साधक का सात्विक आहार-विहार

December 1990

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आध्यात्मिक साधना के दिनों में उपासना परक जो नियम-उपनियम बनाये बताये गये हैं, वे तो श्रद्धापूर्वक समग्र अनुशासन के साथ पूरे करने ही चाहिए, पर साथ ही एक बात यह भी भूलनी नहीं चाहिए कि उन दिनों आहार-विहार की सात्विकता का अनुबंध भी ठीक तरह पालन करना चाहिए। अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाते हुए पूजा-उपासना के कुछ नियम पालन कर लेने भर से साधना समग्र रूप से सफल नहीं हो सकती। जिस प्रकार पूजा काल में शरीर को शुद्ध करना आवश्यक है, धुले कपड़े ही पहनने चाहिए, उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि आहार-विहार की पवित्रता में, व्यतिरेक न होने दिया जाय।

उक्ति प्रसिद्ध है कि “जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।” मन भी शरीर का ही एक भाग है। मस्तिष्क को ही ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। आहार से ही शरीर के दृश्यमान और अदृश्य अवयव विनिर्मित होते हैं। आहार में मात्र दृश्य शरीर को ही परिपुष्ट करने की क्षमता नहीं, वरन् उससे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर भी प्रभावित होते हैं। मन का प्रवाह भी उसी दिशा में बहने लगता है। मद्य-माँस जैसे अभक्ष्य उदरस्थ करने पर उनका तामसिक प्रभाव अन्तःचेतना पर भी पड़े बिना नहीं रहता। शरीर से कोई व्यक्ति मोटा-तगड़ा या बलिष्ठ बन जाय, तो भी यह आशा नहीं करनी चाहिए कि उसका मानसिक स्तर भी सात्विक बना रहेगा, आत्मबल बढ़ेगा और अन्तःकरण में सात्विक भावनाएँ उठेंगी। आहार का स्थूल प्रभाव अंग-अवयवों पर पड़ता है, पर उसकी सूक्ष्म शक्ति मनुष्य के अन्तराल तक जा पहुँचती है और अपना समुचित प्रभाव छोड़ती है। इसलिए साधना के दिनों में उपवास का नियम है। फलाहार दूध, छाछ पर रहकर साधक अपना साधनाक्रम पूरा करते हैं। इतना न बन पड़े, तो रोटी-पूड़ी आदि न खाकर दलिया खिचड़ी जैसे अमृताशय आधे समय खाकर काम चलाना पड़ता है। कम से कम भोजन किया जाय और दूसरे समय उपवास रखा जाय। इससे पेट को विश्राम मिलने से स्वास्थ्य लाभ भी होता है और मनःक्षेत्र में सात्विकता बनी रहने से साधना की सफलता निश्चय रहती है।

आहार के बाद जीवन निर्वाह का दूसरा चरण है विहार। विहार अर्थ, रहन-सहन इसे इन्द्रिय संयम भी कह सकते हैं। इन्द्रियों में कामेन्द्रियों को अधिक प्रबल माना जाता है। साधना काल में ब्रह्मचर्य पालन का प्रचलन है। शारीरिक काम सेवन की तरह ही कामुक चिन्तन का भी मानसिक पवित्रता पर बुरा असर पड़ता है। उन दिनों नर-नारी के बीच माता, भगिनी, पुत्री जैसे पवित्र संबंधों की ही कल्पना करनी चाहिए। ऐसा साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए, ऐसे खेल तमाशे नहीं देखने चाहिए, जो मन में कामुकता के विचार भड़काते हों।

चटोरेपन में सम्मिलित हैं मसाले मिठाई पकवान साधनाकाल में विशेष रूप से निषेध है। सात्विक जीवन जीना हो और आत्मबल बढ़ाना हो, तो आहार ही नहीं, विहार में भी सात्विकता का अधिकाधिक समावेश करना चाहिए।

अन्य इन्द्रियाँ भी विचारों को प्रभावित करती हैं, मन पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। इसलिए इनसे अश्लील बातें, निन्दा, चुगली, छल, कुटिलता जैसे मानसिक अनाचारों को न तो जीभ द्वारा प्रस्तुत होने देना चाहिए और न उन्हें सुनना ही चाहिए। जहाँ ऐसे प्रसंग चल रहे हों, वहाँ से उठ कर अन्यत्र ही चले जाना उचित है। आँखों से अश्लील आचरण के संबंध में उत्तेजना प्रदान करने वाले दृश्यों से अपने को बचाना चाहिए। अवांछनीय प्रसंगों से स्वयं को दूर ही रखना चाहिए।

अनाचारी चिन्तन और क्रिया−कलाप में निरत रहने वाले व्यक्ति जब भी इकट्ठे होते हैं, अपने स्तर का वातावरण बनाते हैं। जब तक उनको कड़े विरोध द्वारा निरस्त न किया जाय, विरोध करके दूर न किया जाये, तब तक अवांछनीय प्रसंग अपना गहरा प्रभाव छोड़ने से रुकते नहीं। शरीर से भले ही अपना बचाव कर लिया जय पर जो लो वैसा अपना संपर्क किसी प्रकार साधना भी उन लोगों के लिए हानिकर सिद्ध होता है, जो सात्विकता बनाये रहना चाहते और साधनारत होकर आत्मकल्याण का प्रयोजन साधने के इच्छुक हैं।


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