गायत्री उपासना का उच्चस्तरीय सोपान ‘ब्रह्मवर्चस्’ कहलाता है। इसमें दो शब्द हैं- ब्रह्म+वर्चस्। ब्रह्म अर्थात्- ब्रह्म विद्या, ब्रह्मज्ञान। वर्चस् अर्थात्-तेजस् ब्रह्मतेज। अतः ब्रह्मवर्चस् के दो पक्ष हुए-तेजस् ब्रह्मतेज। अतः ब्रह्मवर्चस् के दो पक्ष हुए-प्रथम ब्रह्मविद्या अर्थात्-दृष्टिकोण का, क्रिया−कलाप का परिष्कार एवं भावनात्मक कायाकल्प। दूसरा वर्चस् अर्थात्-प्रसुप्त अन्तः शक्तियों का जागरण, ओजस् का संवर्द्धन। इस प्रकार ब्रह्मवर्चस् उस समग्र अध्यात्म, तत्त्वज्ञान एवं आत्मिक प्रखरता दोनों का समुचित सुसंतुलित समावेश है।
गाड़ी की पूर्णता दो पहियों के मिलने से है। एक के रहने से वह अधूरी रहती है। एक हाथ, एक पैर से किसी प्रकार काम चल तो सकता है, किन्तु उसमें सहज गतिमयता, प्रखरता और परिपूर्णता नहीं आ पाती। चिन्तन तथा क्रिया दोनों का समन्वय ही समग्र अध्यात्म साधना है। चिन्तन की उत्कृष्टता ब्रह्मविद्या या अध्यात्म-तत्त्वज्ञान का ज्ञान पक्ष है। ज्ञान एवं कर्म का समन्वय ही ब्रह्मवर्चस् है परिपोषण तथा उन्मूलन दोनों ही तथ्य इसमें समाविष्ट हैं।
ईश्वर का अवतार दो प्रयोजनों के लिए होता है-धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश। पुण्य से प्रेम तथा पाप से घृणा की उभयपक्षीय प्रवृत्तियों को सन्तुलन बनाये रहने की प्रेरणा को ब्रह्मवर्चस् कह सकते हैं। सदाशयता के संवर्धन में उदारता और सहकारिता की नितान्त आवश्यकता है। किन्तु दुष्टता के प्रति यही नीति नहीं अपनाई जा सकती, अन्यथा सर्प को पालने, दूध पिलाने, आततायी को सहयोग देने या सहन करने के अतिवादी और भयपरक उदारता के अनर्थकारी दुष्परिणाम उत्पन्न होंगे। सज्जनता एवं सत्प्रवृत्तियों के प्रति उदार सहयोग तथा आन्तरिक दोष-दुर्गुणों एवं समाजगत अनाचारों का प्रतिकार-दोनों ही आवश्यक हैं। असुरता और पाशविकता के तत्व अपने भीतर और इस संसार में कम नहीं। उनसे जूझने के लिए मात्र सदाशयता और सज्जनता अपर्याप्त है। उनके प्रति मन्यु-सिद्धान्तनिष्ठ आक्रोश का उभरना स्वयं के प्रति कठोर होना आवश्यक हैं।
रावण द्वारा मारे गये ऋषियों के अस्थिपंजरों के पहाड़ जैसे विशाल ढेर देखकर भगवान राम ने ‘मन्यु’ की ही अभिव्यक्ति की थी और भुजा उठाकर प्रण किया था-निशिचर हीन करौं महि।” इसी प्रकार दुर्योधन पक्ष की दुर्नीति एवं दुराग्रह के दलन के लिए भगवान कृष्ण को महाभारत रचाना पड़ा था और सुदर्शन चक्र भी घुमाना पड़ा था। तेजस्विता तथा उदारता परस्पर सम्बद्ध रहनी चाहिए। पवित्रता एवं प्रखरता दोनों ही समन्वित रहें, यही उचित है। ब्रह्मवर्चस् इसी समन्वयात्मक रीति-नीति को जीवन में उतारने की प्रशिक्षण प्रक्रिया को कहते हैं। इसे आगम एवं निगम, वैदिक एवं तांत्रिक पक्षों का समन्वय कहा समझा जाना चाहिए।
मानवीय चेतना में दैवी एवं आसुरी-दोनों ही तत्व कार्यरत रहते हैं। दैवी अंश को उत्कृष्टता, सद्भावना और सज्जनता का खाद-पानी देकर बढ़ाया जाता है। आसुरी अंश का उन्मूलन करने की आवश्यकता पड़ती है। माली पौधों को सींचता है तो साथ ही अनावश्यक कुरूप टहनियों की काट छाँट भी सफाई भी करता है। किसान उपयोगी पशुओं को पालता है, साथ ही हानि पहुँचाने वाले जंगली जानवरों के भगाता भी है। अपने भीतर एवं अपने समाज के भीतर सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं का अभिवर्धन जितना आवश्यक है दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन प्रायश्चित एवं इच्छापूर्ति भी उतनी ही आवश्यक है। भक्ति एवं प्रायश्चित दोनों ही उपासना के अंग हैं। श्रेष्ठता को प्रोत्साहन और निकृष्टता पर बंधन दोनों ही आवश्यक हैं।
द्रोणाचार्य के कन्धे पर धनुष, पीछे तरकश, और हाथों में वे देखकर किसी ने प्रश्न किया। ‘आचार्य प्रवर! बाण और वेद एक साथ क्यों? द्रोणाचार्य ने उत्तर-अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनु। इंद ब्रह्मं इदं क्षात्रं शास्त्रादापि शरदपि।” अर्थात् धर्म है तो धनुष-बाण क्षात्र-धर्म शास्त्र एवं शस्त्र दोनों ही ने द्वारा सदाचरण का पथ प्रशस्त किया जाता है।” विद्या और बल, ज्ञान और भक्ति दोनों ही महत्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं। यही प्राचीन आर्ष परम्परा रही है। श्रीराम को महर्षि विश्वामित्र ने दोनों ही प्रकार का शिक्षण दिया था। श्रीकृष्ण को भी संदीपनि के आश्रम में उभयपक्षीय शिक्षा प्रदान की गई थी। प्राचीन गुरुकुल परम्परा में यह प्रशिक्षण क्रम समन्वय सर्वत्र विद्यमान था। अध्यात्म क्षेत्र में वही परम्परा भक्ति और कर्म का समन्वय करने वाले तत्त्वज्ञान के रूप में है। अर्जुन और हनुमान दोनों ही उत्कृष्ट भक्त थे, साथ ही दोनों को सदा सक्रिय जीवन जीना पड़ा दोनों को ही भगवान द्वारा निरन्तर कर्म की प्रेरणा एवं शिक्षा दी गयी। आत्मोत्कर्ष और लोक-कल्याण की यही समन्वित व्यवस्था भारतीय अध्यात्म की आर्ष परम्परा है। ब्रह्मवर्चस् उसी परम्परा को गतिशील बनाने वाली प्रक्रिया है।
एकांगी दृष्टिकोण अपूर्ण ही नहीं, हानिकर भी होता है। जिन दिनों भारत में उदारता को सीमाबद्ध किया गया और अहिंसा के अतिवाद में पराक्रम को अनावश्यक ठहराया गया, उन दिनों तेजस्विता-प्रखरता की उपेक्षा होती चली गई और मध्य एशिया से आये मुट्ठी भर आक्रान्ता इस विशाल देश को पराधीन बनाने में सफल होते चले गये। इसी प्रकार तेजस्विता का अभ्यास होने पर भी उसके साथ में विवेक का मार्गदर्शन न होने पर एक समय आक्रान्ताओं की कुटिल चालों के सामने असंगठित तेजस्वी योद्धा हारते चले गये। भक्ति एवं कर्म, भावना एवं तेजस्विता दोनों को समन्वित रखने वाला तत्त्वज्ञान ही भारतीय अध्यात्म विद्या का समग्र आधार रहा है। उसके स्थान पर एकांगी चिन्तन अपनाने की भूल जब की गई है तो दुर्गति का सामना करना पड़ा है जबकि दोनों के समन्वय से सफलता और प्रगति का द्वार प्रशस्त होता है। गाँधी जी के सत्याग्रह में सत्य और अहिंसा का जितना समावेश था, अनीति के निर्भीक प्रतिकार का उतना ही प्रखर संकल्प एवं साहस भी था। यह समन्वय ही ब्रह्मवर्चस् की साधना-प्रक्रिया का पथ है।
ब्रह्मज्ञान एवं ब्रह्मतेज-दोनों के समन्वय से ब्रह्मवर्चस्-साधना सम्पन्न होती है। महान ऋषियों द्वारा प्रतिपादित समग्र अध्यात्म यही है। प्रज्ञा और पराक्रम का यही युग्म ब्रह्मवर्चस् की लक्ष्य-प्राप्ति में समर्थ बनाता है। अध्यात्म परम्परा में इन्हें ही ब्रह्मविद्या एवं तपश्चर्या कहा गया है। पौराणिक कथाओं में ब्रह्मा जी की दो पत्नियाँ बताई गई हैं एक गायत्री, दूसरी सावित्री। गायत्री को ब्रह्मविद्या पक्ष की और सावित्री को तपश्चर्या पक्ष की माना जाता है। तपश्चर्या किस की? ब्रह्माग्नि की स्फुरणा उद्भव की। आँतरिक अग्नि-चेतन ऊर्जा ही ब्रह्माग्नि है-प्राणाग्नि है। गायत्री या ब्रह्मविद्या से शान्ति का-मोक्ष का द्वार खुलता है तो सावित्री से सर्वतोमुखी समर्थता प्रखरता की उपलब्धि होती है। दोनों ही परस्पर अविच्छिन्न जुड़े है। सुसंस्कार और सत्सामर्थ्य दोनों ही परस्पर अन्योऽन्याश्रित कहे जा सकते हैं। इन दोनों का सम्मिलन ही प्रगति का पाथेय बनता है। प्रज्ञा की उदारता, पवित्रता, उत्कृष्टता से मिलने वाली उपलब्धियों को गायत्री-उपासना से प्राप्त अमृत, पारस और कल्पवृक्ष कहते हैं। प्रखरता, पराक्रम और पुरुषार्थ की उपलब्धियाँ ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मदण्ड और ब्रह्मपाश के रूप में सामने आती हैं। गायत्री और सावित्री के रूप में साधना विज्ञान की भाषा में इसे योग और तप का समन्वय कहा जाता है। योग से आत्मा के देवात्मा, परमात्मा स्तर तक विकसित होने का अवसर प्राप्त होता हैं तप से शक्ति उत्पन्न होती है। सशक्तता ही प्रगति, समृद्धि और विभूति के विविध सत्परिणाम उत्पन्न करती है। साधना से मिलने वाली सिद्धियाँ शक्ति -सम्पादन का ही परिणाम हैं। योग एवं तप दोनों की समन्वित साधना, प्रक्रिया ब्रह्मवर्चस् का आधार है।
योग और तप पवित्रता तथा प्रखरता, आस्था और क्रिया, ज्ञान एवं तेज-दोनों पक्षों की समन्वित साधना ही गायत्री की समग्र साधना है। उच्चस्तरीय सत्परिणाम इसी से मिलते हैं। ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मतेज दोनों के समन्वय द्वारा ही सर्वांगपूर्ण साधना संभव हो पाती अभीष्ट दोनों हैं-तत्त्वज्ञान भी तथा तेजस्विता भी। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। यह गायत्री साधना विधान की विशेषता है कि इसमें दोनों ही प्रतिफलों की प्राप्ति होती है तथा व्यक्ति ओजस्, तेजस, वर्चस् को समुच्चय बनता है। अथर्व वेद के मंत्र “स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम्.......” में जिस सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि की बात कही गयी है, वह ब्रह्मवर्चस् ही है। साथ ही यह भी कहा गया है कि यही ब्रह्मलोक ले जाने वाला, बंधनों से मुक्ति दिलाने वाला एक मात्र मार्ग है। हम सब गायत्री के ब्रह्मवर्चस् की साधना कर आत्मबल संपन्न बनें।