमनस्क भाव से उन कृत्यों की लकीर पीटते रहा गया या उनमें गहरी श्रद्धा विश्वास न हो और रसानुभूति उत्पन्न करने की स्थिति न बन पड़े तो समझना चाहिए कि प्रयास में कदाचित ही कुछ आँशिक सफलता मिल सके।
चक्रबेधन, कुण्डलिनी जागरण आदि में जिस स्थान पर जो स्थिति बतायी गयी है उसे करना पड़ता है। दिवा स्वप्नों के व्याख्याकार कहते हैं कि भूत-प्रेत जैसी कल्पनाएँ विश्वास का गहरा पुट लग जाने पर ठीक वैसी ही बन जाती हैं जैसी कि मान्यता रखी गई थी। न केवल उनका स्वरूप वैसा दिखता है वरन् त्रास या उल्लास भी वैसा ही मिलता है। भूत-प्रेतों के सम्बन्ध में जैसी अशुभ कल्पना की जाती है, ठीक देवी-देवताओं के सम्बन्ध में भी वैसी ही होती है। एक काला पक्ष है एक उज्ज्वल। देवी-देवता या भूत-प्रेत होते हैं या नहीं उनके सम्बन्ध में यथार्थता का तो अभी सर्वसम्मत समाधान नहीं हो सका पर इतना निश्चित रूप से सच है कि मान्यताओं के आधार से व्यक्ति वैसा ही अनुभव करता है और डरावने तथा लुभावने ऐसे साक्षात्कार करता है जो श्रद्धा के अनुरूप प्रतिफल दे सके।
इस विज्ञान को “साइकोमेट्री” के आधार पर मान्यता मिली है। क्रिश्चियन साइंस में प्रार्थना द्वारा रोग निवारण का प्रयोग चलता हे और उसकी सफलता भी वैसी ही देखी गयी है। मस्तिष्क विज्ञान के आधार पर कितनी ही क्षमताओं, विशेषताओं के कतिपय केन्द्र निर्धारित किये गये हैं। वहाँ तक किसी बाह्य सामर्थ्य का प्रभाव पहुँचने के लिए “इलेक्ट्रोड्स” काम में लाये जाने लगे हैं। पर साथ ही यह भी देखा गया है कि वैसा ही प्रतिफल विश्वासपूर्वक किये गये ध्यान का भी होता है। “स्वसम्मोहन” ऑटोसजेशन या हिप्नोटिज्म का आधार ही संकल्पबल या इच्छा शक्ति का प्रयोग है। इनका उपयोग चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत करता देखा गया है। संगीत माध्यम के साथ विश्वास का संयोग हो जाने पर कितने ही शारीरिक और मानसिक रोगों पर प्रभाव पड़ता देखा गया है। उन केन्द्रों या अंग अवयवों को विकसित एवं क्रियाशील भी किया जा सकता है। इनका प्रयोग विज्ञान जगत में अब गंभीरतापूर्वक हो रहा है और पाया गया है कि औषधि चिकित्सा या शल्य चिकित्सा की तरह इन प्रयोगों का भी समुचित प्रभाव होता है। जापान के डॉक्टर हिरोशी मोटोयामा ने अपने योगों से सिद्ध किया है कि विश्वास उपचार भी अन्य चिकित्सा पद्धतियों से कम फलप्रद नहीं है। इस आधार पर निष्क्रियता को सक्रियता में बदला जा सकता है और संचित विकृतियों को निकाल बाहर किया जा सकता है।
व्यक्तित्व के उत्थान-पतन में अपने सम्बन्ध में बनायी गयी मान्यता ही फलित होती है। योग वशिष्ठ का यह कथन सर्वथा सत्य है कि जो अपने सम्बन्ध में जैसी धारणा बनाता है वह क्रमशः उसी ढाँचे में ढलता जाता है। इस मान्यता के आधार पर ही लोग ऊँचे उठते और नीचे गिरते हैं। सामान्यतया मनुष्य भी अन्य जीवों की तरह एक प्राणी है पर वह जब अपने सम्बन्ध में श्रेष्ठ सामान्य या निकृष्ट होने की मान्यता बना लेता है तो वह मान्यता ही उसमें उसी स्तर की विशेषताएँ पैदा कर देती हैं और वह उसी दिशा में बढ़ते-बढ़ते अन्ततः पूरी तरह वैसा ही बन जाता है।
ईश्वर या देवताओं के सम्बन्ध में इन मान्यताओं को भी सृजन का श्रेय प्राप्त है। अन्यथा एक ही ईश्वर के इतने चित्र-विचित्र प्रकारों की आकृतियाँ कैसे हो सकती हैं? इन मान्यताओं में यथार्थता रही होती तो हर धर्म और देश में उसी प्रकार की समान अनुभूति होती। दार्शनिकों के इस कथन में बहुत कुछ सत्य है कि मनुष्य को ईश्वर ने गढ़ा है तो यह भी झूठ नहीं है कि ईश्वर सम्बन्धी मान्यताओं का सृजनकर्ता मनुष्य ही है। जिस प्रकार भक्तजनों का सृजनकर्ता मनुष्य ही है। जिस प्रकार भक्तजनों की मान्यता है ईश्वर अपने को उसी रूप और स्वभाव का बना लेता है। यहाँ प्रधानता ईश्वर की नहीं भक्त की ही ठहरती है।
भावना अर्थात् ध्यान। परिपक्व मान्यता और परिपुष्ट ध्यान में कोई अन्तर नहीं है। प्रधान किसे कहा जाय, गौण किसे? यह प्रश्न उतना ही उलझा हुआ है जितना कि बीज से वृक्ष हुआ या वृक्ष से बीज? पहले स्त्री उत्पन्न हुई या पुरुष? वस्तुतः ये अन्योऽन्याश्रित हैं। मकान, सड़क, पुल आदि की तरह पहले व्यक्तित्व या देवी-देवता कल्पना क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं पीछे वे आकृति और प्रकृति के रूप में प्रत्यक्ष परिचय देने लगते हैं।
ध्यान ही योजना है। योजना ही ध्यान। उन्हें प्रतिपादन और निर्धारण की तरह अन्योऽन्याश्रित भी कह सकते हैं। वस्तुतः ध्यान का उपयोग अप्रत्यक्ष जगत की संरचना में उतना सार्थक नहीं होता जितना कि प्रत्यक्ष जीवन को योजनाबद्ध बनाने में। अच्छा हो अपने जीवन यापन की अब से लेकर अन्त समय तक की एक सार्थक कल्पना करें और उसे किस प्रकार व्यतीत करें इसकी रूपरेखा बनाएँ। जीवन प्रत्यक्ष देवता है उसका उच्चतम अनुग्रह किस प्रकार की साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, इसकी रूप-रेखा बनाने में दिशाधारा विनिर्मित करने में ध्यान योग का उपयोग कर सकें तो वह प्रयास अधिक सार्थक और अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है।
लोग जिन्दगी को किसी प्रकार जीते और मौत के दिन पूरे करते हैं। न उसका कोई उद्देश्य निर्धारित कर पाते हैं और न कार्यक्रम। बिना लगाम के घोड़े की तरह अनियन्त्रित मन की तरह जीवन भी जिधर-तिधर बहता और ज्यों-त्यों करके बीतता है। इसकी परिणति प्रत्यक्ष है। खीजते-खिजाते डरते-डराते श्मशान में रहने वाले भूत-पलीतों की तरह नीरस और निरर्थक जीवन जीना। यह कल्पना शक्ति के अभाव का कारण है। लाटरी खुलने पर मिलने वाली राशि को ऐसे ही लोग एकाध वर्ष के भीतर बर्बाद कर देते हैं। फण्ड, बोनस में जिन्हें लम्बी रकमें मिलती हैं उनके पास भी वह राशि अधिक समय नहीं ठहरती। कारण एक ही है कि उस उपलब्ध धन को व्यय करने का कोई सारगर्भित कार्यक्रम नहीं बन पाता। यही बात जीवन सम्पदा के सम्बन्ध में भी है। वह जिस-तिस प्रकार खर्च होता और समय काटता रहता है।
अच्छा होता हमारा ध्यान जीवन का महत्व समझने और उसे किसी उच्च उद्देश्य के लिए नियोजित करने में लगता और उसके सदुपयोग की कोई कारगर योजना बन पाती। सोचा जाता कि बुढ़ापे की कठिनाइयों का समय रहते बचाव कर लिया जाय और मौत के उपरान्त जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। उनसे निपटने के लिए ऐसा प्रबन्ध कर लिया जाय जिससे समय निकल जाने पर पश्चाताप न करना पड़े।
निज का जीवनयापन करने और भविष्य का भला-बुरा निर्धारण करने की बात जिस तरह अपने हाथ में है। उसी प्रकार यह भी अपना ही दायित्व है कि पत्नी को भी ऐसी स्थिति में रखा जाय कि वह अच्छा साथी मिलने के लिए भाग्य को सराहती रहे और कृतज्ञता व्यक्त करती रहे। बच्चों का दायित्व इससे भी अधिक बढ़कर है। उन्हें बुला कर दुर्गति में फँसा देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा था कि उन्हें बुलाया ही न जाता।
ध्यान उस विश्व चेतना का भी रखना है जिससे प्रत्येक घटक का असीम अहसान अपने ऊपर लदा हुआ है। व्यक्ति एकाकी स्थिति में तो असहाय अनाथ है। उसे इस विश्व की असंख्य इकाइयाँ मिल कर जीवित रह सकने की स्थिति बनाती हैं। उनके प्रति भी अपना कुछ कर्तव्य है क्या? जीवन किसी प्रयोजन विशेष के लिए मिला है क्या? ध्यान रखने योग्य यह सब बातें भी हैं। इन्हें भुला देने पर मात्र पूजापाठपरक ध्यान अधूरा एवं खिलवाड़ भर रह जाता है।