वसुधैव कुटुम्बकम् की ओर बढ़ते चरण

December 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौम और सर्वजनीन है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूलसत्ता भी एक ही प्रकार कह है। भौतिक प्रवृत्तियाँ भी लगभग एक सी हैं। अतः एकता व्यापक और शाश्वत हैं पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही परमपिता की संतानें हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह गुजारा करते हैं, फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं। औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वारा जितना खोलकर रखा जायेगा उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

अब राष्ट्रवाद के दिन लदते जा रहे हैं। देश भक्ति के जोश को अब उतना नहीं उभारा जाता जिसमें अपने ही क्षेत्र या वर्ग को सर्वोच्च ठहराया जाय अथवा विश्व विजय करके सर्वत्र अपना ही झण्डा फहराने का उन्माद उठ खड़ा हो। ऐसी पक्षपाती और आवेशग्रस्त देश भक्ति अब विचारशील वर्ग में नापसंद की जाती है और विश्व नागरिकता की वसुधैव कुटुम्बकम् की बात को महत्व दिया जाता है। विश्व एकता के सिद्धान्त को मान्यता मिली है और राष्ट्र संघ बना है। इस दिशा में अभी तक प्रगति के चरण धीमे रहे हैं किन्तु अब अपेक्षा यही की जानी चाहिए कि अगले ही दिनों व्यापक समस्याओं के समाधान के लिए समूचा विश्व एकता के सूत्र में आबद्ध होगा। एक राष्ट्र एक भाषा, एक संस्कृति एक धर्म अपनाकर ही उज्ज्वल भविष्य की विश्व शान्ति की स्थापना हो सकेगी। यह तथ्य मानवी विवेक ने स्वीकार कर लिया है और विभेद उभारने वाले, कट्टरता के कटघरे में मनुष्य की बुद्धि को कैद रखने वाले तत्वों को अब सामान्य ठहराया जा रहा है। धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यापक एकता उत्पन्न करने वाला वातावरण विनिर्मित हो रहा है।

नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए ऐसे एकतावादी विवेक को जागृत करने की अब आवश्यकता है जिसमें अपने ही पक्ष को सर्वोपरि ठहराये जाने का आग्रह न हो। अपने पराये का भेद भाव न करके औचित्य, न्याय, तथ्य और विवेक को ही जब मान्यता दी जायेगी तो फिर उपयोगिता स्वीकार करने की मनःस्थिति बन जायेगी। तब जो कुछ भी तथ्य तर्क सम्मत होगा वह स्वीकार कर लिया जायेगा।

मनुष्य के अपने रहन-सहन एवं सोचने विचारने के तरीके अलग-अलग हैं जिसे सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। अपने नाम, रूप, धन, परिवार क्षेत्र आदि की तरह ही भाषा एवं धर्म भी लोगों को प्रिय लगता है। यह प्रियता बहुधा कट्टरता का रूप धारण कर लेती या पक्षपात के रूप में बदल जाती है और अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरों को निकृष्ट ठहराने लगती है। पूर्वाग्रह और पक्षपात का गहरा पुट रहने से प्रायः यही भ्रम बना रहता है कि मानों सत्य अपने ही हिस्से में आया है और सभी गलत सोचने और झूठ बोलते हैं। अपना धर्म श्रेष्ठ दूसरे का निकृष्ट, अपनी जाति ऊँची दूसरे की नीची, अपनी मान्यता सच-सूदरे की झूठ ऐसा दुराग्रह यदि आरंभ से ही हो तो फिर सत्य-असत्य का निर्णय हो ही नहीं सकता। एकता के लिए न्याय और औचित्य की रक्षा के लिए आवश्यक है कि तथ्यों को ढूँढ़ने के लिए खुला मस्तिष्क रखा जाय और अपने पराये का भेद भाव न रख कर विवेक और तर्क का सहारा लेने की नीति अपनाई जाय। सत्य को प्राप्त करने का लक्ष्य इस नीति को अपनाने से ही पूरा हो सकता है।

मूर्धन्य मनीषियों, भविष्य दर्शियों का कहना है कि अगले दिनों मानवी विवेक और अधिक विकसित होगा और समूचे विश्व को एकता के सूत्र में आबद्ध करेगा। अध्यात्म पक्ष की इस संदर्भ में महती भूमिका होगी। शास्त्र उल्लेख और आप्त वचनों को ही तब पूर्ण न मानकर नये अनुसंधानों के लिए उसका द्वारा खुला रखा जायेगा ताकि उसकी प्रखरता, प्रामाणिकता और उपयोगिता को कसौटियों पर कसने के उपरान्त ही उसे सार्वभौम मान्यता मिले। विवेक दृष्टि जाग्रत होते ही धर्म-सम्प्रदाय संबंधी परस्पर विरोधी असंख्य मान्यताओं के संबंध में यह सोच उभरेगा कि सच्चाई तो एक ही हो सकती है, फिर समग्रता को समझते हुए असहमतियों को शिथिल करते हुए किसी एक निश्चय पर क्यों न पहुँचा जाय?

इतना बन पड़ने पर सम्प्रदायों की भिन्नता एकता में विकसित होकर लोक कल्याण में भली प्रकार समर्थ हो सकेगी। विग्रहों में भिन्नताओं में जो शक्ति खर्च होती है, उसका उपयोग सदुद्देश्यों के लिए बन पड़ना संभव होगा यह सब अगले दस वर्षों में होने जा रहा है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118