उत्कृष्टता का सृजन

December 1990

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अंधकार कितना ही सघन और व्यापक क्यों न हो, उस भय भरी स्थिति को अपनी सीमा से दूर कर सकने में जलता दीपक भी सफल हो जाता है। जलते दीपक ही अन्य अनेकों बुझे हुओं को नये सिरे से जलाने में समर्थ हो जाते हैं।

दुराचारी, अपराधी, नशेबाज, दुर्व्यसनी अपने स्तर के अनेकों अन्य साथी-सहयोगी एकत्रित कर लेते हैं, अपने द्वार अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियों का अभ्यस्त बना लेने में सफल हो जाते हैं। महामारी के रोगाणु एक बड़े क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लेते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि युग सृजेताओं का परिकर उत्पादित, प्रशिक्षित एवं कार्यरत न बनाया जा सके। अवांछनीयता को विस्तृत और सफल होने का अवसर इसलिए मिल जाता है कि उनके सूत्र-संचालकों की कथनी और करनी में एकता होती है, भले ही वह बुराई ही क्यों न हो। परंतु जहाँ भी मान्यता और सक्रियता का समन्वय होता है वहाँ समर्थता उत्पन्न होगी और साथी-सहयोगी को निकट आने के लिए अनायास ही आकर्षित करेगी। बिजली के दोनों तार मिल कर करेंट उत्पन्न करते हैं। दोनों पहियों का सहारा मिलने पर गाड़ी आगे चलती है।

पिछले दिनों नीति, धर्म, सदाचार, कर्तव्य पालन, पुण्य-परमार्थ की चर्चा तो बहुत होती रही, पर जो अपनी कथनी को करनी में, निजी जीवन में समाविष्ट कर सके हों, ऐसे प्रवक्ता मार्गदर्शक आगे नहीं आ सके, इसलिए उनके सुधार प्रयास एकांगी रह गये। श्रेष्ठता का सुखद वातावरण बनाने के लिए प्रचार कार्य करते तो अनेकों देखे गये, पर ऐसी प्रतिभाओं का अभाव ही रहा, जो अपने उच्चस्तरीय कर्तव्य के आधार पर अन्यान्यों को प्रभावित करते, साथी-सहयोगी बनाते। बुझे हुए दीपक दूसरों को जलाने में समर्थ कहाँ होते हैं?

प्राचीन सतयुगी वातावरण में जन साधारण की भूमिका को सशक्त बताया जाता रहा है, पर उसका मार्गदर्शन उन महामानवों ने किया है, जिनने अपनी कथनी और करनी को एक रखते हुए आदर्शवादिता का प्रत्यक्ष प्रमाण सामने रखा और अपने चुम्बकत्व से अनेक साथी-सहयोगियों को आकर्षित करके प्रभावोत्पादक वातावरण का समर्थ उत्पादन किया।

हनुमान-जामवन्त के नेतृत्व में रीछ-वानरों की निहत्थी सेना इतना साहस प्रदर्शित कर सकी थी, कि असुरता दमन, और धर्म-राज्य की संस्थापना वाले दोनों ही कार्य भली प्रकार पूरे हो सके। बुद्ध और गाँधी को असाधारण त्याग और पुरुषार्थ करने वाले सहयोगियों-अनुचरों की कमी नहीं रही। इस प्रक्रिया को युग सृजेताओं की समर्थ मंडली बनने में भी कार्यान्वित होते हुए देखा जा सकता है। उपयुक्त नेतृत्व में सामान्य मनोबल वाले भी प्रबल पुरुषार्थ करते और असाधारण सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। कुटिलता और कायरता भरा नेतृत्व बड़े प्रयोजन सिद्ध कर सकेगा, इसकी आशा नहीं ही करनी चाहिए।

इन दिनों विलासिता और अहमन्यता की पूर्ति ही महत्त्वाकाँक्षा बन कर रह गई है और उसी हेय प्रयोजन में अधिकाँश लोगों को निरत देखा जाता है। स्वर्गीय वातावरण वाले सतयुग को विनिर्मित करने की चर्चा करते हुए यह भी मानना पड़ता है कि चरित्रवान और परमार्थ के, साहस के धनी नेतृत्व की जिन दिनों कमी नहीं थी, उन दिनों अब से भी कम सुविधा रहते हुए ऐसे असंख्यों सृजन शिल्पियों का उत्पादन किया गया, जिनके साहसी प्रयत्नों ने वैसी परिस्थितियाँ गढ़ी, जिनका स्मरण इन दिनों पुरातन देवयुग के रूप में होता है।

उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं से भरी इक्कीसवीं सदी की चर्चा करते हुए हमें इन तथ्यों को ध्यान में रखना होगा कि असंख्य विपन्नताओं से भरी हुई वर्तमान परिस्थिति कुटिल और अनाचारी व्यक्तित्वों एवं कर्तव्यों के कारण ही विनिर्मित हुई है। इन्हें बदलना हो, तो लोकचिंतन की उत्कृष्ट बनाने की महत्वपूर्ण मुहिम संभालनी होगी।


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