युग के विश्वमित्र द्वारा राम-लक्ष्मण की माँग

December 1990

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सभी बैठे हुए थे कि शोर मचा-जत्था आ गया! पश्चिम में गर्द उड़ती हुई नजर आ रही थी, मानों पृथ्वी उन यात्रियों के स्वागत में अपने नररत्नों की वर्षा कर रही हो। गाँव के स्त्री पुरुष सब काम छोड़-छोड़ कर उनका अभिवादन करने दौड़ पड़े। क्षण में तिरंगी पताका हवा में फहराती दिखाई दी।

जरा देर में यात्रियों का दल साफ नजर आने लगा। दो-दो आदमियों की कतारें थीं। हर एक की देह पर खद्दर का कुर्ता था, सिर पर गाँधी टोपी, बगल में लटकता हुआ थैला, दोनों हाथ खाली जैसे नए जमाने का आलिंगन करने के लिए तैयार हों। उनके मर्दाने गले से एक तराना निकल रहा था, गर्म, गहरा, दिलों में स्फूर्ति डालने वाला। जिसे सुनकर सभी के भाव उमगने लगे। गाँव वालों ने कई कदम आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। उनके सिरों पर धूल जमीं थी होंठ सूखे हुए चेहरे संवलाए पर आँखों में नव समाज की भव्यता प्रदीप्त थी।

आने के साथ उन सब ने अपने पटुके से धूल साफ की हाथ पैर धोया तनिक विश्राम करने के साथ ही गाँव के चौधरी को निवेदन किया “हम लोग अपने मार्गदर्शक की कुछ बातें आप को बताना चाहते हैं। सुनने की कृपा करेंगे।” चौधरी सहर्ष तैयार हो गया। शाम के उसके दरवाजे पर मशालें जलने लगीं। गाँव के अनेकों आदमी जाम हो गए। महिलाएँ छतों पर खड़े होकर कहना प्रारम्भ किया।

“भाइयों। आप सब ने हम लोगों का आदर सत्कार किया व हम में से किसी व्यक्ति का सत्कार न होकर बदलते समाज का सत्कार है। मैंने पूरब और पश्चिम के बहुत से देशों को देखा है और तजुरबे से कहता हूँ कि आप में जो सरलता जो ईमानदारी जो श्रम और धर्म बुद्धि वह कहीं और नहीं। इन दैवी गुणों के बावजूद आप लोगों को विवशता और घुटन की जो त्रासदी सहनी पड़ती है उसका एक ही कारण है भटकाव।”

सुनने वाले अचकचा कर सोचने लगे भटकाव कैसा? भटका हुआ कौन? वह कह रहे थे “आपके श्रम सीकरों की रत्नराशि को दहेज का डाकू लूट ले जाता है, मृतक भोज के गिद्ध नोंच ले जाते हैं, जो कुछ बचता है वह मुकदमेबाजी की आग में स्वाहा हो जाता है।” सही तो कह रहे हैं। अनेकों होंठ बुदबुदाए। कहने वाले की वाणी गतिमान थी सब कुछ लुटने गँवाने के बाद भी चैन नहीं। कन्याओं के आँसू पोंछने में हमारे हाथ असमर्थ हैं, जिन्दगी में चैन हम नहीं ला पा रहे हैं, जानते हैं क्यों? “क्यों?” अनेकों ने इस एक शब्द को दुहराया।

“सिर्फ इसलिए कि हम धर्म को भूल गए हैं”। धर्म को भूल गए हैं, भला यह कैसे? धर्म तो हमारा प्राण है।” नहीं भाई यह बात सच नहीं है।” न चाहते हुए आखिरी शब्द किसी के कण्ठ से जोर से निकल गए।”तनिक फिर से परखिए जिसे आपने धर्म कहकर छाती से चिपटा रखा है, वह धर्म है अथवा कुरीतियाँ, कुप्रचलन अथवा आड़ी टेड़ी प्रथाएँ। धर्म के तीन रूप हैं पहला यह कि व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों को अधिकाधिक उभारे प्रतिभावान क्षमतावान् बने। दूसरा यह कि परिवार सृजन की प्रयोगशाला बने। तीसरा यह कि व्यक्ति एवं परिवार की क्षमताओं का अधिकतम लाभ समाज को मिले। इनमें से कौन सा रूप है आपके पास।”

सुनकर सभी मौन थे। कहें भी क्या? वह कहे जा रहे थे “लुट रहें हैं, बरबाद हो रहे हैं, सर्वनाश हो रहा है, वह भी स्वयं अपने हाथों से।” आवाज दर्द भरी हो उठी। व्यक्तित्व की अपनी वाणी है जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किए बिना लोगों के अन्तराल को छूती है।

एक आवाज आयी “हम किस लायक हैं?” “यही तो आपका भ्रम है। आप के कन्धों इतना बड़ा राज टिका हुआ है। आप बड़ी-बड़ी फौजों, बड़े-बड़े अफसरों के मालिक हैं नायक कह रहे थे “समझिये अपनी शक्ति को टटोलिए अपने को, आ मिलिए सृजन के इस तूफान में, जो समाज की सारी दुर्गन्ध को उड़ा फेंकने के लिए उतारू है। अब सोचिए कि आप हमारी कुछ मदद करेंगे? मर्दों की तरह निकल कर अपनों को इस घुटन से बचाएँगे या कायरों की तरह बैठे हुए तकदीर को कोसते रहेंगे? युग के विश्वमित्र ने हर गाँव हर घर से राम-लक्ष्मण माँगे हैं जो ताड़का मारीच सुबाहु जैसी आसुरी शक्तियों को पराजित कर भावी युग का नेतृत्व सँभाल सकें”।

सभा में सन्नाटा छा गया। सभी कुछ जैसे निस्पन्द निष्प्राण। सिर्फ सामने खड़ा पीपल का पेड़ कभी-कभी अपने पत्ते खड़का कर अपने सप्राण होने की खबर देता। नायक का थमा हुआ कण्ठ स्वर फिर कभी न आढ़। अगर इस वक्त चूके तो शायद हमेशा हाथ मलें। हमें ऐसे वीरों की जरूरत है जिनके दिलों में सब कुछ नया गढ़ डालने की उमंग हो। जो ईश्वर पर अटल विश्वास रख कर मानव हित के लिए सभी कुछ झेल सकें।”

कोई आगे नहीं बढ़ा। सन्नाटे ने सभी को डुबा दिया। सब के सिर झुके थे। यदि किसी का मस्तक उठा था सिर्फ उसका। अपनी लठिया पकड़े सबके पीछे आशीर्वाद बनी खड़ी थी। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं, मुख से गौरव की ऐसी झलक आ रही थी, मानों वह कोई महारानी हो, सारा गाँव उसका है ये सभी युवक अपने बालक है। नायक की वाणी से वह अपने अन्दर में अद्भुत शक्ति विकास और उत्थान का अनुभव कर रही थी। उसने एक नजर सब पर घुमाई पर सभी मुर्दों की तरह निश्चेष्ट थे। कहीं कोई हलचल न देखकर इशारे से दो तरुणों को अपने पास बुलाया। लाठियों को एक ओर फेंक कर अपने दोनों हाथों से युवकों का हाथ पकड़ा और तनिक डगमगाते हुए मंच की ओर चल दी।

उपस्थित जनसमुदाय ने तो तब ध्यान दिया जब उसके मुख से निकला “नायक जी! सँभालिए मेरे राम-लक्ष्मण-देश के लिए-समाज के लिए, मैं इन्हें सौंपती हूँ। आपके विश्वामित्र को उन्हें मेरा प्रणाम कहना।” सुनकर नायक भी विह्वल हो उठा उसने लपककर बुढ़िया के चरणों में सिर रखा। वृद्धा ने काँपते हाथों से उसे उठाया नायक को अपने सिर पर टपक पड़े गर्म जल की बूँदों का अहसास हो रहा था। यह और कुछ नहीं वृद्धा के अश्रुधारा थी।

गाँव का चौधरी हतप्रभ हो बोला “यह क्या करती हो काकी। इनकी तो बारात जाने वाली थी। अब”

बात काटते हुए वृद्धा बोली “बीते को बिसार दो चौधरी। अब राष्ट्र से इनका विवाह होगा। समाज की आपत्तियों को देखकर भी ऐश-मौज की सोचना मनुष्य का काम नहीं है।” कहकर वह चुप हो गई।

नायक ने तरुणों का हाथ पकड़ा झोले से मालाएँ निकाल कर उन्हें पहनाई। एक माला बुढ़िया माँ के गले में डाली। जबाब में उसने लड़कों को चेतावनी दी “मेरे दूध की लाज रखना, मेरे बच्चों।”

सुनकर नायक बोल पड़ा तुम्हारा दूध अमर रहेगा माँ। युग के विश्वामित्र के लिए राम-लक्ष्मण माँगने वाले यह नायक थे महावीर त्यागी। गाँधी जी के अनन्य सहयोगी। बीतते वर्षों के बाद भी पुकार मन्द नहीं पड़ी है। युग के विश्वामित्र ने अपनी सृजन सेना के लिए सेनानी माँगे हैं। भावी युग के कर्णधार यही होंगे। अपने को टटोले हृदय में उमंग रही भावनाओं के बीच हम अपने मध्य भी राम-लक्ष्मण का गौरव चमकता पाएँगे। हर बढ़ते कदम के साथ वैसी ही प्रतिभा-क्षमता का विकास होता चला जाएगा।


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