अध्यात्म और विज्ञान में सामंजस्य और सहयोग का तालमेल बिठाने में इन दिनों विज्ञ समुदाय द्वारा समुद्र मंथन जैसा प्रयास चल रहा है। सर्वत्र यही सोचा जा रहा है कि दोनों महाशक्तियों का समन्वय किया जाय। इनके मध्य जो खाई खुद गई है, उसे पाटने के लिए प्रयत्न किया जाय इतने पर भी दोनों को पृथक् शक्तियाँ मानने वालों के सामने यह स्पष्ट नहीं है कि उनके प्रतिपादन का उद्देश्य और स्वरूप क्या है?
यथार्थतः विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की माँग करने वाले यह भूल जाते हैं कि जीवन सत्ता ही तब प्रकट होती है, जब चेतना और पदार्थ का समन्वय होता है। जड़ और चेतन का मिलन ही हलचलों का केन्द्र है। काया का दृश्यमान पक्ष जड़ तत्वों से विनिर्मित प्रत्यक्ष भौतिक विज्ञान का चमत्कार है तो उसमें सन्निहित अदृश्य चेतन सत्ता अध्यात्म है। दोनों का मिलन ही जीवन की स्थिरता का चिन्ह है। दोनों के मध्य सामंजस्य की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, जब स्रष्टा ने ‘एकोऽहम् बहुस्यामि’ की इच्छा की तो चेतन-अचेतन के दो प्रवाह फूट पड़े। दोनों एक दूसरे से सर्वथा पृथक् रह कर अपना अस्तित्व नहीं बनाये रख सकते। पदार्थ के बिना चेतना पंगु है, तो चेतना की प्रखरता के बिना पदार्थ अन्धे के समान। अन्धे और पंगु की जोड़ी मिलकर ही नहीं पार करने की योजना बना सकते हैं और पार पाने में सफल होते हैं।
गहराई में प्रवेश करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में टकराव तब उत्पन्न हुआ, जब विज्ञान को फिजिक्स से एवं सुविधा-साधन जुटाने वाली मशीनों, कल कारखानों से सम्बन्धित मानने तक मानवी बुद्धि सीमित हो गयी, जब कि इसका तात्त्विक अर्थ कुछ और है। विज्ञान कहते हैं प्रगतिशीलता को-वैज्ञानिक दृष्टिकोण को। हम जो भी सोचें जो भी करे उसमें वैज्ञानिकता का समावेश हो, वह तर्क, तथ्य एवं प्रमाणयुक्त हो, इसी में हमारे चिंतन कथन और कर्तव्य की प्रामाणिकता है। विज्ञान मात्र प्रकृति से सम्बन्धित सूक्ष्म जगत का रहस्योद्घाटन करने और उससे लाभान्वित होने तक सीमित न होकर जीवन से, प्राणि शरीरों से भी सम्बन्धित है। चेतना उसी से लिपटी एवं सघनतापूर्वक गुँथी हुई सक्रिय है। उसकी शक्ति अदृश्य होते हुए भी इतनी प्रचण्ड है कि अनगढ़ पदार्थ जगत को सुनियोजित कर स्वर्गोपम सुखद परिस्थितियाँ पैदा कर दे। इसे ही अध्यात्म कहते हैं। भौतिक साधन एवं चेतना के अदृश्य पक्ष को मिला देने पर जीवन में समन्वय स्थापित होता और प्रगति का आधार खड़ा होता है।
पदार्थ सत्ता की सूक्ष्म जानकारी विज्ञानियों के हाथ लगती है, तो चेतन सत्ता वाले सूक्ष्म अध्यात्म जगत के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान मनीषीगण प्राप्त करते और उससे लाभान्वित होते हैं। वैज्ञानिक मनीषी प्रोफेसर ए. ई. वाइल्डर स्मिथ के अनुसार प्रकृति विज्ञानी जिस तर्क बुद्धि या कल्पना शक्ति के सहारे पदार्थ जगत के अध्ययन और अनुसंधान में निरत रहते हैं, यदि उनसे यह पूछा जाय कि इस सब का जन्मदाता कौन है? उनके स्वयं के जीवन के पीछे विचार या शब्द, बुद्धि या कल्पनाएँ कौन प्रस्फुटित कर रहा है अनुसंधान की प्रेरणा कौन उभार रहा है? तो इसका उत्तर देने में वे असमर्थता अनुभव करते हैं। कारण स्पष्ट है कि वह उनकी खोजी संभावनाओं से बाहर है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि इस ओर उनका ध्यान ही आकृष्ट नहीं हुआ। इतना ही नहीं जिस गुरुत्वाकर्षण शक्ति की वे बात करते और कहते हैं कि उस बल के सहारे पृथ्वी समेत सभी ग्रह-नक्षत्र अधर में लटके रहकर नियत कक्षा में नियत गति से परिभ्रमणशील हैं, वस्तुतः उनके मध्य चेतन तत्व ही सक्रिय भूमिका निभा रहा है। वैज्ञानिक बुद्धि न तो इस तरह के निर्माण कर सकती है ओर न उन्हें व्यवस्थित क्रम, गति प्रदान कर सकती एवं सम्पदाओं से भरा पूरा बना सकती है। यह कार्य परम चेतना का है। पदार्थों का सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणुओं-उप परमाणुओं, उनके व्यवहार एवं ऊर्जा उत्सर्जन की प्रक्रिया का सूक्ष्म अध्ययन करने पर यही तथ्य सामने आता है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के पीछे नया क्रम, नया नियम कार्यरत है, जिसे किसी अदृश्य चेतना की इच्छाशक्ति से संचालित माना जा सकता है। अध्यात्मवेत्ताओं ने इसे ‘यूनिवर्सल फोर्स’ या ब्रह्माण्डव्यापी चेतना माना और कहा है कि सृष्टि में सर्वत्र उसकी इच्छाशक्ति ही कार्यरत है।
मानव जीवन के दो पक्ष हैं। पहला पदार्थ परक साधन सामग्री, जिसे विज्ञान कहते हैं। इसका सम्बन्ध बुद्धि से है जो यह निर्णय करती है कि लोक व्यवहार कैसा हो। दूसरा पक्ष अध्यात्म कहलाता है, जिसका सम्बन्ध चिन्तन, भाव संवेदना एवं प्रज्ञा से है। यह सभी चेतना की उच्चस्तरीय परतें हैं, जो यह निरूपण करती हैं कि ऊर्ध्वगामिता का अनुगमन किस प्रकार किया जाय। पाश्चात्य मनोविज्ञानी सी.जी. जुग भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि मानवी चेतना के चार कार्य हैं तर्क बुद्धि, अनुभव, भाव संवेदना और अन्तः प्रज्ञा। यह सभी एक से बढ़कर एक उच्चस्तरीय विभूतियाँ हैं। विज्ञानी इनमें से मात्र तर्क बुद्धि तक सीमित रहकर अधूरे सत्य की खोज में संलग्न हैं। समग्रता की उपलब्धि सम्पूर्ण पक्षों को अपनाने पर ही संभव हो सकती है।
विख्यात भौतिकी विद् जीन ई. चेरोन के अनुसार हम चेतना और पदार्थ को अलग मानते और उनमें से किसी एक की खोज में निमग्न हो जाते हैं। विज्ञानी पदार्थ जगत में अपने को सीमाबद्ध कर लेते हैं, तो अध्यात्मवेत्ता चेतना के निरीक्षण-परीक्षण में लगे रहते हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि चेतना और पदार्थ इतनी अधिक जटिलता से परस्पर गुँथे हुए हैं कि उनमें से किसी एक की महत्ता को कम नहीं किया जा सकता। यद्यपि चेतना की महिमा और गरिमा सर्वोपरि है। इसके अनुसार जिसे हम मैटर या “मास” कहते हैं, वह चेतना का ही एक भाग है और इसका निर्माण उसी की इच्छा शक्ति के आधार पर हुआ है। जिस तरह पॉजेटिव और निगेटिव तारों के मिलने पर उनमें विद्युत प्रवाहित होती है और बल्ब जलने से लेकर भारी मशीनों का संचालन तक होने लगता है। यही तथ्य चेतना और पदार्थ के सम्मिलन से उद्भूत जीवन पर भी लागू होता है। इलेक्ट्रान और पाजिट्रान नाम ऋणात्मक एवं धनात्मक कणों के सम्मिलन से जिस तरह ‘फर्स्ट मैटर’ का निर्माण होता है, उसी तरह जीवन का प्रादुर्भाव जड़-चेतन से समन्वित दो सूक्ष्म इकाइयों के सम्मिलन से भ्रूण-कमल के रूप में आरम्भ होता और अन्ततः 5.6 फुट लम्बे काय-कलेवर वाला मनुष्य बन जाता है। इस निर्माण के पीछे प्राणी विशेषज्ञ जिस जेनेटिक कोड की बात करते और कहते हैं कि सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित इकाइयाँ ‘जीन’ इसके लिए उत्तरदायी हैं, वस्तुतः मैटर के अन्दर समाहित चेतना ही वहाँ कार्यरत रहती और अपने अनुकूल उपयुक्त परमाणुओं की काट छाँट करती तथा विकास क्रम का निर्धारण करती हैं।
विचारशीलता, भावना, इच्छा एवं सक्रियता चेतना के प्रमुख गुण हैं। चेतना सत्ता के साथ छोड़ते ही मृत शरीर को ठिकाने लगाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और सारा कलेवर पंचभूतों में बिखर जाता है। विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन को पदार्थ जगत के अनुसंधान के चरमोत्कर्ष पर पहुँचने के पश्चात् यह अनुभूति हो गई थी कि समूचा विश्व-ब्रह्माण्ड चेतना का खेल है। कार्बोनिक, अकार्बनिक जड़ पदार्थों से लेकर जीवन जगत तक में उसकी सक्रिय हलचलें ही क्रीड़ा कल्लोल कर रही हैं। मनुष्य में इसकी सघनता अधिक है। इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए उनने अपने वसीयतनामा में लिखा था कि मरणोपरान्त मेरे शरीर का तो संस्कार कर दिया जाय परन्तु सिर वैज्ञानिकों को परीक्षण के लिए दे दिया जाय, ताकि यह जाना जा सके कि मस्तिष्क में कोई विशिष्टता या क्षमता मरने के बाद भी विद्यमान है क्या? जो मस्तिष्क जीवन पर्यन्त प्रकृति पदार्थों में सन्निहित रहस्यमय शक्तियों की खोज करने में निमग्न रहा, क्या वह ज्ञान चेतना अब भी उसके स्नायु कोषों में सुरक्षित है? जैसा सबको विदित है कोई विलक्षणता उस जड़ पिण्ड-लिबलिबे ग्रे व ह्वाइट मैटर से बने पदार्थ में नहीं पाई गई। चेतना की शक्ति का संचार होने पर ही मस्तिष्क विभूति सम्पन्न बनता है, यह तथ्य प्रतिपादित करना ही आइंस्टीन का लक्ष्य था।
पदार्थ जगत पर चेतना का आधिपत्य है। चेतना स्वामी है तो मैटर दास। समस्त जीवों, पदार्थों, विभिन्न क्षेत्रों, दिशाओं और परिस्थितियों में चैतन्य शक्ति ही उनके स्तरों के अनुरूप अविरल गति से गतिमान है। यह सृष्टि परमचेतना का मात्र एक कौतुक भी नहीं है, वरन् उसमें समग्र सत्य दर्शन का लक्ष्य सन्निहित है। तभी तो आइन्स्टीन ने कहा था कि “ईश्वर पासा नहीं खेलता। उसके द्वारा सृजित एकल परमाणु से लेकर ग्रहगोलकों एवं उसके निवासी मनुष्यों तक सभी सुनियोजित ढंग से विनिर्मित हैं।” सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का दिग्दर्शन कराना उसका परम लक्ष्य है उस उपलब्धि की दिशा में अग्रसर होना ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।