आप क्या मिल गए भ्रम परे हो गए, विश्व तक दृष्टि के दायरे हो गए।
हम स्वयं के सुरों पर बहुत मुग्ध थे, किन्तु अब वे सभी बेसुरे हो गए।
हम जिन्हें शक्तिशाली समझते रहे, अब निरर्थक वही आसरे हो गए।
यूँ उतारे परत - पद - परत आवरण, भाव- चिन्तन हमारे खेर हो गए।
आपने इस तरह कर दिया रिक्त मन, रीत कर हम भरे के भरे हो गए।
लोभ-लिप्सा स्वयं लुप्त होने लगी, द्वेष-दानव सभी अधमरे हो गए।
आपकी स्नेह-बौछार पाकर सुखद, शुष्क अंकुर सभी फिर हरे हो गए।
आपकी जो कृपा-दृष्टि हमको मिली, देख लो हम अरे क्या से क्या हो गए।
आपने इस तरह पंक्ति पहली पढ़ी, हम सभी गीत के अन्तरे हो गए।
-शचीन्द्र भटनागर