हमारा चिरपुरातन गौरव एवं बहुमूल्य थाती

December 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हमारी प्राचीन साँस्कृतिक धरोहर इतनी समृद्ध थी कि उसने एक समय समस्त विश्व को अपने रंग में रंग लिया था। इसका पता विभिन्न देशों की संस्कृतियों, वास्तुकलाओं, एवं पुरातत्व अवशेषों के अध्ययन से सहज ही मिल जाता है। अमरीका भी भारतीय संस्कृति से अछूता नहीं था, इसकी जानकारी इतिहासकारों की विभिन्न रचनाओं से मिलती हैं।

कुछ पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार दुनिया के किसी भी भाग से अमेरिका निवासी एशिया आदि से नहीं गये, वरन् उन्होंने स्वयं अपना विकास किया है, किन्तु वर्तमान में भौगोलिक भूगर्भीय पुरातत्व और प्राणिशास्त्र सम्बन्धी खोज इन तर्कों का खंडन करती है। “हाँम्सवर्थ हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड” नामक संकलन में लिखा है कि ‘उत्तरी अटलाँटिक समुद्र हमेशा से जलमय नहीं था। वहाँ की भूमि पुरातन विश्व से मिली थी और अमेरिका में मनुष्य ने पुरानी दुनिया से ही प्रवेश किया। कोलम्बिया इक्वेडर, पेरु बोलेविया चिली आदि में जो प्रमाण बिखरे पड़े हैं, उससे चलता है कि किसी समय वहाँ की स्थिति सुविकसित देशों जैसी थी। किन्तु यह सभ्यता कहाँ से पहुँची इसका उत्तर उनके धार्मिक विश्वासों उनके चेहरे की बनावट उनके कुशलशिल्प और निर्माणों उनके पूर्वकालिक गमनागमनों से ही मिल जाता है।

अमेरिका की “जॉन होपकिन्स” नामक पत्रिका तथा हाम्सवर्थ हिस्टी ऑफ दि वर्ल्ड एवं उन पर समीक्षा लिखने वाले भारतीय विद्वान श्री उमेशचन्द्र ने अनेक प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये हैं कि प्राचीन भारत और प्राचीन अमेरिका में घनिष्ठ सम्बन्ध था। व्यापारी और धर्मोपदेशक लम्बी जल यात्राएँ करके आते जाते थे। इन्द्र गणेश, अग्नि शिव, सूर्य एवं अन्य देवी-देवता भारत की तरह वहाँ भी पूजे थे। उक्त इतिहासकार बताते हैं कि उस समय अमेरिका एक प्रकार से भारतवर्ष का साँस्कृतिक उपनिवेश था। मैक्सिको में साथ मनाया जाता है, जिसमें राम लीला की झाँकियाँ निकाली जाती हैं भारत की तरह स्मृति रूप में समाधि, स्तूप एवं स्मारक वहाँ भी बनते थे, जिन्हें “टिकल” कहा जाता था। भी बनते थे, जिन्हें “टिकल” कहा जाता था। इसके अतिरिक्त उनके यहाँ वैवस्वत मनु की जलप्लावन की कथा अब भी प्रख्यात है तथा जनश्रुति का एक अंग है।

मेक्सिको के प्राचीन मन्दिर ‘कोपन’ की दीवारों पर हाथी पर सवार की महावत के भित्ति चित्र’ निकल’ में मुण्डधारी शिव की प्रतिमा अनन्त वासुकि, तक्षक सर्प देवताओं की प्रतिमाएँ आदि भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला की अमिट छाप हैं। ‘क्वीरिग्वा’ में मिली मिट्टी की प्राचीन प्रतिमाओं में भारतीय शिल्प देखा जा सकता है। टोलो (मैक्सिको) में विशालकाय पाषाण स्तम्भों पर भारतीय देवताओं की प्रतिमाएँ बड़े कलात्मक ढंग से खुदी हुई हैं। कोयून हाण्डुराँस-मध्य अमेरिका ) में दैत्य की मूर्ति भी उसी आकृति में है, जिस प्रकार असुरों का हमारे यहाँ वर्णन पाया जाता है। ‘कपूरगों’ (ग्वालेभाटा) में उपलब्ध शिला प्रतिमाओं में स्पष्टतः भारतीय शिल्प छलकता देखा जा सकता है। जिस प्रकार अनेक स्तम्भों वाले मन्दिर भारत में जहाँ-तहाँ दिख पड़ते हैं, उसी प्रकार ‘यूक्टास’ के ध्वंसावशेष’ थाइजेण्ड कालम्स’ (हजार स्तम्भों ) को देखा जा सकता है। बिना चूने-गारे की सहायता से केवल पत्थरों से बने भवन भारत की विशिष्ट वास्तु कला है। ऐसा ही एक तक्षशिला जैसा ध्वस्त खण्डहर चाको (द अमेरिका) में विद्यमान है। सन् 1927 में तिआहुआन’ (पेरु द अमेरिका ) में पुरातत्व विभाग ने जो खुदाई कराई है, उसमें एक ऐसा शिव त्रिशूल मिला है, जिसकी ऊँचाई 750 फीट है। इसी में 20 टन भारी और 24 फीट लंबा एक शिवलिंग भी है, जिस पर ग्रह नक्षत्रों की अन्तरिक्षीय स्थितियाँ अंकित हैं। एक ही पत्थर से तराशा हुआ 10 टन भारी सूर्य मन्दिर, तीन कतारों में उपलब्ध 47 प्रतिमाएँ भी उस काल की भारतीय कला एवं संस्कृति की साक्षी देती है।

भारत के प्राचीनतम साहित्य में अमेरिका का उल्लेख भी है। ऐतरेय ब्राह्मण के इन्द्र महाभिषेक में अपाच्यों के राजाओं का वर्णन है और कहा गया है कि ये पश्चिम दिशा में है। भूगोल के अनुसार भी मैक्सिको राष्ट्र में अपाच्य नामक मूल निवासी अब तक रहते हैं। महाभारत में लिखा है कि उद्दालक मुनि पाताल में ही निवास करते थे। हाम्स हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड’ में लिखा है कि पाताल अमेरिका को ही कहा जाता था। बलि नामक राजा भी पाताल देश में निवास करता था। पाताल देश में राजा बलि की राजधानी दक्षिण अमेरिका में अभी भी बोलीविया नाम से प्रसिद्ध है। अर्जुन की उलूपी नामक एक पत्नी भी इसी मूल की थी और वेदव्यास भी वहाँ कई बार गये थे। इसका उल्लेख स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में भी किया है। भारतीय पौराणिक उल्लेखों और मेक्सिको में प्रचलित “किजक्स” गाथाओं में आश्चर्यजनक साम्य है। विष्णु पुराण में पाताल लोक का और भी अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन है और वह अमेरिका की प्राचीन स्थिति पर वैसा ही प्रकाश डालता है जैसा कि पुरातत्त्ववेत्ता बताते हैं’।

विद्वान लेखक चेसली बैटी “अमेरिका बिफोर कोलम्बस” में लिखते हैं कि मेक्सिको नाम माया+कसको पड़ा है, जिसका अर्थ वहाँ के प्राचीन आदिवासियों की भाषा में ‘मय’ का अनुयायी ‘ है। लैली मिचेल द्वारा लिखित ‘काँक्वेस्ट ऑफ दि माया’ ग्रन्थ में मेक्सिको में उपलब्ध ऐसे अनेक प्रमाणों का वर्णन है, जिनसे पुरातन भारत और मैक्सिको की साँस्कृतिक घनिष्ठता सहज ही सिद्ध होती है। बाल्मीकि रामायण में भी “मय” सभ्यता के अनुयायी भारतीयों की चर्चा लगभग उन्हीं शब्दों में की गई हैं।

भारतीयता के प्रभाव की साक्षी देने वाला दक्षिणी अमरीकी राष्ट्र है पेरु। ‘पेरु’ का शब्दार्थ संस्कृत में ‘सूर्य का देश, ‘सूर्य पुत्रों का देश है।’ वस्तुतः “पेरु” नाम रखा ही गया इस कारण कि जब भारत में सूर्य अस्त हो जाता था तब वहाँ दिन का समय होता था। पूर्व में भारत व पश्चिम में पेरु एक दूसरे से इतनी दूर होने के बावजूद साँस्कृतिक रूप से एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप से विश्व को भारत के अजस्र अनुदान” में पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति के प्रसार-विस्तार का विशद एवं गूढ़ विवेचन किया गया है।

वस्तुतः भारतीय साँस्कृतिक गौरव एक अमूल्य थाती है। समय आ रहा है कि यही आलोक पुनः समस्त विश्व में संव्याप्त हो जा रहा है। कभी जिसे ब्रह्मवर्त कहा जाता था वह ब्रह्मनिष्ठ आत्माओं के समुच्चय से भरा पूरा सारा विश्व ही था। पूर्वात्य आध्यात्मिक स्थापनाएँ अगले दस वर्षों में विश्व के कोने कोने में भिन्न भाषाओं में जब पहुँचेगी तो इसे सही अर्थों में सतयुग की आपसी के रूप में देखा जा सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118