ईश्वर का अस्तित्व एवं अनुभूति

December 1990

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भगवान को निराकार चेतन सत्ता कहा गया है, इसीलिए उसी सर्वव्यापकता है, कण-कण में उसकी विद्यमानता बतायी गई है। कोई सत्ता इतनी निकट हो और हमें उसका आभास तक न मिले, ऐसा हो नहीं सकता। किसी न किसी रूप में तो उसकी उपस्थिति का एहसास हमें मिलना ही चाहिए, पर ऐसा प्रायः नहीं होता। तो क्या उसकी सत्ता से इनकार कर दिया जाय अथवा किसी स्थान विशेष में उसकी उपस्थिति मान ली जाय? पर यह भी उचित नहीं होगा, क्योंकि प्राचीन ऋषियों ने भी सर्वव्यापकता के सिद्धान्त का ही समर्थन किया है।

भिन्न-भिन्न दर्शनों ने अपने-अपने प्रकार से इसकी व्याख्या की है। किसी ने स्याद्वाद (संदेहवाद्) का सिद्धान्त दिया, तो किसी ने शून्यवाद का, जबकि नीत्से जैसे दार्शनिकों ने तो “भगवान मर गया” यहाँ तक कह डाला। इतनी महान और महत्वपूर्ण सत्ता के संबंध में इतनी मतभिन्नता? आखिर क्यों? यदि वस्तुतः वह घट-घटवासी है, तो जनसामान्य को उसकी अनुभूति क्यों नहीं होती?

इसका उत्तर मूर्धन्य मनीषी रॉल्फवाल्डो ट्राइन अपनी पुस्तक “इन ट्यून विद दि इनफाइनाइट” में देते हैं। पुस्तक के “दि सुप्रीम फैक्ट ऑफ दि ह्यूमन लाइफ” अध्याय में एक कहानी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उनके एक मित्र का कमल फूलों से सुशोभित एक तालाब था। उसके आस-पास प्राकृतिक घाटी की सुन्दरता व्याप्त थी। तालाब में पानी पास के एक पहाड़ी झरने से आता था। गर्मियों के दिनों इसकी सुषमा और भी अद्भुत हो जाती थी। खिले हुए रंग-बिरंगे कमल फूलों से तालाब भरा रहता था। तालाब के किनारों पर भी तरह-तरह के फूल सुशोभित होते रहते। ऐसे में भिन्न-भिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों के झुण्डों की उपस्थिति वहाँ के वातावरण को और भी नैसर्गिक बना देती। यही कारण है कि वहाँ पर्यटकों की भीड़ सदा बनी रहती। बच्चे, बूढ़े, युवक हर प्रकार के लोग हमेशा वहाँ आते-जाते दिखाई पड़ते, तालाब में पानी आने-जाने के लिए एक सुन्दर मार्ग और उसमें एक द्वार बना हुआ था, जो सदा पूरी तरह खुला रहता था, जिसके कारण पानी बह-बह कर आस-पास के क्षेत्र को भी हरा-भरा बनाये रखता था।

कुछ वर्षों के उपरान्त किसी आवश्यक कार्य से मित्र को एक साल के लिए कहीं बाहर जाना पड़ा। वह अपने स्थान पर देख-भाल के लिए एक निरीक्षक नियुक्त कर गया। निरीक्षक बड़ा ही संकीर्ण और स्वार्थी प्रकृति का व्यक्ति था। जिस वस्तु और व्यक्ति से उसका कुछ स्वार्थ सिद्ध होता, लाभ मिलता, उससे ही वह अपना संबंध रखता, शेष की उपेक्षा कर देता। उसने आती ही तालाब में आने वाले पानी का मार्ग बन्द कर दिया और उसे निजी क्षेत्र घोषित कर लोगों का आना-जाना रोक दिया। पानी बन्द हो जाने से कुछ ही दिनों में वहाँ की सुन्दरता कुरूपता में बदल गई। पक्षियों का कलरव, पशुओं का निर्भय विचरण, मन को मोहने वाली फूलों की मादकता और सुगंधित वातावरण सब कुछ नष्ट हो गया।

श्री वाल्डो कहते हैं कि इतना बड़ा परिवर्तन मात्र एक कारण-स्रोत से तालाब का संबंध विच्छेद हो जाने के कारण हुआ। मनुष्य जीवन से इस घटना की संगति बिठाते हुए वे कहते हैं कि मनुष्य इस अनन्त चेतना के सागर का एक अंग है। उसी से वह उत्पन्न हुआ है, पर यहाँ के अधिसंख्यक लोग उस संकीर्ण और स्वार्थी निरीक्षक की भाँति आचरण करते हैं और स्वतः ही उस परम चेतना से संपर्क का अपना द्वार बन्द कर लेते हैं, फलतः न सिर्फ उस शक्ति और सत्ता का अनुभव नहीं कर पाते, वरन् उसका मार्गदर्शन पाने और लाभ उठाने से भी वंचित रह जाते हैं।

रिचार्ड मोरिस बक अपनी पुस्तक “कॉस्मिक काँन्शसनेस” में इसी बात को दूसरे ढंग से समझाते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य मूलतः शुद्ध पवित्र अन्तःकरणयुक्त होता है, पर सर्वत्र प्रदूषित वातावरण होने और उसी में पलने-बढ़ने के कारण धीरे-धीरे वह उससे प्रभावित होकर अपवित्र बन जाता है, जबकि उसे कीचड़ में कमल की भाँति अप्रभावित रहना चाहिए। वे कहते हैं कि कमल कीचड़ में खिलकर भी उसकी सड़न और दुर्गन्ध से सर्वथा मुक्त होता है और अपनी मादकता बिखेरता रहता है। उसका यही आकर्षण उसके पा मधुमक्खियों को भी खींच बुलाता है और भृंगों एवं मनुष्यों को भी। यदि उसमें रंगों का सौंदर्य न हो और सदा बदबू ही बिखेरता रहे, तो मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी उसके निकट न फटकें। रिचार्ड मोरिस का कहना है कि मनुष्य की तरह भगवान भी आकर्षणों के पीछे भागते हैं, अन्तर एक ही है-मनुष्य आमतौर से बुरे आकर्षणों की ओर उन्मुख होता है और जो अच्छा एवं कल्याणकारी है, उससे परहेज करता है, किन्तु ईश्वर ऐसा नहीं करते, उनका पलायन सदा अच्छे आकर्षणों की ओर होता है। वह उन्हीं व्यक्तियों की ओर आकर्षित होते हैं, जो अपने सद्गुण और सद्व्यवहार से आस-पास के वातावरण को एवं सत्कार्यों द्वारा समाज के वातावरण को चन्दन की तरह सुवासित करते रहते हैं। प्रकारान्तर से यही वह मानदण्ड है, जिसके आधार पर परमसत्ता की न सिर्फ अनुभूति होती है, वरन् मार्गदर्शन भी मिलता है।

आज तो विरोधाभास दिखाई पड़ता है या अनीश्वरवादियों के शब्दों में कहें, तो ऐसी किसी सत्ता की जो शून्यता या अनुपस्थिति प्रतिभासित होती हैं, उसका एक प्रमुख कारण मनुष्य की मलिनता है। दैनिक जीवन में हम देखते भी हैं कि बालक माता का कितना ही प्रिय क्यों न हो, वह तब तक उसे अपनी गोद में नहीं उठाती, जब तक पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो जाती कि वह साफ-सुथरा है, मलमूत्र में सना नहीं है। फिर सर्वथा शुद्ध-पवित्र ईश्वरीय सत्ता का सान्निध्य-लाभ हम अपने अपरिष्कृत और अपवित्र स्वरूप से कैसे कर सकते हैं? किन्तु ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करने की दिशा में मनुष्य का आत्म-परिष्कार ही सब कुछ नहीं होता। इसे लक्ष्य की दिशा में आधा रास्ता तय करना ही कहा जा सकता है। यह तो व्यक्तिगत जीवन की एक श्रेष्ठ उपलब्धि मात्र है। मनुष्य सामाजिक प्राणी भी है, वह समाज में रहता है, इसीलिए उसके कुछ सामाजिक दायित्व भी होते हैं, जिसे उसे अनिवार्य रूप से पूरा करना पड़ता है। इसे प्रयोजन का उत्तरार्ध कहा जा सकता है। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में चिन्तन और व्यवहार में उदात्तता और सामाजिक जीवन में सेवा-सहकार की अनिवार्यता-यह दोनों मिल कर ही सम्पूर्ण उद्देश्य की पूर्ति कर पाते हैं। चिन्तन यदि पवित्र हो और व्यवहार भी शालीन हो, किन्तु सामाजिक जीवन में निष्क्रियता बनी रहे, तो भी व्यक्ति आत्मोन्नति के क्षेत्र में-ईश्वर-साक्षात्कार के संदर्भ में वह लाभ नहीं उठा सकेगा, जो सेवा-सहकार का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष साथ-साथ क्रियान्वित होने से हो सकता था। कोई मूर्तिकार मूर्ति बहुत सुन्दर, सजीव और आकर्षक बनाता हो, उसे देखते ही दर्शकों को किसी जीवन्त नारी का भ्रम हो जाता हो, पर इतने से ही तो प्रतिमा बोलने नहीं लग जाती। इतना सब होने के बावजूद भी उसमें एक कमी रह जाती है-प्राण की और यही कमी उसके लिए सबसे बड़ी कमी साबित होती है। यही बात उस साधक पर भी लागू होती है, जो ईश्वर-दर्शन की आकांक्षा तो रखता है, इसके लिए आत्म-परिष्कार की आवश्यक साधना भी करता है, पर लोक-आराधना के अभाव में वह अंकुरित बीज पौधा बनने से पूर्व ही सूख जाता है।


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