प्यार-प्यार में अन्तर

December 1990

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प्यार मनुष्य की उच्चस्तरीय मनःस्थिति है। उसके बिना आनंद और उल्लास की अनुभूति नहीं हो सकती। इसके बिना व्यक्ति नीरस, निरानंद मनःस्थिति में बना रहता है। निरानंद और स्नेह सद्भाव रहित मनुष्य को एक प्रकार का जड़ पदार्थ माना जा सकता है जो जीवितों की तरह हलचलें भर कर सकने में समर्थ है। आनंद का रसास्वादन वह कर ही नहीं पाता।

प्रेम का क्षेत्र जितना विस्तृत होगा, मनुष्य उतना ही अधिक पुलकित प्रफुल्लित रह सकेगा। उसका दायरा जितना छोटा होगा उसकी प्रसन्नता भी हलकी एवं उथली होगी। निकृष्ट योनियों वाले प्राणी इसी विभूति से वंचित रहते हैं। इसलिए उनकी मानसिकता में उत्कृष्टता और प्रफुल्लता का अस्तित्व नहीं पाया जाता। मात्र उदरपूर्ति के निमित्त ही वे अपना अधिकाँश समय लगा देते हैं। यदाकदा प्रजनन अथवा झगड़ने के उभार भी उनमें उठते देखे जाते हैं। इसी हेय स्थिति में वे अपनी जीवन अवधि गुजार देते हैं।

मनुष्य में जहाँ शरीर संरचना मानसिक विलक्षणता और भाव संवेदनाओं की अनेकानेक विशेषताएँ पाई जाती हैं वहाँ सर्वोच्च स्तर की एक और विभूति उसे उपलब्ध हैं-प्रेम-भावना का रसास्वादन। इसे कोई कितना है घटा या बढ़ा सकता है। परिधि के अनुरूप ही उसकी सफलता प्रफुल्लता घटती-बढ़ती रहती है।

क्षुद्र स्तर के मनुष्य मात्र अपने शरीर को प्यार करते हैं। इन्द्रिय स्वाद ही उनके लिए सब कुछ होता है। इसी प्रयोजन तक वे सोचने और करने तक सीमित रहते हैं। वासना, तृष्णा और अहंता के निकृष्ट स्तर तक ही उनकी आकांक्षा, अभीप्सा केन्द्रित रहती है। इसी दायरे में कल्पनाएँ, इच्छाएँ उठती हैं और जो कुछ करते बन पड़ता है वह उन्हीं प्रयोजनों के लिए होता है।

स्नेह रहित व्यक्ति का अपनापन विलास और अहंकार की पूर्ति से आगे तनिक भी नहीं बढ़ पाता। यहाँ तक कि छोटे बच्चों तक के लिए उनके सहयोग उत्थान, कल्याण तक का कोई भाव नहीं रहता। उनसे भी उनके संबंध मात्र क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति तक के लिए होते हैं। उसमें कमी पड़ने पर उनके लिए अपने भी विराने हो जाते हैं। कामुकता के प्रति असाधारण लगाव होने पर वे पत्नी के स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य और अपने आर्थिक दायित्व तक को भुला देते हैं। उनके लिए इन्द्रिय लिप्सा ही सब कुछ होती है।

शरीर को ऐसे क्षुद्र लोग प्यार करते हैं यह भी नहीं कहा जा सकता। अन्यथा स्वाद के लिए अभक्ष्य खाने उन्माद के लिए इन्द्रिय आवश्यकता में वे अपना शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन क्यों बर्बाद करते रहते हैं? दुर्बलता, रुग्णता, अकालमृत्यु के ग्रास क्यों बनते हैं? इसलिए यह कहना ही उचित होगा कि नीरसता के रहते, मनुष्य कम से कम अपने शरीर को तो प्यार करता होता। आत्मा का प्यार इससे आगे की बात है। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से ही मनुष्य महान बनता है और संतोष सम्मान जैसे रसास्वादन कर पाता है। जो आत्मा को प्यार नहीं करता वह मात्र नरक के दायरे में ही परिभ्रमण करता रहता है।

सच्चे प्यार का अर्थ है उत्थान के निमित्त सहयोग। इसमें अपने लोगों की तुलना में प्रियपात्र के उत्कर्ष को प्रधानता देनी पड़ती है, पर यह सब बन तभी पड़ेगा जब अपने स्वार्थ पर अंकुश लगाया जाय, उसे गौण माना जाय। इसके अभाव में वह प्यार न रहकर छद्म मात्र बनकर रह जाता है। ठगों का व्यवसाय चापलूसी पर आधारित है। वे अपने शिकार को सज्जन व्यवहार से फुसलाते और प्रलोभनों के आकर्षण दिखाकर अपना स्वार्थ साधते और भोले भावुकों को बहेलियों की तरह जाल में फँसाते और जो भी हाथ लगे, उसका अपहरण करते रहते हैं। नाम कोई चाहे तो इसे भी प्यार का दे सकता है, पर सच्चाई देखने पर थोड़े ही प्रयत्न से पता चल जाता है कि यह प्यार था या जाल-जंजाल में फँसाकर सर्वनाश करने का कुचक्र। हम प्यार तो हर किसी से करें, पर उसके पीछे अपहरण की विडम्बना न हो इसका सतर्कतापूर्वक ध्यान भी रखें।


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