कुरीतियों की बेड़ी जिन्हें जकड़ न सकी

December 1990

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लगा जैसे कानों में पिघला शीशा उड़ेल दिया गया हो। वह तो स्वयं में शोकाकुल थी। व्यथा हड्डियों तक को बेधे जा रही थी। ऊपर से यह...जले पर नमक-मिर्च का चूर्ण, पके फोड़े पर अंगारे का स्पर्श। संवाद पहुँचाने वाला चला गया था। उसकी पदचापों की ध्वनि क्रमशः दूर होती गई। उसकी गलती भी क्या है? करे भी क्या? हरकारा जो ठहरा....बेचारा......। इस सब के पीछे तो उनका हाथ है जो अपने हैं। जिन्हें उसने इन्हीं हाथों से कभी आश्रय दिया था, अनेकानेक दुरावस्थाओं से रक्षा की थी। अब यही...।

उसने डबडबाई आँखों से पास खड़ी सहेली की ओर देखा। संग्रामों की भयानकता जिसके रणचण्डी स्वरूप को देख थरथरा उठती थी। वनराज की दिल दहला देने वाली दहाड़ को शान्त करने के लिए जिसका एक बाण ही पर्याप्त था वही अब...। महल की दीवारें सहम गई। भगवान के बनाये इस संसार को, मनुष्य ने जाने कितनी छोटी-बड़ी दीवारें तैयार करके सैकड़ों- हजारों कारागारों में बदल डाला है। उन दोनों ने महल की खिड़की से बाहर झाँकने की कोशिश की। बाहर तो जैसे रुद्र का ताण्डव ही मचा हुआ था। बिजली की चमक, मूसलाधार वर्षा, वज्रपात और हवा के झोंके प्रबल हो उठे थे। हर झोंके पर ऐसा लगता जैसे हजारों काले नाग एक साथ फुफकार उठे हों। ओह! सचमुच काल रात्रि बन गई है, आज की निशा। बौछार से उन दोनों के चेहरे भग गए, फानूस की लौ काँप उठी। सभी चीजें उलट-पलट गई।

“तो क्या....तो क्या?” सखी ने खिड़की बन्द करते हुए उनसे पूछना चाहा। कितनी विवशता की अर्गलाओं में जकड़ी है नारी। जन साधारण से लेकर महारानी तक हरेक को कुरीतियों के वृश्चिक दंश उत्पीड़ित किए बिना नहीं चूकते। यह भी कुरीति ही तो है। कुरीति नहीं तो और क्या? मृतक शरीर के साथ जीवित कुसुम कोमल सी देह, सौंदर्य का पुँज आग की लपटों में.....। भयवश आँखें मीच लीं।

कुछ पूछ रही थी, रामचेरी...? सखी के चेहरे पर हो रहे भावान्तर को पढ़ते हुए उनने पूछा। कैसा संयोग दोनों लगभग एक साथ जन्मी। खेल-कूद पढ़ाई-लिखाई यहाँ तक विवाह भी लगभग एक ही समय। संक्षेप में कहें तो जन्म से लेकर आज तक निभता आ रहा है यह सहचरत्व। अनेकों अवसरों पर उन्होंने अपना कष्ट भूल कर उसके आँसुओं को पोंछा है। “क्या आप... आप भी औरों की तरह सती....?” आगे कुछ कह न सकी। वाणी रुद्ध हो गई।

“नहीं! मुझे जीना है। स्वयं के लिए नहीं महाराज के सदुद्देश्यों के लिए। और मेरे विचार से पति के अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए अपने को तिल-तिल गलाना ही सच्च सतीत्व है। जल मरना-पलायन भीरुता के अतिरिक्त और क्या है?” उनकी आँखों में चमक और चेहरे पर शौर्य की झलक उभर उठी। कुछ ठहर कर उन्होंने पास खड़ी रामचेरी की ओर देखते हुए कहा- “कैसा विचित्र है अपना देश भी? एक ओर ऊँचे दार्शनिक और बौद्धिक सिद्धान्तों की चर्चा, दूसरी ओर मूढ़ताओं, अन्धविश्वासों, कुरीतियों, चित्र-विचित्र परम्पराओं का अम्बार।”

“आपकी बात सौ फीसदी सच है महारानी। उनके इस कथन को सुन उसके चेहरे पर उल्लास की रेखाएँ उभर आयी थी। अपने यहाँ के स्त्री हो या पुरुष, बालक हो अथवा बूढ़े सबकी अन्धविश्वासों पर जितनी अधिक आस्था है, उतनी शायद भगवान पर भी नहीं। कहते हुए उसने दृष्टि इधर-उधर घुमाई। हवा का शोर थमने लगा था, पर बूँदा-बाँदी अभी भी थी। बाहर के गलियारे में कुछ पदचाप सुनाई दे रहे थे। आवाजें क्रमशः निकट आती गई। द्वार पर आहट हुई। रामचेरी ने उठकर द्वार खोला। एक-एक करके तीन व्यक्तियों ने प्रवेश किया। महारानी ने पहिचाना चन्द्रसिंह उनका देवर, अधारसिंह राज्य का प्रधानमंत्री और मोहनदास राज्य का सेनापति।

“भाभी रानी जी, भगवान और भाग्य पर काबू किसका है।” चन्द्रसिंह ने धीरे से बात शुरू की। मैंने संवाद भेजा था। अपने घराने में सती का चलन चला आया है फिर जैसा आप उचित समझे।” “मैं सती नहीं होऊँगी, चन्द्र!” उन्होंने तनिक रूखे स्वर में कहा! “तुम इस समय की व्यवस्था देखा।”

पर कुल की रीति....। “रीति या कुरीति?” वाणी में तनिक व्यंग था। भारतीय दर्शन, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, आस्तिकता, कर्मफल, पुण्यपरमार्थ कितनी ही अच्छी चीजें हैं अपने धर्म में। पर इन्हें तो हमने तिरस्कृत कर रखा है, मानने अपनाने की सोचते भी नहीं। सिर्फ एक कुरीतियाँ ही बची हैं, जिन्हें चिपकाए रहने में ही हमने अपनी शान मान रखी है। आपका क्या विचार है दीवान जी, रावराजा........। उन्होंने सामने बड़े दोनों अधिकारियों की ओर दृष्टि फिराई।

“राज्य और प्रशासन की दृष्टि से आपका निर्णय सम सामयिक है।” चन्द्रसिंह की बोलती बन्द हो गई।

शवदाह की तैयारी हुई। बड़ी धूमधाम और पूरी परिपाटी के साथ सब सम्पन्न हुआ। शुद्धि और तेरहवीं के बाद राजकाज की बात चली। यों वीरनारायण का तिलक तो एक वर्ष बाद होना था। अधारसिंह और मान पण्डित ने देखा कि राज्य की नाव भँवर में है। ऐसे में पतवार कौन सँभाले। इस कारण वीरनारायण का राजतिलक तुरन्त सम्पन्न हुआ। पर वह तो छोटा है, व्यवस्था कौन देखेगा?

काम-काज किस तरह से चल पाएगा। इसकी चर्चा हुई। बात-चीत के क्रम में उन्होंने फिर स्पष्ट किया- “मैं पर्दा-वर्दा बिल्कुल नहीं करूंगी, हाथी की सवारी के समय झरप नहीं डालूँगी, दरबार में मुँह खोलकर बैठूँगी, जब आवश्यकता होगी पुरुषों का वेश धारण करूंगी।”

चन्द्रसिंह बौखला गया। उसने रोष भरे स्वर में प्रतिवाद किया......भाभी रानी लगता है आपने तो कुल की सारी रीतियों को एक-एक करके नष्ट करने की शपथ उठा रखी है। आपके इस तरह के रहन-सहन से हमारे वंश को लाँछन लगेगा।

“फिर भूल गए चन्द्र, रीतियों को नष्ट करने की शपथ नहीं-कुरीतियों का सत्यानाश करने की। उन्होंने हलकी मुसकान के साथ कहा- “मेरा जन्म ही कुरीतियों को नष्ट करने के लिए हुआ है। बचपन में प्रचलित कथाओं के विरुद्ध पढ़ाई की। शास्त्र स्मृतियों का ज्ञान प्राप्त किया। अस्त्र संचालन, सैन्य संगठन व नियंत्रण आदि में कुशलता प्राप्त की। विवाह का समय आने पर “उपजातियाँ टूटू” इस आदर्श के अनुसार चन्देल होकर भी राजगोंड वंश में जन्मे महाराज से शादी हुई। महाराज के न रहने पर सती प्रथा को तोड़ा और अब पर्दा प्रथा, आगे न जाने कितनी और ...........उनकी मुसकराहट चन्द्रसिंह के कलेजे में आग भड़काती जा रही थी। पर वह कर भी क्या सकता था, महारानी अपने कुशल प्रशासन, जनहित के कार्यों शौर्य और अद्भुत सैन्य प्रवीणता के कारण समस्त जन समुदाय के दिलों में देवी बनकर प्रतिष्ठित हो चुकी थी।

सुनो चन्द्र! जहाँ तक लाँछन का प्रश्न है, यह क्रूर कर्मी के कारण और जनसमूह को सताने के कारण लगता है। पर्दा न करने से नहीं लगता लाँछन।

“मुझसे नहीं सहा जाएगा”। मैं महाराज संग्रामशाह का बेटा हूँ। “सहना पड़ेगा कुमार।” राज पुरोहित मान पण्डित ने उसे डपटते हुए कहा- “परिवार में समाज में इन कुरीतियों के प्रवेश के कारण ही हम भीतर ही भीतर खोखले हो गए और उनका प्रायश्चित खून के आँसुओं से करना पड़ा है। देख नहीं रहे आक्रमणों की श्रृंखला! कितने लज्जाप्रद अपमानों, रोमांचकारी अत्याचारों से हताहत होना पड़ा है देश को। इसका कारण शौर्य का अभाव नहीं। कुरीतिजन्य आन्तरिक दुर्बलता ही रही है।”

सब सहमे हुए सुन रहे थे राजपुरोहित का वक्तव्य। वह कह रहे थे-किसमें है वह योग्यता जो महारानी का स्थान ले सके। वह अनोखी प्रतिभा, अपरिमित प्रतिभा, असह्य शौर्य कहाँ है? इस सबको तुम पर्दे की कारा में कैद करना चाहते हो? नहीं यह न होगा। किसी को मेरी बात अमान्य हो तो कहे? राज दरबार में सन्नाटा छा गया। कोई कुछ बोल न सका-सभी को आचार्य के कथन में बधार्धता की झलक दीख रही थी। “तो दरबार सहमत है।” “हाँ! हमें महारानी का नेतृत्व स्वीकार है।” शत सहस्र कण्ठस्वर एक साथ गूँज उठे। कुरीतियों को तोड़ने के लिए जन्मी यह अद्भुत नारी थी- “महारानी दुर्गावती”, जिनके शौर्य के किस्से आज भी गोंडवाना मात्र में नहीं, अपितु समूचे भारत में गाए जाते हैं।


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