उच्चस्तरीय सान्निध्य की परिणति

December 1990

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गर्ग संहिता के सूत्र 62/9 में कहा गया है ‘गंगा पाप का, चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, किन्तु महामानवों की संगति, उनका सान्निध्य पाप, ताप और दैन्य तीनों का नाश कर देते हैं। महापुरुष संपर्क में आने वालों की बुद्धि की जड़ता, मन की मलिनता को दूर कर उसे परिष्कृत स्तर का बनाते, वाणी में सत्य का संचार करते और सम्मान में अभिवृद्धि करते हैं। कोई भी व्यक्ति या वस्तु महान का आश्रय पाकर उत्कर्ष को प्राप्त हुए बिना नहीं रहती। सत्संगति का प्रतिफल भी यही है।

उच्चस्तरीय मस्तिष्क कमजोर बालों को किस प्रकार इच्छित दिशा में घसीट ले जाते हैं, इस संदर्भ में मनोवेत्ताओं एवं भौतिक विज्ञानियों ने अपने-अपने ढंग से अनुसंधान किये हैं। दोनों क्षेत्रों के निष्कर्ष लगभग समान हैं। इनके अनुसार कमजोर एवं अपरिष्कृत मन-मस्तिष्क वाले मनुष्यों को यदि परिष्कृत व्यक्तित्वों का सतत् सान्निध्य मिलता रहे, तो उन्हें जैसा चाहें सोचने, मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप परिष्कृत व्यक्तित्व एवं शुद्ध सात्विक मनःस्थिति का प्रचण्ड प्रभाव देखना हो तो वह विवेकानन्द, महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन मार्टिन लूथर किंग आदि महापुरुषों के रूप में देखा जा सकता है जिन्होंने अकेले ही अपने समाज तथा संसार में महत्वपूर्ण क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किये।

वस्तुतः परिष्कृत मन की शक्ति अणुशक्ति से किसी भी प्रकार कम नहीं है, वरन् उससे अधिक ही समर्थ और प्रचण्ड है। इस स्तर के व्यक्तित्वों के संपर्क में आने वाले भी तदनुरूप बनते और और ढलते चले जाते हैं। इतिहास पुराणों में वर्णित हृदय परिवर्तन एवं जनमानस के परिष्कार की घटनाएँ इसी मनःशक्ति के सृजन उपयोगों के उदाहरण हैं। इस तथ्य को भारतीय तत्त्वदर्शियों ने बहुत पहले जान लिया था कि परिष्कृत चेतना ही अनगढ़ स्वभावों में सुधार परिवर्तन कर सकने में सक्षम हो सकती है। विज्ञानवेत्ता भी अब इस तथ्य का समर्थन करने लगे हैं। प्राणिशास्त्री चिस्टन एवं मनोविज्ञानी वेलोस्कोव जैसे मूर्धन्य अनुसंधान कर्ताओं का कहना है कि मानसिक विकास की बहुत कुछ संभावना इस बात पर निर्भर है कि अविकसित मस्तिष्क वालों का सतत् सान्निध्य मिलता रहे। मनुष्य का बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास बहुत कुछ उच्चस्तरीय संगति पर निर्भर करता है। समीपता के कारण उनके सोचने का ढंग और भावनाएँ बहुत कुछ वैसी ही बनने लगती हैं, जैसे कि प्रभावशाली व्यक्तित्वों का निज का होता है।

प्राचीनकाल से लेकर अर्वाचीन काल तक के ऋषि मनीषियों एवं अध्यात्मवेत्ताओं ने इस तरह के कितने ही प्रयोग किये और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की समीपता पाने वालों में से कितने ही उन्हीं की तरह महानता अर्जित कर सके, यह कोई छुपा तथ्य नहीं है। अपने समय में अकेले बुद्ध की प्रचण्ड विचार धारा ने लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिकवादी महत्त्वाकाँक्षी गतिविधियाँ छोड़कर उस कष्ट कर प्रयोजन में सहभागी बनने के लिए विवश कर दिया था, जो बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए संलग्न कर दिया जो उन दिनों असंभव माना जाता था कृष्ण ने महाभारत की भूमि रची और उसके लिए मनोभूमियाँ उत्तेजित की उनके समीप आने वाले ग्वाल-बाल तक अपने व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बना सकें।

ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, जरथुस्त्र आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे, जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं, पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उनके उपदेशों पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं, उस मनोबल की कमी ही कारणभूत तत्व है, जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना संभव न हो सका। नारद जैसे मनस्वी ही अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवनधारा बदल सकते हैं। बाल्मीकि, ध्रुव, प्रह्लाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।

सत्संग उसी स्तर के महामानवों का किया जाना चाहिए, जिनकी उत्कृष्टता से सुसम्पन्न व्यक्तित्व का तेजस् दूसरे अल्प तेजस् व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते-देखते समर्थ बनाकर रख दे। दीपक से दीपक जलने का, पारस-स्पर्श से लोहा सोना होने का कौवे का कोयल और बगुले का हंस बन जाने के उदाहरण सर्वविदित हैं जो इसी संदर्भ की पुष्टि करते हैं, कि मनुष्य का मन और दृष्टिकोण उच्चस्तरीय सान्निध्य से ही परिष्कृत होता है।


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