जब संवेदना का अंकुर पल्लवित हुआ......

December 1990

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वह फटी-फटी आँखों से देखे जा रही थी। सूखते-चटकते तालाब तड़पते, विकल होते, प्राण छोड़ते जानवर और मनुष्य क्या कहा जाय उनके बारे में सब कुछ तो प्रत्यक्ष दीख रहा था। हाय! पेट का वह धधकता ज्वालमाल! सभी तो दिन-रात उसी आग में पतंगों की तरह जले भुने जा रहे हैं। क्षुधा तृषा से पीड़ित कृषक मजदूर इस दुष्काल में कौन सुनता है इनकी। सिवा उस धरती के जिसकी छाती अपनी सन्तानों के दुख से सूख-चटख कर विदीर्ण हो रही थी। जो कभी सभी का पेट भरते थे आज वे स्वयं ही.......। आगे कुछ सोच न सही वह... दोनों हाथों सिर थाम कर बैठ गई।

आज वर्षों बाद उसका इधर आना हुआ। सुना था दुष्काल है, चारों ओर आती स्वर उठ रहे हैं। अनुभव इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उसके पिता स्वयं बड़े श्रेष्ठी थे। उनके निजी आगार में अनाज की विशाल राशि थी, जल दूर की नदी से बहँगियो में आता था। उसी के घर क्यों आस-पास के सभी घरों में यही स्थिति थी। वैभव की इतराहठ-विलास की उन्मादी गूँज में अकाल पीड़ितों के कारुणिक स्वर भला कैसे घुसे। एक ओर कुत्ते भी पेट भर दूध छकते थे दूसरी ओर इंसान पानी के लिए तड़प रहा था। क्या कहा जाये इसे?

वह कौन सी चीज है जिसने हम लोगों की मनुष्यता, हमारी मान-मर्यादा भूख का अन्न-त्याग का जल सभी कुछ छीन लिया। कहा जाता है कसाई खाने में कटे बैल का माँस, बैल ही ढोकर ले जाते हैं। पर बैल तो बेचारे बेजबान, विवश हैं। लेकिन मनुष्य वह तो अकलमन्द है, क्या हो गया है उसे जो अपने जाति भाइयों की लाशें ढो रहा है उनके घरों में आग लगाकर जिन्दा जला रहा है। वह सोचते-सोचते लौट पड़ी। ऐसे दुष्काल में श्रेष्ठियों के समूह की यह निर्दयता नहीं....नहीं, वह पिता से कहेगी, भीख माँगेगी हाथ पसारेगी, कुछ भी हो अकाल से लड़ेंगी उसे पराजित करके रहेगी। बढ़ते कदम उसे हवेली तक ले आए। पता तो तब चला जब पिता ने म्लान मुख बेटी की परेशानी का कारण जानना चाहा।

सारी बात सुनकर पिता ने उसास भरी। बेरुखे स्वर में कहा-हम कर भी क्या सकते हैं-बेटी-सब का अपना भाग्य है। इस तरह यदि हम लोग अन्न-धन लुटाने लगे तो चल चुका व्यापार। अब उस ओर न जाना।” चलो स्नान आदि करके भोजन करो। पुत्री से सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की।

“भोजन! न, न, एक कौर भी नहीं, एक दाना भी नहीं। आप को दया नहीं आती पिताजी, अनेकों भूख से तड़पते हुओं को जान गँवाते देश कर। किसी दिन अपने कृषि प्रधान देश के गाँव ही प्राण थे, आज वे ध्वंसोन्मुख हैं। जानते हैं क्यों?” वह आक्रोश से उबल पड़ी। “सिर्फ इसलिए कि आप जैसे लोग सदाशयता को भूलकर शोषण में जुट गए। इसके सिवा क्या सम्बन्ध है आप लोगों का किसानों से। जो लोग इस देश के मुख का अन्न जुटाते आ रहे हैं, वे ही आज निरन्तर, निरक्षर, निरुपाय होकर मृत्यु पथ में तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। क्यों अब कुछ बोलते क्यों नहीं?

वृद्ध पिता ने मुँह फेरकर ज्यों ही देखा, त्यों ही उसके दोनों होंठ थर-थर काँपने लगे। वह बोली “मनुष्य होकर मनुष्यता की कोई बात न हो यह कैसे हो सकता है, पिताश्री!” कह कर उसने दाँतों से भींचकर अपने होठों का काँपना रोक लिया, लेकिन आँखों के कोनों से झर-झर करके आँसू बह निकले।

अब वह प्रतिवाद न कर सके। ऐसा लगा मानो उनकी सुरमा अंजित आँखों की दीप्ति कुछ धीमी पड़ गई हो। बड़ी मुश्किल से कंठ से स्वर फूटा मेरा सब कुछ तेरा, तू कुछ भी कर।

एक घर-दो घर-दस घर-प्रायः सभी धनिकों के यहाँ नंगे पाँवों वह भागती फिरी। उसके द्वारा किए गए कारुणिक चित्रण ने अनेकों के दिलों में संवेदना के बीज बो दिए। आगार खुल गए। अस्त्र-वस्त्रों की बाढ़ लग गई। उसने सब कुछ समर्पित किया तथागत के उन्हीं चरणों में जिनके पास बैठकर एक दिन उसने अकाल की कहानी सुनी थी। दुष्काल पीड़ित क्षेत्र को देखने की प्रेरणा की थी।

आज समूचा भिक्षु संघ इस अनोखी बाला के सम्मुख नतमस्तक था। हतप्रभ था उसके करतब के सामने। एक छोटी से दुबली पतली लड़की अकाल के दानव को इस तरह पराजित कर सकेगी कौन सोच सकता था भला? सचमुच अकाल पराजित हो तो गया सभी तो उसका गुणगान कर रहे थे।

भिक्षुओं के आश्चर्य को भंग करते हुए तथागत का स्वर गुँजा-भाव संवेदना की शक्ति असीम है पुत्रों! जिसका जीवन सुप्रिया की तरह इन उदात्त भावों का घनीभूत पुँज बन गया हो उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।”


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