क्षमतावान् नहीं, प्रतिभावान

December 1990

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वह आगन्तुकों से लिपट कर रो पड़े। अन्तर की संवेदना आँसू बन कर झरने लगी। यों वह शान्त और अपने में खोए से रहने वाले व्यक्ति थे। हाँ बच्चों से जरूर हँसते, मिलते, बोलते, खेलते थे। कहा करते थे इन सीधे, सरल, निश्छल बालकों के बीच उन्हें जितनी शान्ति अनुभव होती हे उतनी और कहीं नहीं। शायद इसी शोक ने, न शोक नहीं चिरन्तन आवश्यकता, हाँ। इसी के कारण विगत कुछ वर्षों से एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगे थे। अन्यथा क्या कुछ नहीं था उनके पास विश्व विश्रुत वैज्ञानिक होने का लोक सम्मान। जिस राष्ट्र जिस देश में जाएँ वहीं देखने-मिलने वालों की भीड़ उमड़ पड़े। मोटर, कोठी, नौकर चाकर सभी कुछ तो था उनके पास।

पर सभी कुछ तो छोड़ दिया उनने। जब छोड़ा तो मिलने-जुलने वालों ने सनकी-पागल कहा-सामने नहीं तो चोरी-छुपे साथी वैज्ञानिकों ने कहा कि वह अपनी प्रतिभा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। किन्तु वह इन विविध तर्कों से उलझनें कब सुलझी हैं। तर्क अर्थात् उलझाव से और अधिक उलझाव की ओर। सत्य हृदय को सम्पदा हे, भावों की पेटी में छुपी। बुद्धि तरह-तरह के प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े कर महत्त्वाकाँक्षाओं के लुभावने आकर्षण दिखाकर सत्य से विरत करती हे। होश तो तब आए जब उसे ध्यान आए कि वह मनुष्य हे। कितना दुर्लभ हे यह ख्याल वह-वैज्ञानिक हे, डॉक्टर हे, प्रोफेसर हे, व्यापारी हे, राजनेता हे, प्रशासनिक अधिकारी हे, विद्वान हे, बुद्धिमान हे, कवि, लेखक क्या कुछ नहीं हे, नहीं हे तो सिर्फ मनुष्य।

वह भी मनुष्य को छोड़ इन्हीं में से एक था। उसी के एक आविष्कार ने द्वितीय विश्वयुद्ध में...... उफ......। आगन्तुक भी जापानी ही थे। जापान में ही तो ..... साकार हो उठा अतीत कल्पना के नेत्रों के सामने। एक-एक करके उभरने लगे दृश्य। एक तेज विस्फोट अनेकों सूर्य एक साथ प्रकाशित हो उठे। भीषण गर्मी, छटपटाते मनुष्य, पशु-पक्षी कुछ भी तो नहीं बचा। ध्वंस ही ध्वंस खिले चमन उजड़ गए। और उजाड़ने वाला सम्मानित हुआ, प्रशंसित हुआ। किसने किया यह सब .....एक बेअकल ने। किन्तु उसकी मंशा तो यह नहीं थी। उसने आविष्कार तो इसलिए किया था कि परमाणु ऊर्जा से जगमगा उठेंगे नगर-ग्राम लोक जीवन की आवश्यकताएँ पूरी होगी। किन्तु जीवन और जीवन की आवश्यकताओं में प्रथम कौन? हाँ यहीं तो उससे गलती हुई और तब से वह अपनी भूल का प्रायश्चित कर रहा था।

आप कुछ अस्वस्थ लग रहे है मित्र। आने वालों में से एक ने धीरे से कहा। अस्वस्थ नहीं में पूर्ण स्वस्थ हूँ। स्वस्थ होने का मतलब आखिर रोग मुक्त होना ही तो नहीं हुआ करता। स्वस्थ माने स्वस्थ अर्थात् अपनी पूरी चेतना में, पूरी प्रवक्ता में, पूरी स्फूर्ति में व्यक्ति का होना कहकर वह हलके से मुस्करा दिये।

आने वाले भाव विह्वल थे। ऐसा स्वागत, ऐसी अपूर्व आत्मीयता उन्हें जीवन में पहली बार मिली थी। वह अपने इन नवागन्तुक मित्रों को जो जापानी वैज्ञानिकों के प्रतिनिधि मण्डल के रूप में आए थे, विद्यालय घुमाना शुरू किया। उन्हें भी आश्चर्य था विश्व का सर्वोच्च वैज्ञानिक प्रयोगशाला से संन्यास ने इस छोटे से विद्यालय में क्यों अपने को अटकाए हे। क्या इसकी प्रतिभा का दुरुपयोग नहीं हो रहा। जो प्रतिभा.....

आगे कुछ कोई सोचता इसके पूर्व उन्होंने एक छोटे से उपवन की और इशारा करते हुए कहा-आइए उधर बैठेंगे। सभी वहाँ पहुँच कर एक गोल घेरे में बैठ गए। लहराते पुष्पों, उड़ती तितलियों के बीच हरी घास पर बैठते ही एक अपूर्व ताजगी आ गई। “यदि मैं आपसे आपके व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछूँ” प्रश्नकर्ता का स्वर शालीन था। “प्रसन्नता होगी-” कह कर वह जिज्ञासा की प्रतीक्षा करने लगे। “शायद आप का मतलब इस बाल विद्यालय में किए जा रहे अध्यापक कार्य से है।” “हाँ।” “प्रतिभा के बारे में बहुत भ्रम फैल गया है मित्र”। उन्होंने एक हल्की मुसकान के साथ अपनी बात शुरू की।” प्रतिभावान वह नहीं है जिसने कोई बड़ा पद हथिया लिया हो, जिसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी हों। इसके साथ एक शर्त और यह भी जुड़ी है कि उसकी दिशा क्या है। दिशा विहीनता की स्थिति में व्यक्ति क्षमतावान् तो हो सकता है, किन्तु प्रतिभावान नहीं। अन्तर उतना ही है जितना वेग और गति में, एक दिशाहीन है दूसरा दिशायुक्त। उन्होंने भौतिक विज्ञान की भाषा में समझाया। सामर्थ्य दोनों में है, क्रियाशील भी दोनों हैं पर एक को अपने गन्तव्य का कोई पता ठिकाना नहीं, दूसरा प्रतिपल अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहा है।” “अरे! यह तो बहुत बड़ा अन्तर है”। बोलने वाले के स्वरों में आश्चर्य था।

“बस यही दशा आज जीवन की है। आज की स्थिति में यह उस जहाज की तरह है जिसका नेव्हीगेटर बेहोश है, बस चला जा रहा है, बता सकते हैं उसका परिणाम! जरूर कहीं न कहीं अनेकों को नष्ट कर स्वयं नष्ट हो जाएगा”। सुनने वालों में से एक का जवाब था। “ठीक कहते हैं।” उन्होंने चिन्तक की मुद्रा में कहा। हर मनुष्य सोचता है। पर क्या करना है? परिणति क्या होगी? इसके गुणों-दोषों पर विचार करने की उस फुरसत नहीं होती और परिणाम होता है, क्षमताओं का उन्मत्त नर्तन जिसमें वेग तो होता है पर दिशा नहीं। पिछले विश्वयुद्ध में यही तो हुआ, हिटलर ही क्यों-पूरी जमात की क्षमताएँ उन्मादी होकर थिरक रहीं थीं। राजनेता वैज्ञानिक सभी तो शामिल थे। उनमें से अनेकों के बारे में दुनिया प्रतिभाशाली होने का भ्रम पाले हुए है”। उनका संकेत अपनी ओर था।” तो फिर प्रतिभा”......एक अन्य की जिज्ञासा उभरी। अर्थात् वह क्षमता जिसकी दिशा सृजन की ओर हो। जिसके हर बढ़ते कदम का स्वागत मानवीय मुस्कान करे। छटपटाहट विफलता आह्लाद में बदल जाए। क्षमताएँ सभी के पास हैं, मात्रा का थोड़ा बहुत भेद भले हो। इनके वेग को सृजन की ओर बढ़ती गति में बदलकर हर कोई प्रतिभाशाली बन सकता है। किन्तु स्वयं आपकी प्रतिभा का उपयोग.......”? प्रश्नकर्ता अपने मूल विषय पर आ गया।” वह तो मैं मानवीय जीवन की प्रथम आवश्यकता की पूर्ति में कर रहा हूँ। प्रथम आवश्यकता? हाँ प्रथम आवश्यकता, जो टी. वी., टेलीफोन नहीं, स्वादिष्ट व्यंजन, सुख के सरंजाम नहीं, हैलिकाप्टर राकेटलाँचर, अणु, परमाणु आयुध भी नहीं मित्रों वह है जीवन कैसे जिया जाय, इस बात की जानकारी। समूची जिन्दगी कैसे अनेकों सद्गुणों की सुरभि बिखेरने वाला मुसकराता गुलदस्ता कैसे बने, इस बात का पता। इसके बिना सभी कुछ बन्दर के हाथ में उस्तरे जैसा है, जिसका उपयोग वह सिवा अपनी और दूसरों की नाक काटने के और कुछ नहीं करेगा। अच्छा हो बन्दर पहले नाई बने फिर उस्तरा पकड़े।” आप तो दार्शनिकों की सी बातें करते हैं”- सुनने वालों ने उल्लास भरे स्वरों में कहा। ”दार्शनिक तो नहीं, अभी तक के अनुभवों ने सोचना सिखा दिया है और अभी तक के अनुभवों के आधार पर प्रतिभा का जो स्वरूप समझ में आया है वह है प्रकाश की ओर गतिमान जीवन। उसी के अनुरूप इन बच्चों को प्रतिभाशाली बना रहा हूँ। उन्हें मनुष्य होने का शिक्षण दे रहा हूँ।”

“अर्थात् आप बन्दरों को नाई बना रहे हैं,” कहने वाले का संकेत पेड़ों पर उछल-कूद कर रहे विद्यालय के बालकों की ओर था। ठीक कह रहे हैं ताकि वे अपने उस्तरे की सहायता से मनुष्यता के चेहरे का सौंदर्य निखार सकें और वह “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की पुकार लगाती हुई प्रकाश के युग में पहुँच सके। प्रतिभा की यथार्थता समझाने और स्वयं का जीवन तदनुरूप गढ़ने वाले यह विश्व विश्रुत वैज्ञानिक थे ‘अलबर्ट आइन्स्टीन जिनके द्वारा लिखे गए ऑटो बायोग्राफिकल नोट्स आ भी हम सबको प्रतिभावान बनने का तत्त्वदर्शन सुझाते हैं।


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