व्यावहारिक अध्यात्म का मर्म

December 1990

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महाराज रविशंकर के पास कहीं से सवा सौ मन अनाज आया था। उनके पास सम्पन्न व्यक्ति प्रायः इस उद्देश्य से कुछ भिजवाते थे कि उसे निर्धनों में बँटवा दिया जाय और जिनके पास खाने -पीने पहनने ओढ़ने के पर्याप्त साधन नहीं है उनकी कुछ सेवा सहायता हो सके। महाराज रविशंकर ने हमेशा की भाँति वह अनाज बाँटने का प्रबन्ध किया और गरीबों की बस्ती में गए। उस बस्ती में खेल रही थी एक बालिका। महाराज ने उसे देखकर कहा जा बिटिया तू भी कोई बर्तन ले आ और अपने हिस्से का अनाज ले ले।

लड़की ने कहा मेरी माँ मजदूरी से आती होगी। पैसे उसी के पास हैं जब वह आएगी तब हम अनाज ले लेंगे।

लड़की समझती थी कि महाराज अनाज खरीदने के लिए कह रहे हैं। परन्तु जब उसे बताया गया कि यह अनाज बेचा नहीं जा रहा, बल्कि मुफ्त में बाँटा जा रहा है तो उसने लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने इसका कारण पूछा तो वह बोली स्वामी जी! मेरी माँ ने मुझे सिखाया है कि मुफ्त में किसी से कुछ न लेना चाहिए देने वाला भले ही भगवान क्यों न हो।

“अच्छा।” छोटी सी बालिका के मुख से यह बात सुनकर वह आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने निश्चय किया कि जो माँ अपने बच्चों को इतने अच्छे संस्कार दे सकती है, उसका चरित्र साधारण न होगा। उससे मिलना चाहिए। उनने बालिका से कहा क्या तुम मुझे अपनी माँ से मिलवा सकती हो।”

“ठीक है! आप अपने काम से निबट जाइए तब तक मेरी माँ भी आती ही होगी “ और वह लड़की खेलने में व्यस्त हो गयी तथा महाराज अपने काम में। जब उनके काम का अन्तिम चरण चल रहा था तभी वह लड़की आयी और उनको अपनी माँ से मिलवाने ले गई। रविशंकर जी ने देखा उस लड़की की माँ साधारण कपड़े पहने एक प्रौढ़ आयु की स्त्री थी।उस स्त्री ने उठकर उनका अभिवादन किया। उनने उसे देखकर पूछा “ देवि! तुमने अपनी लड़की को कोई वस्तु मुफ्त में न लेने की सीख दी है”?

इसमें कौन बड़ी बात है” महाराज! जब भगवान ने हाथ पैर दिए हैं तो फिर मेहनत करके अपना पेट पालना चाहिए। इसमें सिखाने या समझाने जैसी कौन बात है?”

उन्होंने उस महिला से गृहव्यवस्था और निर्वाह कैसे चलता है? आदि बातें पूछीं तो उसने बताया कि “वह युवावस्था में विधवा हो गई थी, तभी से जंगल में से लकड़ियाँ काट कर लाती और उन्हें बेचकर अपना गुजारा करती”। महाराज से न रहा गया उन्होंने पूछा “ क्या तुम्हारे पति की कोई जमीन जायदाद नहीं थी?”

तब उस महिला ने कहा” थी तो महाराज! कोई तीस बीघा जमीन और एक जोड़ी बैल थे। मैंने सोचा यह तो इस बेटी के पिता की सम्पत्ति है। उस पर मेरा क्या अधिकार। मैंने उसे प्राप्त करने या बढ़ाने में कोई योगदान तो दिया था नहीं। इधर मैं कई दिनों से देख रही थी कि इस गाँव की माँ बहिनें पानी लाने के लिए गाँव से बाहर करीब तीन -मील जाती हैं। आस -पास कोई कुआं नहीं था, रेगिस्तानी इलाका होने के कारण बहुत गहरे खोदने पर पानी निकलता है, इसलिए कोई कुआं खोदता भी न था। अतः मैंने अपने सारे खेत और बैलों की जोड़ी गाँव के ही एक सेठ की सहायता से बेच दिये। जो कुछ मिला उससे गाँव में एक कुआं बनवा दिया। जमीन काफी थी बेचने पर पैसा भी अच्छा मिला इसलिए कुआं बन जाने के बाद भी कुछ पैसा बचा तो उससे पशुओं की पास प्यास बुझाने के लिए एक हौदी बनवा दी। अब गाँव वालों को गर्मियों में भी पानी का अभाव नहीं रहता।”

उस विधवा के उत्सर्ग और त्याग की कथा सुनकर रविशंकर महाराज बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा धन्य हो देवि! तुम इस समूचे गाँव की माँ हो। धन से न सही मन से तो तुम इतनी धनवान् हो कि तुम्हारी सम्पन्नता को कोई लखपति तो क्या करोड़पति भी नहीं पहुँच सकता। तभी तो तुम्हारी लड़की को देखकर मैंने समझ लिया कि वह किसी साधारण माँ की बेटी नहीं है।

महाराज! शर्मिंदा मत कीजिए कहकर माँ ने उनके चरणों में अपना सिर रख दिया।

हैं कहीं ऐसी आदर्शवादी माँ, जिसे दूसरों का दर्द अपना लगता हो, सारे समुदाय की सेवा में जिसे आनन्द आता हो तथा स्वाभिमानी कोई भी चीज मुफ्त में नहीं लेता, यह अपने बच्चों को जिसने सिखाया हो? यही तो है सच्चा अध्यात्म जिसका अवलम्बन व्यक्ति को महापुरुषों की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। ऐसे सिद्धान्तों का अवलम्बन करने वालों को ही भारतीय संस्कृति में “ भूसुर “ पृथ्वी वासी देवता कहकर पुकारा जाता रहा है। आवश्यकता आज ऐसे ही ब्रह्म बीजों की है।


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