“मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ!”

December 1990

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महासागर के शान्त वक्षस्थल पर भयानक झंझावात उठने के पहले एक घोर निस्तब्धता छा जाती है। उस समय वायुमण्डल उत्तेजित हो उठता है। और सारा वातावरण एक आशंका से शून्य सा हो जाता है। आकाश के वक्ष पर ज्वालामुखी के फटने के पहले एक घोर दबी हुई अशान्ति फैल जाती है, उसका नीला रंग धूमिल हो जाता है और एक भय से सारा आकाश-मण्डल वायु से रिक्त हो जाता है।

कारागार के इस कक्ष में कुछ ऐसी ही शून्यता-रिक्तता छाई हुई थीं। उनके पास बैठे इन सबकी दशा तो और बदतर थी। अन्दर के उद्वेलन के बावजूद इन्हें अनुभव हो रहा था जैसे अंगों में लहू की भाग दौड़ साँसों की घुसपैठ सभी कुछ थमने को है। निराशा, भय, आशंका रिक्तता के इस माहौल में सिर्फ एक वही प्रसन्न लग रहे थे। पता नहीं कौन सी ऐसी अमर मूरि थी उनके पास।

“तब फिर आप नहीं ही चलेंगे।” पास बैठे सत्ताईस -अट्ठाइस साल के युवक ने पूछा? भावों के अतिरेक से उसका गला रुंधा था। काफी देर से समीप बैठा आँखें नीचे किये पैर के अँगूठे से फर्श खुरच रहा था। उसे सूझ नहीं रहा था क्या करे वह।

न्यायालय से उन्हें मृत्युदण्ड घोषित किए जाने के बाद इन सबने उनको कारागार से छुड़ाने की योजना बनाई थी। सब कुछ ठीक हो गया था पर किया क्या जाय वह स्वयं मना कर रहे थे। जेल कर्मचारियों की भी गुप-चुप सहमति थी। सभी को पता था, न्यायाधीशों ने विद्वेषियों के दबाव में आकर फैसला सुनाया था। उनके रहने से कितनों का ही कल्याण हो रहा था। उनके रहने से कितनों का ही कल्याण हो रहा था। कितने ही भटकन से उबरें थे। पर.....उसने उनके चेहरे की ओर देखा। सत्तर वर्ष से अधिक अवस्था हो जाने के बाद भी झुर्रियाँ और मलिनता के निशान न थे। प्रफुल्लता भरी ताजगी थिरक रही थी।

“अरे! मृत्यु मेरी और उदासी तुम सबके चेहरों पर,” हँसते हुए उनने उसका कंधा थपथपाया। फिर गम्भीर हो बोले-कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब किसी की मृत्यु का मोल जीवन से अनेकों गुना अधिक हो जाता है। जिस समय स्थूल शरीर सूक्ष्मतम शक्तियों के क्रिया−कलाप में अवरोध बनने लगे। ऐसी दशा में ठीक यही है कि इस खोल को उतार दिया जाय। सभी दम साधे सुन रहे थे। कौन क्या बोल? बोले भी तो क्या?

“पर आपके रहने से अनेकों का भला.....।” एक अन्य ने निवेदन करना चाहा। उसकी वाणी में हिचकिचाहट के साथ अनुनय का पुट था।

“फीडो! लगता है तुम लोग मुझे पहचान नहीं पाए। इन सबकी आँखों में झाँकते हुए बोल-मैंने कितनी बार समझाया कि मैं व्यक्ति नहीं हूँ।”

इस कथन को सुन पास आ रहे एक जेल कर्मचारी के पाँव ठिठक गए। वह बताने आ रहा था निकलने का सभी सुयोग बन चुका है। किन्तु मैं व्यक्ति नहीं हूँ” सुनकर अवाक् रह गया। सोचने लगा-कैसा विलक्षण है यह आदमी जो कह रहा था कि मैं आदमी नहीं, व्यक्ति नहीं।

“तो महाशय आप क्या हैं।” उसकी जिज्ञासा होठों से निकले बगैर रह न सकी।

“मैं विचार हूँ मित्र!” चेहरे पर गम्भीरता और आँखों में एक अनोखी चमक खेल रही थी। कुछ रुक कर बोले-जहर पीस लिया गया।”

यहाँ तो......।”

“नहीं! तुम जहर पीसो।”

सुनने के साथ उसके पैर द्वार की ओर मुड़. गए। वह पुनः अपने शिष्यों को समझाने लगे-तुम सबके दुःखी निराश होने का कारण यही है कि तुम लोग मुझे व्यक्ति के रूप में पहचानते आए हो। आज जबकि इसके खो जाने का, बिछुड़ने को समय आ गया सब के सब विकल हो। पर मैं व्यक्ति था ही कब? यदि मेरे द्वारा किसी का भला हुआ भी है तो सिर्फ विचारों के कारण।

“विचारों की शक्ति आपसे भी ज्यादा!” गुरु से बिछुड़ने के दुःख ने उसके मन में अजीब सी सनसनाहट भर दी थी। समझना चाहकर समझ नहीं पा रहा था।

“हाँ इनकी अपार शक्ति है प्लेटो।” उनका सर्वाधिक प्रिय शिष्य था। विनम्र और मितभाषी। सारी उम्र उन्होंने जो ज्ञान की मशाल जलाई, अब उसे प्रज्ज्वलित रखने का दायित्व उसी का था, अन्यों को तो सिर्फ सहायक भर होना था। विचार कर्म के प्रेरक हैं। वह अच्छे कर्मों में लग जाएँ तो अच्छे और बुरे मार्ग में प्रवृत्त हो डडडड तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। सच मानों आदमी किसी अकेली कोठरी में बन्द विचार करे और ऐसा ही करते हुए मर जाए विचार कुछ समय बाद कोठरी दीवारों को भेद कर बाहर निकल पड़ेंगे और अनेकों को प्रभावित किए बिना न रहेंगे। वात्सल्य के अनुपात में सने ये शब्द सुनने वालों के दिलों में समाए बिना न रह सके।

शिष्यों को अपने गुरु की व्यथा मालूम थी। उन्हें ज्ञात था कि उनकी मुसकान के आवरण में कितनी तड़पन छुपी है। सारी उम्र उन्होंने जीवनों को सँवारा है और अब जबकि वह स्वयं महाप्रयाण की ओर गतिमान हैं। वामन विराट होने की दिशा में पाँव बढ़ा रहे हैं, उनके कार्य का गुरुतर दायित्व शिष्य परिकर को ही तो वहन करना पड़ेगा।

“देख नहीं रहे लोक जीवन का प्रवाह।” उनकी वाणी अन्तराल की गहराइयों से उभरी।” करो-शरीर क्या है? मलमूत्र से भरा और हाड़-माँस से बना घिनौना किंतु चलता-फिरता पुतला। जीव क्या है? आपाधापी में निरत, दूसरों को नोंच खाने की कुटिलता में संलग्न चेतना स्फुल्लिंग। जीवन क्या है? एक लदा हुआ भार जिसे कष्ट और खीज़ के साथ ज्यों-त्यों वहन करना पड़ता है। पेट और प्रजनन इसका लक्ष्य बन गया है, लिप्सा और लोलुपता की खाज-खुजाते रहना, इसका प्रिय प्रसंग।”

कितनी सटीक विवेचना है-आज के सामाजिक और वैयक्तिक जीवन की। उन सबके मन अपने गुरु से एकाकार हो रहे थे।

जन समुदाय को इस विडम्बना से उबारने के लिए उसके विचारों में क्राँतिकारी परिवर्तन करना होगा। इस परिवर्तन के बाद ही वह समझ सकेगा कि शरीर-भगवान का मन्दिर है। व्यक्तित्व आस्था है और मनुष्य श्रद्धा। चेष्टाएँ-आकांक्षाओं की प्रतिध्वनि हैं। इन सबके समायोजन का ही उपाय है कि विचार बदलें तुम लोग मेरे विचारों के संवाहक बनो।

बात -चीत का क्रम चल रहा था, इतने में जेल का अधीक्षक स्वयं विष के घोल से भरा प्याला लेकर आ गया। उसकी स्वयं की आँखें डबडबाई हुई थी। उसे देखकर अन्यों की आँखें भर आई। पर सभी विवश थे।

उन्होंने मुसकराते हुए प्याले को हाथ में लिया और बोले। इसमें निहित द्रव अज्ञान की बूँदें का संघटन है। मैं विष नहीं अज्ञान पीने को तत्पर हुआ हूँ। मेरे सशरीर न रहने पर तुम सबकी जिम्मेदारी अब की अपेक्षा असंख्यों गुना बढ़ जाएगी। विश्वास रखो- विचारों के रूप में प्रेरक शक्ति के रूप में तुम सब प्रतिपल मुझे अनुभव कर सकोगे। पहले मैं एक शरीर के रूप में कार्य करता था और आज से तुम सभी के माध्यम से अनेकों शरीरों द्वारा कार्य करूँगा। अद्भुत होगा ज्ञान और कर्म शक्ति का यह समन्वय। चमत्कारी परिणाम देखकर चौंक उठेगा संसार।”

प्याला अधरों से जा लगा। सिसकियाँ फूट पड़ी। एक-एक घूँट के बढ़ते क्रम के अनुसार बढ़ता जा रहा था। उनके मुख पर प्रसन्नता और आँखों में दीप्ति यकायक बढ़ी और फिर मन्द पड़ने लगी। उनके आखिरी शब्द थे चिन्तित मत हो, घबड़ाओ नहीं तुम सभी विचारों के रूप में, ज्ञान के रूप में और मार्गदर्शक के रूप में हर पल-हर क्षण महसूस करोगे। ध्यान रखना कर्म शक्ति मन्द न पड़े।

स्वयं को व्यक्ति नहीं विचार कहने वाले यह महामानव थे-यूनानी दर्शन के पितामह-सुकरात जिनके द्वारा जलाई गई ज्ञान की मशाल को उनके शिष्यों ने निज का प्राणपण कर जलाए रखा। अब हम सबकी बारी आ पहुँची है-युग सुकरात” के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने की।


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