कूड़े के ढेर से जन्मा एक महामानव

December 1990

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कूड़े के ढेर को उसने कुछ उलटा-पलटा डोबारिका शहर के इस होटल के पीछे पड़ी इस जगह में होटल वाले अपनी बची जूठन, रोटियों के टुकड़े डाल जाते थे। उसके सिवा यहाँ की छान-बीन करने कुछ कुत्तों के अलावा और काई नहीं आता था। शायद किसी को आने की जरूरत भी नहीं थी। उसने आँखें ऊपर की ओर उठाई। सूर्य डूब रहा था। थोड़ी देर के लिए एक बादल ने आकर उसे ढक लिया फिर वह हट गया, ठीक सामने क्षितिज के किनारे सूर्य निकल आया और खाली पड़ी जमीन को ज्योति से भर दिया। कूड़े के ढेर में अकस्मात् सुवर्ण बरस पड़ा। इसके बाद सूर्य अस्त हो गया। उसने एक नजर अपनी ओर डाली। शरीर पर फटे चीथड़ों के अलावा और क्या था?

शरीर को भेदती हुई उसकी नजर और गहरे चली गई। वर्तमान के परे का अतीत झलकने लगा। 14 मार्च 1848 में रूस के निजनी नोवा स्थान में उसने पहली बार अपनी आँखें खोली थीं। गरीबी और विवशता यही उसकी मित्र बनी। क्या कुछ नहीं देखा उसने तब से आज तक। दोनों मामाओं की मार खा कर पिता को मरते देखा था। मनुष्य की दया माया का इस तरह दिवाला निकलते देख कितना रोया था वह। याद में उसकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े। नाना की क्रूर स्वार्थी प्रवृत्ति के शिकार उसके रँगाई कारखाने के श्रमिकों को कोल्हू के बैल की तरह काम करते और आधे पेट भूखे सोते भी उसने देखा था। मानव का दर्द दिल की गहराइयों से अनुभव करता आया था वह। एक दिन वह भी आया जब कृपण-निष्ठुर नाना ने बूढ़ी नानी के साथ उसे निकाल दिया था। माँ पहले ही पता नहीं कहाँ चली गई थी। तब वह करीब आठ साल का होगा।

तब से अब, अतीत से अतल सागर से उबरते हुए मुस्कराया। मुसकान में पीड़ा और कर्मठता का अजीब सा मिश्रण छलछला रहा था। क्या कुछ उसने नहीं सहा-अपमान तिरस्कार, फटकार, मार। कूड़े का यह ढेर उसका बहुत दिनों का साथी था। यहीं से फटे कागजों को उठाकर, तुड़े-मुड़े सड़-गल रहे अक्षरों को जोड़कर उसने पढ़ना सीखा था। यही उसकी पाठशाला थी। पढ़ने का शौक इतना उभरा कि जब कभी किसी के पास अच्छी पुस्तक का पता चलता, उसके पास पहुँच जाता। उसकी मजदूरी करता, बदले में एक-आध दिन के लिए किताब माँगकर पढ़ लेता। देने वाले हँसते, तिरस्कार भरे स्वर में कहते क्या करेगा पढ़कर यह सब तू! बदले में वह चुप्पी साध लेता। इसी चुप्पी के पीछे कितना कुछ छुपा है किसी को क्या पता?

उसके हाथ तेजी से कूड़े के ढेर को उलटने-पलटने लगे। शाम का धुँधलका बढ़ता जा रहा था। निशा के सागर की बलवती लहरें-घहराती बलखाती जैसे समूची धरती सारे आसमान को एक साथ अपने आगोश में ले लेना चाहती हो। बाहर की तरह उसके भीतर भी कुछ घटित हो रहा था। यादें घुमड़-घुमड़ कर मन पर छा जातीं कुछ ढूँढ़ते हुए हाथों की गति मन्द पड़ने लगती। अब तो नानी को भी मरे बहुत दिन हो गये। रात्रि को रेलवे स्टेशन में चौकीदारी करता। दिन भर अपनी कोठरी में कुछ पढ़ता लिखता रहता। उसका निवास जिसे कोठरी की अपेक्षा कालकोठरी कहना अधिक सही होगा। बदबू और सीलन भरी जगह और वस्त्र उनकी तो चर्चा भी बेकार। जब पहनने के लिए कपड़े नहीं जुट रहे तो ओढ़ने-बिछाने के लिए कहाँ से आए।

कचरे के ढेर में कुछ निकालते हुए बुदबुदाया-चलो कुछ तो मिला। सामने कोई आ रहा था। “कौन?” उसने सारी शक्ति को आँखों में केन्द्रीभूत करते हुए-घने होते जा रहे धुँधलके को भेदने की चेष्टा की। आने वाला धीरे-धीरे बढ़ रहा था। स्पष्ट न दीख पड़ने पर भी छाया जैसी हिलडुल रही एक आकृति बढ़ती हुई नजर आ रही थी। प्रश्न अभी यथावत् था। नजरें अभी भी उठी थीं। हाथों की हरकत शान्त थी। इतने में आने वाला पास आ चुका था। दोनों ने एक दूसरे को पहचाना। उल्लास की रेखाएँ चेहरों पर चमकी और अँधेरे में विलीन हो गई। आने वाले ने स्नेहपूर्वक कहा-भले आदमी अपने शरीर का ख्याल करो। रात भर जागकर चौकीदारी दिन भर किताबों में सिर खपाना। न ढंग से खाना, न ठीक से सोना। इस तरह कब तक चलेगा।” यह था उसका मित्र ग्रेगरी।

बातों-बातों में आने वाले की नजर उसके हाथ की ओर गई। उसमें रोटी का टुकड़ा थमा था। “तो क्या आ.....ज.....भी”। बोलने वाला हकला गया।

दरअसल क्या...? उसने कुछ छिपाने की कोशिश करते हुए कहना चाहा। दरअसल क्या? “सारी तनख्वाह किताबों में झोंक दी होगी। भूख लगी तो कूड़े के ढेर से रोटी बीनने आ गए।”

“मुझे समझने की कोशिश करो, ग्रेगरी! मेरी एक ही साध है कि मैं मानव का दर्द साहित्य के माध्यम से मानव को समझा सकूँ। जब तक यह नहीं कर लेता...।”

“तुम्हारी इस साध को मैं पागलपन कहता हूँ। कौन सुनेगा तुम्हारी। नक्काल खाने में तूती की आवाज नहीं गूंजा करती। सिर टकराने से कहीं दीवारें भी टूटी हैं?”

“जबकि मेरा पूरा विश्वास है कि यदि श्रम और समय का नियोजन हो सके। उसमें पूरा मनोयोग जुट सके, मनोबल बरकरार रहे तो सभी कुछ सम्भव है।” उसने मित्र की आँखों में झाँका” जानते हो सिर्फ बोझ होता है मनोयोग के बिना। मनोयोग लगे पर श्रम न हो तो व्यावहारिक जगत में कुछ नहीं बन पड़ता और यदि समय का सही नियोजन न हो तो दोनों इधर-उधर भटकते रहते हैं। जैसे ही तीनों मिले कि सभी कुछ सम्भव दिखने लगता है।”

“फिर क्यों लौट आती हैं, तुम्हारी रचनाएँ।”

“शायद मेरे में अभी कुछ कमी होगी।” कुछ सोचता हुआ बोला-जो दो-चार बार हारने पर ही हार मान बैठे-वह भी कोई इंसान है।” वाणी आत्मविश्वास से सनी थी।

हाँ-हाँ जो तुम्हारी तरह बार-बार सिर टकराता रहे, वही इंसान है, बाकी तो सब.....।” आगे के शब्द गले में फँस गए।

“कुछ भी कहो, जब तक मैं मानव को कर्तव्य बोध नहीं करा लेता रुक नहीं सकता, अवरोध मुझे झुका नहीं सकते।”

“मत रुकना! मत झुकना! चौकीदारी करने चलना है कि नहीं।” उसे जैसे कुछ याद आया। एक साथ चार कदम अँधेरे के सागर को चीरते बढ़ने लगे। दोनों मौन थे पर सतही ढंग से भीतर कुछ घट रहा था किन्तु एक जैसा नहीं सर्वथा अलग-अलग कारण मनोभूमि की भिन्नता थी। एक परिस्थितियों के अनुरूप ढल पाने, हर कदम पर समझौता कर बैठने को ही जीवन मानता था। आदर्श और सिद्धान्त उसके लिए बेवकूफी थे। दूसरे के लिए यही सब कुछ थे। इन्हीं के द्वारा उसे परिस्थितियों को मोड़ना था। इनमें से कौन श्रेष्ठ था, इसका मूल्याँकन समय के सिवा और कौन करे?

रेलवे स्टेशन पर टिमटिमाती बत्तियों को देखकर दोनों चौंके। चौंकने के साथ ही दोनों के मुख पर से दो शब्द निकले-आ गया। पहुँचते ही अख़बार बेचने वाले की आवाज कान में पड़ी-वह कुछ कह रहा था। आवाज को अनसुना करते हुए उसने एक अख़बार लिया। यह काकेशस का विशेषांक था। पेज पलटते ही उछल पड़ा वह। मुख मण्डल पर सैकड़ों आश्चर्य एक साथ तैर गए। वह जैसे प्रसन्नता के सागर में समाने लगा हो।

भावों का यह परिवर्तन मित्र से छुपा न रह सका। कंधा हिलाते हुए उसने पूछा-क्या हुआ अलेक्सी”! आज मेरा जन्म हुआ है ग्रेगरी।”

“जन्म....”। “हाँ! साहित्यकार के रूप में और जन्मदाता है कूड़े का ढेर। जिसने मेरा पोषण किया। उसी के बल पर आज।” कहते हुए उसने अख़बार ग्रेगरी के सामने कर दिया। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-भाकार चन्दा। इस कहानी का लेखक था वह स्वयं।

अरे तुम गोर्की कब से बन गए। मित्र के चेहरे पर भी प्रसन्नता छलक पड़ी।

“गोर्की अर्थात्-तेज-मैं तेजी से समाज की विवशताओं के बन्धन काटना चाहता हूँ न इसलिए गोर्की बना”। दोनों किन्हीं सुखद अनुभूतियों में खोने लगे। यह गोर्की और कोई नहीं विश्व के सर्वश्रेष्ठ रूसी साहित्यकार मैक्सिसगोर्की ही थे, जिनके साहित्य ने रूस की क्रान्ति को दिशा दी। समाज की विवशता से उबारा। आज हर मानव उन्हीं की तरह अपने श्रम, समय, मनोयोग का नियोजन हो रही महाक्रान्ति के लिए कर सके, तो भावी युग मानव जाति का अभिनन्दन किए बिना न रहे।


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