युग धर्म के निर्वाह में ही समझदारी

December 1990

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उत्सव आयोजनों, निर्माणों, दुर्घटनाओं प्रकृति प्रकोपों जैसे अवसरों पर संबंधित व्यक्ति ही नहीं, अन्य भावनाशील भी उन कार्यों में सहयोगी बनने के लिए अनायास ही दौड़ पड़ते है। इसके लिए निमंत्रण देने, बुलाने के लिए नहीं जाना पड़ता। दर्शकों तक की क्रियाशीलता उभर पड़ती हे और वे अपने योग्य काम तलाश कर स्वयं ही कुछ न कुछ करने लगते हैं। मेलों में जब सर्वत्र हलचलें दीख पड़ती है तो वहाँ जा पहुँचने वाले भी चुपचाप बैठे नहीं रहते वरन् कहाँ क्या हो रहा हे यह देखने के लिए चल तो पड़ते ही है। अरुणोदय, प्रभात बेला में भी सर्वत्र हलचलें दीख पड़ती है। पक्षी चहचहाने पुष्प खिलने और प्राणी समुदाय उदीयमान ऊर्जा से अनुप्राणित होकर अपने-अपने स्तर की क्रियाशीलता का परिचय देने लगते है। मदारी, सपेरे और बाजीगर जब कुछ कौतुक दिखाने लगते है तब भी बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के ठट्ठ जमा हो जाते हैं और जरूरी काम छोड़कर भी उस अभिनव क्रिया−कलाप में रस लेने लगते हैं।

युग परिवर्तन की बेला भी ऐसी ही हे जिसमें बहुमुखी परिवर्तन दृष्टिगोचर होंगे। बीन बजने पर सर्प लहराने लगते है। मेघ गर्जन पर मोरों का नाचना आरम्भ हो जाता हे। बसंत उभरा देखकर तितलियाँ, भौंरों से लेकर कोयलों तक की चित्र-विचित्र हलचलें दीख पड़ती है। लगता है उनको भाव-संवेदनाएँ अवसर के अनुकूल उत्तेजित करती और कुछ न कुछ करने के लिए जुटा देती है। युद्ध के नगाड़े बजाने पर सैनिकों की भुजाएँ फड़कती है। सावन आते ही गीत-मलहारों की धूम मच जाती हे। भोर का प्रकाश आरंभ होते ही सभी की नींद खुल जाती है और नित्य कर्म से निबटकर ताजगी अनुभव करने और निर्धारित क्रिया–कलापों में जुटते सभी को देखा जाता है। जुलूस को आरंभ करने में ही कुछ जुगाड़ बिठाना पड़ता हे पीछे तो रास्ता चलते लोग साथ हो लेते है और प्रमुखों की तरह ही प्रदर्शन करने और नारे लगाने लगते है। नदी के प्रवाह में कूड़ा-करकट भी बहता हे। अन्धड़ के साथ तिनके-पते भी घोड़े की चाल दौड़ने लगते है।

युग सृजन बड़ा काम हे। इसमें जीर्ण-शीर्ण खण्डहरों को उखाड़ा और उनके स्थान पर भव्य भवन खड़ा किया जाना हे। दिवाली पर घर का कूड़ा-कचरा तो बुहारा ही जाता हे साथ ही पुताई रंगाई के अतिरिक्त सजावट के लिए भी मन हुलसता हे। युगसंधि को ऐसी ही हलचलों से भरा पूरा मानना चाहिए। प्रस्तुत दस वर्षों के उपरान्त नये दृश्यों, विधानों और क्रिया–कलापों का सिलसिला चल पड़ेगा। मुर्दों के साथ श्मशान तक भी भीड़ जाती है और बारात के आगमन पर दूल्हा को देखने के लिए भी लोग काम छोड़कर बारात पर टकटकी लगाते हैं। प्रस्तुत परिवर्तन अभूतपूर्व ही होने जा रहा हैं। इसमें आश्चर्य का गहरा पुट रहेगा। जीवित लोगों में से इस प्रकार की महान क्रान्ति कदाचित ही किसी को देखने को मिली होगी। स्थानीय और क्षेत्रीय घटनाएँ आश्चर्यजनक होती भी रहती हैं। पर जिनका प्रभाव विश्व के कोने-कोने पर पड़े और प्राणियों के चिन्तन, क्रिया–कलापों में असाधारण अन्तर आये ऐसी कुछ कल्पना तो की जा सकती है पर उतनी व्यापक उथल-पुथल का घटनाक्रम तो असंभव जैसा ही लगता है। आज जबकि हर दिशा में अवांछनीयता का बोलबाला है इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि वह परिवर्तन आँखों को देखने को मिलेगा जिसके असंख्यों स्वप्न तो सँजोये पर कुछ बन न पहने के कारण निराश होकर ही चले आये।

अब की बार बात दूसरी है। इस भवितव्यता के पीछे सृष्टा की योजना, चेतना और प्रेरणा जो काम कर रही है। उसका संकेत पाकर तो “मूक होंहि वाचाल -पंभु चढ़हिं गिरिवर गहन” वाली उक्ति चरितार्थ होने लगती है। बीज को वृक्ष और भ्रूण को समर्थ जीवधारी बना देने वाले कौतुकी के लिए क्या कुछ असंभव हो सकता है। जो रात को दिन में बदल सकता है उसके लिए युग परिवर्तन क्यों कुछ कठिन होना चाहिए। भूतकाल में भी ऐसे परिवर्तन होते रहने की गाथाएँ और साक्षियाँ देखने सुनने को मिलती रहती हैं।

बसन्त की बेला फूल ही नहीं खिलाती, प्राणियों में ऐसा आन्तरिक उल्लास भी उभारती है जो उन्हें प्रजनन-कृत्य में संलग्न होने को विवश करता है। आन्तरिक उमंगें जब उठती हैं तब ऐसा नियोजित और घटित होने लगता है जिसे देखने वाले आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहते। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ दीख पड़े तो उसे अप्रत्याशित नहीं मानने चाहिए।

भूमिपूजन, शिलान्यास, शुभारंभ तो आदर्शनिष्ठ व लोकसेवी अपने ढंग से अपनी छोटी हैसियत के अनुरूप छोटे स्तर पर कर रहे हैं। पर वह महान प्रक्रिया इतने छोटे परिकर तक ही सीमाबद्ध होकर नहीं रहने वाली है। चिनगारी, दावानल बनते देखी जाने वाली है। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन एवं गाँधी के सत्याग्रह का आरंभ छोटा और क्रमिक विस्तार कितना हुआ था, इसे हम सभी जानते हैं। ईसा ने शरीर त्यागने के उपरान्त भी करोड़ों को अनुयायी बना लेने की भूमिका निभाई। साम्यवाद, प्रजातंत्र के जन्मदाता भी मात्र आरंभिक प्रतिपादन ही कर सके थे। उन मान्यताओं का विस्तार तो उनने किया जिनने उन्हें अन्तर की गहराई में प्रतिष्ठित कर लिया था।

युग सृजन की प्रारंभिक भूमिका विचारशील वर्ग को दीप्तिमान करती है। प्रतिभाएँ ही अग्रिम पंक्ति में खड़ी होती हैं। साहस और पराक्रम के आधार पर ऐसे आदर्श उपस्थित करती हैं। जिनका अनुगमन करने में अनेकों के पैर सहज ही आगे बढ़ने लगें। प्रथम चरण विचार क्रान्ति है। जो चल रहा है उसमें से अधिकाँश सड़ा-गला है। इसे बुहारना हटाना तो पड़ेगा ही, साथ ही उसे प्रस्तुत-उपस्थित भी करना होगा, जिसकी समय को अनिवार्य आवश्यकता है। इसके लिए लेखनी, वाणी, कला जैसे अनेकों विचारों के प्रभावित करने वाले तब के अग्रिम मोर्चा सँभालेंगे। लोगों को सोचने के लिए बाधित करेंगे कि जो अपना लिया गया है वह न तो उचित है और न श्रेयस्कर। इसके स्थान पर वही प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए जो यथार्थता, उपयोगिता, दूरदर्शिता और आदर्शवादिता के साथ जुड़ा हुआ है।

अवांछनीय प्रचलनों की आदतों को छोड़े बिना कोई गति नहीं। नशेबाजी चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो उसे छोड़े बिना कोई गति नहीं हैं आलस्य और प्रसाद का उपभोग भले ही चिरकाल से स्वभाव में सम्मिलित रहता चला आया हो पर जब प्रगति की आवश्यकता अनुभव हो तो उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा। लोगों में लालच-संग्रह की, बड़प्पन-प्रदर्शन के लिए आतुर अहंकार की प्रवृत्तियाँ स्वभाव का अंग बनकर रह रही हैं। थोड़े लोगों के कुटुम्ब का स्वार्थ साध नहीं समस्त विश्व के हित अधिक बटोरने और उसका अपव्यय दुरुपयोग करके बिखेरते रहने की आदतें स्वभाव में घुस पड़ी है। इन्हें हटाये बिना किसी को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकने का अवसर मिलता ही नहीं। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का संयम रखकर ही कोई इस योग्य बन सकता है कि विश्व वसुधा की सेवा साधना में समर्थ हो सके। औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतोष करने के उपरान्त ही ऐसा कुछ बन पड़ता है जिसे युग देवता के चरणों में समर्पित किया जा सके और वातावरण को नन्दन वन जैसा सुरभित बनाया जा सके।

जिनके पास अतिरिक्त सामर्थ्य है उनके ऊपर अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ भी आती हैं और उनका उपयोग युग परिवर्तन जैसे महान प्रयोजनों में बन पड़ने की आशा अपेक्षा तो की ही जाती है। जिनके पास भाव संवेदना का कोई कहने लायक अंश विद्यमान होगा वे अपनी विचार शक्ति का भरपूर उपयोग दिग्भ्रान्तों को सही रास्ते पर लगाने के लिये करेगा। वह कैसा ज्ञानी अपने बुद्धि कौशल का उपयोग मात्र धन सम्पदा एकत्रित करने में ही लगता रहे। इसके लिए अनुचित मार्ग तक अपनाये और दूसरों को भी अपने भटकावे में सहयोगी बनाये। मनीषियों का प्रथम वर्ग है जिसे लोक चेतना की उत्कृष्टता की दिशा में उछालने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिए। विचार क्रान्ति का अधिक दायित्व उन्हीं के कंधों पर है। युग साहित्य का सृजन, मार्गदर्शन, विचार विनिमय जैसे कृत्य आदि अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किये जा सकें तो उसका प्रतिफल उच्चस्तरीय हुए बिना रह ही नहीं सकता। प्रज्ञा पुत्रों का प्रथम और प्रमुख यही कार्य है कि वे नवयुग के अनुरूप दृष्टिकोण, भावसंवेदना और साहस उत्पन्न करने में कमी न रखें। तद्नुरूप वातावरण बनाने में प्राणपण से जुट पड़ें।

जिनके पास पैसा है वे उसे विलास के लिए संग्रह के लिए उत्तराधिकारियों के लिए और ठाटबाट के लिए खर्च न करे। वरन् उन पुण्य-प्रयोजनों के लिये लगायें जो गिरों को उठाने और उठों को उछालने में अपनी सार्थकता सिद्ध करें।

जो जा रहा है उसकी पूँछ पकड़ने से कुछ लाभ नहीं। जो आ रहा है और स्थिर रहने वाला है उसी की आरती उतारना दूरदर्शिता है। पिछले दिनों आसुरी सभ्यता का बोलबाला रहा है। उसी ने तथाकथित समर्थों को बुरी तरह भ्रमाया और नचाया है। इस कुचक्र से उन्होंने लाभ भी उठाया है भले ही उसने उन्हें तथा सहभागियों को सड़ा गला कर बर्बाद कर दिया हो। यह ग्रहण काल जैसे अनर्थ अब बिदा होने जा रहा है। उसका साथ समय रहते छोड़ देने में भलाई है। भलाई इसमें भी है कि जिस शालीनता के प्रतिष्ठित होने का समय आ रहा है उसके अनुरूप अपनी रीति-नीति को परिवर्तित कर लिया जाय। इस परिवर्तित में प्रतिभाओं को अग्रणी बनना चाहिए। प्रचलन से विरत होकर यदि प्रगतिशीलता अपनाने में कुछ घाटा दीखता हो तो उसको वरण नहीं करनी चाहिए। समय के अनुरूप बदलने में जो उत्साह का परिचय देते है उनका अग्रगमन हर दृष्टि से हर किसी के लिये श्रेयस्कर ही सिद्ध होता है। भोर होने से पहले बाँग लगाने वाला मुर्गा अकिंचन पक्षी होते हुए भी सर्वत्र चर्चा का विषय रहता है और अपनी दूरदर्शिता के कारण सराहा भी जाता है।

इन दिनों पाश्चात्य भौतिकवाद हर किसी के सिर पर चढ़ा है। विज्ञान क्षेत्र में उसने जो उपलब्धियाँ हस्तगत की है उसी के सहारे उसकी साख जम गई है और समर्थों के अनुकरण की परम्परा बन गई है। यह इन्द्रधनुषी आकर्षण है तो बहुत, पर नियति के साथ जुड़ा हुआ न होने से उनमें स्थायित्व नहीं है। कुकुरमुत्ते बरसात के दिनों उग तो सड़े कचरे में भी जाते है पर उनकी छायादार विशालता का लाभ किसी ने नहीं उठाया। समझा जाना चाहिए कि इन दिनों जिस प्रपंच का बोलबाला ह। वह बरसाती नदी की तरह अपना उफान देर तक बनाये न रह सकेगा। ऐसे नाले कुछ ही दिनों में तली तक पहुँच कर सुख जाते है। अवांछनीयता और कुप्रचलनों की तूती देर तक नहीं बोलती रह सकती।

सात्विकता और शालीनता में ही स्थिरता रही है। देव पक्ष ही स्थिर रहता और पूजनीय बनता है। भूत पलीत तो थोड़े समय उपद्रव खड़ा करते और सदा के लिए समाप्त हो जाते है। प्रपंचों में ओत-प्रोत चतुरता गुब्बारे की तरह कुछ ही समय तक फूली हुई और आकाश में उड़ती हुई दीख सकती है पर वह स्वरूप स्थिर कहाँ रह सकता है। पानी के बबूले की उछल-कूद कुछ ही क्षण रहती है। टिकाऊपन तो हिम प्रदेश से झरने वालों झरनों में ही होता है। वे स्वयं शोभायमान लगते और असंख्यों की प्यास बुझाने की क्षमता धारण किये रहते हैं। समझना चाहिए कि देव स्तर की शालीनता को अपनाने, तदनुरूप ढलने और ढालने में ही कल्याण है। विचारवानों को समय रहते अपनी गतिविधियों में ऐसा परिवर्तित कर लेना चाहिए जिसमें लाभान्वित रहने और रखने के उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध होते रहें। उपलब्ध क्षमताओं को नव सृजन के पुण्य प्रयोजन के लिए नियोजित करना ही अपने समय की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। चूक जाने पर तो पश्चाताप ही हाथ रहेगा और घाटा उठाने का परिताप भी भुगतान पड़ेगा।


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